रंग बदलती दुनिया के नये सहोदर

अब उनको क्या कहें कि उन्हें आजकल लगता है कि वह ़गरीब हो गये हैं। आज के इस कुतेगिरी के माहौल में बहुत से धनी मानी लोगों को लगने लगा है कि वह अचानक गरीब हो गये हैं, और उनके दु:खों का कोई अन्त नहीं है।
वे पहले दड़े-सट्टे की पर्चियां निकालने का धंधा करते थे, अब इसको क्रिप्टो करंसी कह कर उसका आधुनिकीकरण कर दिया गया है। देश डिजिटल हो गया। अब लुडों और सांप और सीढ़ी के खेलों के ऊंचे स्तर के जुआ संस्करणों में लगा दिया है। यहां हथेली पर सरसों जमाने वाले लोगों की संख्या बढ़ गई है। वे उन्हें इसके सब्जबाग में भटका लाखों के बारे न्यारे करे लगें, भला हो कि बुरा इस रंग बदलती दुनिया का साधु वेष धारण किये लोग ऐसे-ऐसे चोरी ठगी के नये चोर दरवाज़े निकालते हैं, कि हर पिछले काम के पुरातन पंथी होते देर नहीं लगती। रंक से राजा, और पासा पलटते ही राजा से रंक होने का ऐसा पांसा पल्टू खेल दिन-रात चलता है कि पता नहीं चलता, कल किसका पत्ता ऊपर हो जाएगा, किसका कट जायेगा।
‘रेणु कै मैला आंचल’ का बावन दास ज़िन्दा होता तो सिर झटका, आंखे नचा कह देता जा रे ज़माना।’ लेकिन अब यह ज़माना कहां जाये? वह तो वही है, और भी लज्जाहीन हंसता हुआ। नैतिकता के अलम्बरदारों थे तो अब नैतिकता का ढोल पीटना भी बंद कर दिया।
कभी जो अपनी बात पर न टिके, सदा फिसलती रूह की तरह एक पाले से दूसरे पाले में कूद जाये, उसे ‘आया राम गया राम’ का उपालभ देकर जात बाहर कर दिया जाता था। लेकिन अब नहीं किया जाता।
ज़माना कयामत की चाल चल गया। जो अपनी बात, अपने स्टैंड, और अपने संकल्प पर अभी भी दृढ़ रहें, उसे कहते हैं, ‘भैय्या इसे तो दीमक लग गया।’ इसने अपने पैर पर कुल्हाड़ी नहीं, खुद कुल्हाड़ी पर अपना पैर मार दिया। अरे कामयाब वही जो गिरगिट का सहोदर बन कर आज यहां कल वहां स्थापित हो जाये। रंग बदल कर आजकल पल्टूराम हो जाना नये ज़माने में जीने की सामझदारी है। यार लोग बीस-बीस साल की प्रतिबद्धता और किसी दल के सिद्धांत के प्रति समर्पण को रतौंधी मान कर अपने विरोधी पक्ष में कूद उनसे गलबहियां लेते हुए एक दिन भी नहीं लगाते। सवाल तो पद पाने का है, कुर्सी को सुशोभित करने का है। आपने हमारे नीचे से एक जगह कुर्सी खींची, तो हम अपनी कुर्सी और उस पर चंवर झुलाने वालों के साथ विरोधियों के अखाड़े में कूद जायेंगे, और उनके दंगल में अपना लंगोटा लहरा कर कह देंगे, ‘भय्या जब से जागे तब से सवेरा।’ हमारी कुर्सी यहां जमा दो, तो नव-जागरण की तुरही यहां से ही फूंकी जायेगी। सवाल तो नक्कारखाने में अपनी तूती की आवाज़ सुना देने को है। आपने हमारी तूती नकारी, हम आपका नक्कारखाना नकार देंगे।
हम कूद कर कुर्सी पक्ष की ओर चले जायेंगे, और कहेंगे असली पक्ष तो हमारा है। जो पक्ष त्याग दिया उसी के मसीहा को तस्वीर के नीचे बैठ कर कहेंगे, ‘असली पक्ष तो हम हैं, हम उन नकली लोगों को छोड़ आये।’ नेता अगर पीछे छूट गया, तो उसकी उम्र का हवाला देकर उसे राजनीति की इस दुनिया-ए- फानी से कूच करने की नेक सलाह देंगे, और अपने नाती पोतों, कुनबे, परिवार, या फिर जात-बिरादरी के हक के लिए लड़ने को अपना असली संघर्ष बतायेंगे। कूद फांद कर वह तस्वीर दिखायेंगे कि जिसका उल्टा रुख वह पहले सब दिन दिखाते रहे। लेकिन कदम-कदम पर इस रंग बदलती दुनिया में जिस वंचित भीड़ का नेतृत्व का वह वायदा करते थे, उन्हें उनके भगवान भरोसे अथवा कर्मों के लेखे के बल छोड़ अपने आगे बढ़ जाने को वह असली कर्त्तव्य पथ पर अग्रसर होना कह देते हैं। बेशक वंशवाद से वह घृणा करते हैं, लेकिन अपने वंशजों की योग्यता का राग अलापते हुए उन्हें अपवाद मानने की सिफारिश करते हैं।
उन्हें अनुकम्पा की उदारता का प्रसाद बांटने से घृणा है। उन रेवड़ियों को बांटने से ऩफरत है, जो उनके अपनों को न मिले। इसलिए हर चुनाव की परीक्षा घड़ी से पहले उनका चुनावी एजेंडा रेवड़ियों के बंटवारे को गाली देता हुआ नई-नई अनुकम्पा घोषणाओं से भरा रहता है। बेबसी के साथ सिर हिला कर वह कह देते हैं, कि ‘भई इसके सिवाय कोई चारा भी तो नहीं।’ जन-कल्याण के मुलम्मे के नीचे ये रेवड़ियां सरेआम बंटती हैं, और उद्यम के बन्द दरवाज़ों को खोलने में असमर्थ लोग विदेशों की ओर पलायन की दौड़ लगाते हैं।
परन्तु भाग्य विधाताओं को दु:ख है अगर वह गिरहकट से पार्षद, पार्षद से विधायक, विधायक से सांसद न हो जायें। मंत्री नहीं तो किसी कार्पोरेट का चेयरमैन ही बनवा दो। केन्द्र  में नहीं तो राज्य में ही कुर्सी दिलवा दो। जब नहीं मिलती तो उनके असंतोष का कोई अन्त नहीं रहता। बेबस क्रोध उन्हें दु:खों का पहाड़ ढोने जैसा लगता है। फिर होता है नये राजनीतिक दल, गठजोड़ या साथ-साथ चलने की घोषणा का निनाद। 
इस कदम ताल में ‘साथी हाथ बढ़ाना साथी रे’ का स्वर गायन उभरता है। लेकिन उनके हाथों में किसी निरीह, कांपता  या अभागे वंचित का हाथ नहीं रहता। उसे तो बीच रास्ते किसी अध बनी सड़क के रोज़ नये उभरते गड्ढों में छोड़ दिया था। भई यह तो हर पल नया सपना बांटने वाले स्वनाम धन्य जुझारू लोग की जमात है, जो कल तक एक दूसरे से अज़नबी थे, आज उनसे ज्यादा सगा उनका कोई नहीं, जो हर पल रंग बदलते इस माहौल में तनिक भी असुविधा महसूस नहीं करता।