संतोख सिंह धीर के नाम से जुड़ा सिल्वी पार्क मोहाली

 

मंडी गोबिंदगढ़ के समीपवर्ती गांव डडहेड़ी में जन्मे संतोख सिंह धीर को उनके जीवित होते हुए मान-सम्मान मिले परन्तु उनके चले जाने के बाद मोहाली के सिल्वी पार्क का नाम उनके नाम पर रख दिया गया है। पंजाबी साहित्य तथा सांस्कृतिक जगत में इसका स्वागत करना बनता है। बड़े लेखकों तथा कलमदानों के नाम पर बागों, चौकों या कम्पनियों के नाम रखने की प्रथा पाकिस्तान में तो आम है परन्तु पूर्वी पंजाब में इतनी प्रचलित नहीं। धीर अपनी कार्यकारी आयु के चार दशक सिल्वी पार्क के निकट रहे। जहां तक मेरा संतोख सिंह धीर की जीवनी तथा रचनाकारी से संबंध है, मैं अपने बचपन से उन्हें कवि दरबारों में भाग लेते देखता आया हूं। मेरा ननिहाल गांव खन्ना संघोल मार्ग पर पड़ता है और डडहेड़ी लगभग पांच मील दूर। उन दिनों में उनकी पुस्तकें ‘गुड्डियां पटोले’ तथा ‘पहु फुटाला’ प्रकाशित हो चुकी थीं। परन्तु मैं उनकी कविताओं के मुकाबले कहानियों से अधिक प्रभावित था। विशेषकर ‘कोई एक सवार’, ‘सांझी कंध’, ‘भेत वाली गल्ल’ तथा ‘सवेर होण तक’ से। इनमें से कोई न कोई कहानी आज भी राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय कहानी संग्रहों में प्रकाशित हो रही है। मैं उन्हें नज़दीक से जानता था। यदि कोई प्रकाशक उनकी रचना के एक भी शब्द से छेड़छाड़ करता था तो वह उससे अपना नाता सदा के लिए तोड़ लेते थे। उनका कोई जवाब नहीं था। उनकी आयु पंजाबी कहानी के शाह सवार कुलवंत सिंह विर्क जितनी ही थी। 
लखपतियों के अंग-संग
मैं मीडिया में वरियाम सिंह संधू को उनके कहानी संग्रह तथा सुखविन्दर अमृत को उनकी नई कविताओं के कारण क्रमवार ‘अपनी आवाज़’ तथा ‘अपनी आवाज़ पहला पुरस्कार’ से सम्मानित होने के समाचार पढ़-सुन रहा था तो उन्होंने लखपतियों के अंग-संग अपने आप तथा मनमोहन बावा को भी विचरण करते देखा। जहां वरियाम संधू तथा सुखविन्दर अमृत को सम्मानित करने वाली संस्था ‘लोक मंच’ के संस्थापक सुरेन्द्र सिंह सुन्नड़ हैं, वहीं हमें ढूंढने वाले ‘अदारा राग’ के संस्थापक इन्द्रजीत पुरेवाल दोनों सात समुद्र पार के निवासी हो चुके हैं। वैसे इन्द्रजीत पुरेवाल का पैतृक गांव कोहाली रामतीर्थ रोड, अमृतसर पर पड़ता है। उनका ताज़ा भारत दौरा 28 वर्ष के अंतराल वाला है। पंजाबी प्रेमियों के लिए यह गर्व की बात है कि पंजाब के वे निवासी जो रोज़ी-रोटी के लिए दिल्ली दक्षिण तथा उससे भी कई गुणा दूर जा बसे हैं, अपने पंजाब को नहीं भूले तथा अपने दस नाखुनों की मेहनत से अपनी जन्म भूमि को सम्मानित करते रहते हैं। 
यह बात भी नोट करने वाली है कि इन्द्रजीत पुरेवाल अपने कार्यों का दायरा विशाल करने की भावना से ‘अदारा राग’ के आगोश में कलाकारों, रंगकर्मियों तथा सांस्कृतिक प्रेमियों को लेने की खुशी प्राप्त करने के इच्छुक हैं। 
याद रहे कि इस प्रकार के यत्न बंगा के समीपवर्ती गांव ढाहां कलेरां की पृष्ठभूमि वाला बर्ज ढाहां भी कर रहा है। सभी का स्वागत बनता है। ज़िन्दाबाद!
रवेल सिंह दिल्ली की चढ़त
पंजाबी अकादमी दिल्ली के पूर्व प्रमुख रवेल सिंह एक भार फिर भारतीय साहित्य अकादमी के पंजाबी एडवाइज़री बोर्ड के संरक्षक चुने गए हैं। इस बोर्ड के प्रथम संरक्षक मोहन सिंह थे तथा उनके बाद अमृता प्रीतम, प्रभजोत कौर, संत सिंह सेखों, करतार सिंह दुग्गल तथा अन्य समय-समय पर संरक्षक चुने गए, परन्तु दूसरी बार इस कुर्सी पर बैठने वाले रवेल सिंह ही हैं। याद रहे कि भारतीय साहित्य अकादमी भारतीय भाषाओं के शीर्ष रचनाकारों को प्रत्येक वर्ष सम्मानित करती है और पंजाबी में यह सम्मान प्राप्त करने वाली प्रथम शख्सियत भाई वीर सिंह थे।  रवेल सिंह इस पद पर रहने से पहले 14 वर्ष दिल्ली विश्वविद्यालय के पंजाबी विभाग में अध्यापक रह चुके हैं, जिनमें से अंतिम सात वर्ष प्रोफैसर एवं प्रमुख रहे। 
उनका पैतृक गांव गेहलड़ बहुत छेटा है सिर्फ 972 (पिछली जनगणना के अनुसार) की आबादी वाला। इसका डाकघर बहिराम सरिस्ता है और रेलवे स्टेशन भोगपुर जो जालन्धर-पठानकोट रेलवे लाइन पर पड़ता है। उनके पिता भी अध्यापक थे और वह सात बहनों के एक ही भाई हैं। 
अंतिका
(मोहन गिल डेहलों)
अज्ञानी पये कूकदे, ज्ञानवान ने चुप्प।
बोहलां नूं  मत्तां दये, तूड़ी वाला कुप्प।