लोकसभा चुनाव-2024 : मतदाता उत्साहित क्यों नहीं हो रहे ?

लोकसभा चुनाव में मतदान के दो दौर हो चुके हैं। अब यह तकरीबन स्पष्ट हो चुका है कि सत्तारूढ़ दल को कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। पहले लग रहा था कि नरेन्द्र मोदी, जिस तरह रोज़ सुबह चहलकदमी करके व्यायाम करते हैं, उसी तरह वे आराम से चुनाव जीत जाएंगे। उनके समर्थकों ने कहना शुरू कर दिया था कि मोदी जी 2024 का चुनाव लड़ रहे हैं, लेकिन उनकी तैयारी 2029 के चुनाव को जीतने की है और उनकी निगाह 2047 पर है, जब देश की आज़ादी के 100 साल पूरे हो जाएंगे। लेकिन किसी को अनुमान नहीं था कि भाजपा समर्थक वोटर ही नहीं भाजपा के कार्यकर्ताओं एवं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों में इस ़कदर सुस्ती और जड़ता का आलम दिखेगा। अब भाजपा की सबसे बड़ी चुनौती यह है कि किस तरह जोश पैदा करे। उसे एक नहीं बल्कि तीन तरफ जोश पैदा करना है। वोटरों में, पार्टी कार्यकर्ताओं में और स्वयंसेवकों में। मोदी जी ने सोचा था कि कांग्रेस के घोषणा पत्र का साम्प्रदायिक अर्थ-निरूपण करके वे पूरे चुनाव में जोश का इंजेक्शन लगाने में कामयाब हो जाएंगे। लेकिन दूसरे चरण के गिरे हुए मतदान प्रतिशत को देखने से नहीं लगता कि वे कामयाब हुए हैं। प्रश्न यह है कि क्या वे तीसरे चरण के लिए चुनाव प्रचार के किसी तीसरे हथकंडे को आजमाने पर ़गौर करेंगे। ध्यान रहे कि पहले दौर में उनका ज़ोर भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी तथाकथित लड़ाई पर था। दूसरे दौर में भ्रष्टाचार का मुद्दा गुल हो गया और वह शुरू हुआ जिसे मैं मोदी जी का ‘मंगलसूत्र कांड’ कहता हूं। तीसरे दौर में क्या होगा? 
पहले समझा यह जा रहा था कि बंटी वोट या वोटरों द्वारा हर चुनाव के हिसाब से वोट करने के मानस को देखते हुए कुछ राज्यों में पराजय के बावजूद लोकसभा में भाजपा की जीत की संभावनाओं पर सवालिया निशान नहीं लगाया जा सकता। विपक्ष की एकता एंटी-इनकम्बेंसी की मात्रा और मज़बूती पर निर्भर थी। यह मान लिया गया था कि अगर सरकार विरोधी भावनाएं सामान्य किस्म की हैं, तो नरेन्द्र मोदी अपने सामाजिक गठजोड़ और लोक भलाई मॉडल के दम पर उनसे पार पा लेंगे। अगर ये भावनाएं उफान पर आ गईं तो उनका मुकाबला करने के लिए उन्हें किसी असाधारण उपाय की आवश्यकता पड़ेगी। पिछली बार पुलवामा पर आतंकी हमले के जवाब में की गई सर्जीकल स्ट्राइक या ‘घुस कर मारा’ वाले चुनावी जुमले ने यह भूमिका निभाई थी। अगर यह जुमला न होता तो आज नरेंद्र मोदी अल्पमत सरकार चला रहे होते। वह असाधारण उपाय क्या होगा? मोदी जी बड़ी बेचैनी से उसे खोज रहे हैं। चुनाव लम्बा है। आखिरी वोट एक जून को पड़ेगा। देखने की बात होगी कि मोदी इस दौरान कौन सा हथकंडा खोज निकालते हैं। 
भाजपा ने पिछले 10 साल में दिखाया है कि सामाजिक गठजोड़ बनाने की कला में उसका कोई सानी नहीं है। यह एक ऐसी कला है जिसे ज़्यादातर विपक्षी दल, खासकर कांग्रेस, तकरीबन भूल ही चुके हैं। संसदीय चुनाव हमेशा और हर जगह प्रमुख रूप से सामाजिक गठजोड़ों के ज़रिये ही जीते जाते हैं। बाकी कारकों की भूमिका भी होती है, पर गौण। भाजपा ने उत्तर प्रदेश में 45 से 50 प्रतिशत वोटों का जो सामाजिक गठजोड़ बनाया है वह पिछले 9 साल में हुए दो लोकसभा और दो विधानसभा चुनावों के दौरान उसे एकतरफा जीतें दिलाता रहा है। न तो समाजवादी पार्टी, न बसपा और न ही कांग्रेस उसमें ज़रा भी सेंध लगा पाई है। गुजरात में भाजपा दिखा चुकी है कि सरकार विरोधी भावनाओं की बहुतायत के बावजूद चुनावी परिणाम को अपने पक्ष में एकतरफा कैसे बनाया जा सकता है। गुजरात में पटेलों और अगड़ी जातियों के बुनियादी जनाधार पर खड़े होकर भाजपा उसमें पिछड़ों, आदिवासियों और दलितों के वोट और जोड़ कर जो मतदाता-मंडल बनाया है— उसने एक बार फिर उसका साथ दिया है। राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा ने ऊंची जातियों, यादवों को छोड़ कर अधिकतर पिछड़ी जातियों, जाटवों को छोड़कर अधिकतर दलित जातियों और मोटे तौर पर स्त्री वोटरों की हमदर्दी जीतने में सफलता पाई है। लोकसभा चुनाव से पहले ऐसा कोई कारण नहीं दिख रहा था कि ये सामाजिक तबके भाजपा का साथ छोड़ने के बारे में सोचेंगे। माहौल ही कुछ ऐसा बन गया था कि लोगों को भाजपा ही सारे देश पर शासन करने की क्षमता से लैस दिखाई पड़ रही थी। यह कुछ वैसा ही था जैसा कभी आम मतदाता कांग्रेस के बारे में सोचते थे। ऐसे ही माहौल के कारण मेरे जैसी राजनीतिक समीक्षकों के दिमाग में यह बात नहीं आ पाई कि कुछ और भी घटित हो सकता है। जैसे ही नितीश कुमार के पालाबदल और कांग्रेस के प्रमाद के कारण विपक्षी एकता की गतिशीलता खत्म हुए, लगने लगा कि एक बार फिर मोदी ने अपना रास्ता साफ कर लिया है। लेकिन यह किसी को नहीं पता था कि हर चुनाव में बढ़ने वाला मतदान प्रतिशत इस बार इस तरह घटेगा कि उससे भाजपा के चुनाव जीतने की गारंटी पर संदेह के बादल मंडराने लगेंगे। 
बहुसंख्यकवादी राजनीति को टिकाने का दूसरा पहलू रहा है भाजपा द्वारा प्रचलित किया गया नया लोक भलाई मॉडल। इसे लाभार्थियों की नई जाति के रूप में भी व्यक्त किया जाता है। यह भाजपा को राजनीतिक झटकों और सदमों को पचा जाने की क्षमता प्रदान करता रहा है। पुराने लोक भलाई मॉडल का नमूना मनरेगा जैसा कार्यक्रम है, नये मॉडल का नमूना बहुत बड़ा व विविध है। इसमें जनधन खातों से लेकर प्रधानमंत्री किसान सम्मान योजना और मुफ्त या सस्ते अनाज की स्कीमें शामिल हैं। पुराना मॉडल कहता है काम की कुछ न कुछ गारंटी मिलेगी या खाद सस्ती कर दी जाएगी। नया मॉडल कहता है कि आर्थिक सहायता सीधे आपके खाते में पहुंचेगी या बिजली-पानी मुफ्त अथवा बहुत कम दामों में मिलेगी। प्रेक्षकों को ध्यान होगा कि नरेन्द्र मोदी ने 2014 में सत्ता में आने के तुरंत बाद पहला कदम जनधन योजना के खाते खोलने के रूप में उठाया था। दरअसल, वे नये लोक भलाई मॉडल की अधिरचना बना रहे थे। नरेन्द्र मोदी ने दिखाया है कि भले ही पश्चिमी उ.प्र., हरियाणा व पंजाब के किसानों ने दिल्ली घेर ली हो— वे दस करोड़ किसानों के खाते में 18 हज़ार करोड़ रुपए एक क्षण में भेज कर उन्हें इन आंदोलनकारी किसानों से अलग दिखा सकते हैं। यह फंडा एकदम सीधा है। जिन तबकों की आमदनी बहुत कम हो गयी है या तकरीबन शून्य है, उन्हें अगर पांच सौ से दो हज़ार की रकम अचानक अपने खाते में आती दिखेगी, तो वे सरकार के प्रति कृतज्ञता अनुभव करेंगे ही। इस तरह की युक्तियां अर्थव्यवस्था के सम्पूर्ण कॉरपोरेटीकरण के लिए सुरक्षित गुंज़ाइश प्रदान कर रही हैं। 
क्या मतदान के पहले दो चरणों में वोटों के प्रतिशत में आयी उल्लेखनीय गिरावट से यह पता नहीं लगता कि न तो भाजपा का सामाजिक गठजोड़, न ही स्त्री मतदाताओं का भाजपा के प्रति बढ़ा आकर्षण और न ही लाभार्थियों की नयी जाति वोटरों के मन में बैठी उदासीनता की काट कर पाने में समर्थ नहीं है? इसके कारणों की गम्भीर जांच करनी होगी। देखना होगा कि नरेन्द्र मोदी ने पिछले दस सालों में जिस तरह की सरकार चलाई है, और जिस तरह से अपनी पार्टी और कार्यकर्ताओं को स्पर्श दिया है— कहीं यह उदासीनता उसी का फलितार्थ तो नहीं है?

लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।