सुप्रीम कोर्ट ने खींची राज्यपालों की हैसियत की लक्ष्मण रेखा

सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली व महाराष्ट्र सरकारों के संदर्भ में 11 मई, 2023 को दो अलग-अलग किन्तु महत्वपूर्ण फैसले सुनाये। एक फैसले में दिल्ली सरकार व उसके लेफ्टिनेंट गवर्नर से संबंधित निर्णय में जन प्रतिनिधित्व करने वाली सरकार और संघवाद के सिद्धांतों की पुष्टि हुई है। दूसरे फैसले से महाराष्ट्र में फिलहाल एकनाथ शिंदे की सरकार बच गई है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया है कि अपनी विधायकी (लेजिस्लेटिव) शाखा पर पार्टी की प्रधानता होगी। भविष्य में इसके बहुत गहरे परिणाम होंगे। बहरहाल, इन दोनों निर्णयों में एक साझा बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने सामान्य समझ को बरकरार रखते हुए केंद्र में सत्तारूढ़ दल को दो टूक शब्दों में बता दिया है कि पक्षपाती एजेंडा के लिए राज्यपालों व लेफ्टिनेंट गवर्नरों के इस्तेमाल की एक सीमा है। 
दो संवैधानिक खंडपीठों के इन फैसलों पर दिल्ली में आम आदमी पार्टी और महाराष्ट्र में शिव सेना का उद्धव ठाकरे गुट ‘नैतिक विजय’ का दावा कर सकते हैं, लेकिन फिलहाल ऐसा प्रतीत नहीं होता है कि इन दोनों राज्यों में ज़मीनी स्तर पर तुरंत कोई परिवर्तन आयेगा। सुप्रीम कोर्ट का बड़ा संदेश यह है कि राज्यपाल अपनी मनमज़र्ी से तय नहीं कर सकता कि विधानसभा में कब फ्लोर टैस्ट कराया जाये और केंद्र शासित प्रदेश में जब चुनी हुई विधानसभा कार्य कर रही हो तो लेफ्टिनेंट गवर्नर उसकी प्रशासनिक सेवाओं को नियंत्रित नहीं कर सकता है। दूसरे शब्दों में सुप्रीम कोर्ट के ये दोनों फैसले राज्यपाल व लेफ्टिनेंट गवर्नर के अनावश्यक हस्तक्षेप पर रोक हैं और केंद्र को भी बताते हैं कि वह इनका इस्तेमाल अपने ‘एजेंट’ के रूप में नहीं कर सकता। 
गौरतलब है कि ‘आप’ ने केंद्र द्वारा दिल्ली में नियंत्रित की जा रहीं प्रशासनिक सेवाओं के अधिकार को चुनौती दी थी। इस पर भारत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाईर्. चंद्रचूड़ के नेतृत्व वाली पांच सदस्यों की खंडपीठ ने संघवाद के साधारण सिद्धांत पर बल दिया कि शक्ति (पॉवर) व ज़िम्मेदारी एक साथ चलती हैं। अगर एक चुनी हुई सरकार अपने ही प्रशासनिक अधिकारियों को नियंत्रित नहीं कर सकती तो यह संविधान के तहत उसे मिली शक्तियों का इन्कार होगा। इसका अर्थ यह हुआ कि नौकरशाही अब वापस अरविंद केजरीवाल सरकार के अधीन होगी और लेफ्टिनेंट गवर्नर नियुक्ति या ट्रांसफर पर स्वतंत्र निर्देश नहीं दे सकते। लेकिन दिल्ली सरकार का यह प्रशासनिक नियंत्रण जन व्यवस्था (पब्लिक आर्डर), भूमि व पुलिस पर लागू नहीं होगा यानी अदालत ने यह कहा है कि दिल्ली में दो अलग-अलग सरकारें होंगी और लेफ्टिनेंट गवर्नर की उन मामलों में प्रधानता नहीं होगी जो चुनी हुई विधानसभा को आवंटित किये गये हैं। 
भारत की राजधानी में लम्बे समय से ‘आप’ की सरकार और लेफ्टिनेंट गवर्नर के बीच बड़ा विवाद चल रहा था कि प्रशासनिक सेवाओं को नियंत्रित करने का किसके पास अधिकार है। उम्मीद है कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला इस विवाद पर विराम लगायेगा, क्योंकि उसने बिना किसी शक की गुंजाइश के तय कर दिया है कि किसकी पॉवर कहां शुरू होकर कहां खत्म होती है। यह सही है कि अब ‘आप’ व भाजपा में राजनीतिक प्रतिद्वंदिता अधिक तीखी होगी, जो लोकतंत्र में कोई बुरी चीज़ भी नहीं है, लेकिन रोज़ की जो तू-तू मैं-मैं हो रही थी, वह तो रुक ही जायेगी। हालांकि मूल मुद्दा प्रशासनिक सेवाओं के नियंत्रण का था, लेकिन इसका असर टीचर्स ट्रेनिंग से लेकर पॉवर सब्सिडी तक पड़ रहा था। 
‘आप’ एक के बाद एक आने वाले लेफ्टिनेंट गवर्नरों पर उसके काम में अनुचित दखल देने के आरोप लगा रही थी और पलटवार करते हुए लेफ्टिनेंट गवर्नर उस पर ‘अनुवित कार्य’ व इससे भी खराब के आरोप लगा रहे थे। इस ‘सार्वजनिक युद्ध’ में नौकरशाही पिस रही थी और प्रशासन पर गंभीर कुप्रभाव पड़ रहे थे। कहानी का एक हिस्सा यह था कि दिल्ली सरकार की नियुक्तियों को लेफ्टिनेंट गवर्नर निरस्त, ठुकरा व हटा रहे थे। इससे अलग भी नाटक हो रहे थे, जैसे प्रशासनिक अधिकारियों की हड़ताल इस आरोप के तहत कि ‘आप’ विधायक ने एक अधिकारी के साथ बदतमीज़ी की थी। उस समय मुख्यमंत्री व उनके तीन मंत्रियों ने लेफ्टिनेंट गवर्नर के दफ्तर/निवास पर रात भर धरना दिया था कि हड़ताली अधिकारियों को वापस काम पर लौटने का आदेश दिया जाये। यह सारी नाटकबाजी दिल्ली की बर्दाश्त के बाहर हो रही थी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि भारत सरकार अगर चुनी हुई सरकार की कार्यकारी शक्तियां ही ले लेगी तो इससे ‘प्रतिनिधित्व लोकतंत्र का सिद्धांत और शासन की संघवाद व्यवस्था पूरी तरह से खत्म हो जायेगी’ और ‘गैर चुने सिविल सेवा अधिकारियों की स्थायी कार्यकारी मतदाताओं की इच्छा की परवाह किये बिना काम करने लगेगी’। यह सभी के लिए सबक है। 
जब जनता सरकारों को चुनती है तो सरकारों को संविधान की सीमाओं में रहते हुए, शासन करने की अनुमति होनी चाहिए, जिसमें अधिकारियों को ज़िम्मेदारी आवंटित करना भी शामिल है। अगर चुनी हुई राज्य सरकारें केंद्र की बंधुआ मज़दूर बना दी जाएंगी तो संघवाद का अर्थ ही क्या रह जायेगा। अदालत के फैसले के बाद कहा जा रहा है कि ‘आप’ फिर से दिल्ली सरकार की बॉस बन गयी है, जबकि वास्तविकता यह है कि जनता बॉस बन गयी है। जून 2022 में महाराष्ट्र में एमवीए सरकार गिरी थी। एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाली वर्तमान राज्य सरकार फिलहाल सुरक्षित है। इसके बावजूद सुप्रीम कोर्ट ने राज्य के पूर्व राज्यपाल बी.एस. कोश्यारी की भूमिका की कड़ी आलोचना की है कि उन्होंने गलत तरीके से उद्धव ठाकरे सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव लाने का आदेश दिया। चूंकि ठाकरे ने फ्लोर टैस्ट से पहले ही इस्तीफा दे दिया था, इसलिए अब उनके पास कोई कानूनी राहत नहीं है।
अपने निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के दसवें शेड्यूल का प्रयोग संदर्भ के तौर पर किया है। इसमें सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि अपनी विधायकी शाखा पर राजनीतिक दल की प्रधानता होगी। वोटिंग पर व्हिप पार्टी की इच्छा को व्यक्त करती है न कि उसके विधायकों की इच्छा को। पार्टी ही अपनी व्हिप व सदन के नेता को नियुक्त करती है। इसका अर्थ यह हुआ कि अब विधायकों के लिए दलबदल करना आसान नहीं होगा क्योंकि दल-बदल के विरुद्ध राजनीतिक पार्टियों के पास अधिक सुरक्षा होगी। स्पष्ट शब्दों में यह जान लीजिये कि महाराष्ट्र विधानसभा के वर्तमान स्पीकर राहुल नारवेकर (भाजपा) को विधायकों की लम्बित अयोग्य प्रक्रिया पर निर्णय लेने के लिए केवल उनकी संख्या को ही नहीं देखना होगा बल्कि शिव सेना के संविधान के आधार पर व्हिप व नेता तय करना होगा। दसवें शेड्यूल में स्पीकर मुख्य खिलाड़ी है। 
यहां अदालत का फैसला निर्णयात्मक नहीं है। ‘विरोधाभासी तर्क’ के आधार पर उसने अपना एक पूर्व फैसला (नबम रेबिया केस) बड़ी पीठ को सौंपा था। इस बीच न्यायिक समीक्षा की शर्त पर उसने दल-बदल प्रक्रिया को तय करने की ज़िम्मेदारी स्पीकर को दी है। दल-बदल मामले में राज्यपाल की भूमिका पर अदालत ने कहा है कि वह सियासी अखाड़े में नहीं कूद सकता। पार्टी की आंतरिक कलह फ्लोर टैस्ट से तय नहीं होती है, इसलिए कोश्यारी की आलोचना की गई। यह बात दूसरे राज्यपालों पर भी लागू होती है यानी यह फैसला राज्यपालों को कार्यकारी मामलों में बिचौलिया बनने से रोकता है।
    
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर