अग्रिम प्रबंध करके रोका जा सकता है बाढ़ से होने वाला नुकसान

 

विश्व के लगभग सभी विकसित देश अपने यहां आने वाली बाढ़ का स्थायी और तकनीक समाधान तलाश चुके हैं, लेकिन आज जब भारत विकसित देशों में शुमार होने के मुहाने पर खड़ा है, इस समस्या के बुनियादी और ज़मीनी हल ढूंढने पर ही बात कर रहे हैं। इस साल की बाढ़ जो इन पंक्तियों के लिखे जाने के समय देश के करीब चार दर्जन जिलों और 6 विभिन्न राज्यों के अलग-अलग इलाकों में हाहाकारी बनी हुई है, ने हमारे कामकाज, सोच और प्रबंधन पर सवाल खड़े कर दिए हैं। अब बिना और देरी किये बाढ़ से उपजे इन सवालों के जवाब तलाशने ही होंगे, क्योंकि बाढ़ या अन्य प्राकृतिक आपदाएं अब ऐसी नहीं रहीं कि जिनका पूर्वानुमान कठिन हो और बचाव तथा सुरक्षा के साधन सीमित हों। 
भारत में बाढ़ एक आवर्ती प्राकृतिक घटना है, जिसका देशव्यापी प्रवण क्षेत्र 45.64 मिलियन हेक्टेयर के लगभग तय है। यही नहीं इसके रोकथाम के उपाय देश, समाज और सरकारें दशकों से जानती-बूझती भी हैं। बावजूद इसके उचित ढंग से रोकथाम के उपाय क्यों नहीं किये जा रहे, यह चिंता का विषय है। बाढ़ हर साल हमारी व्यवस्था की परीक्षा लेती है और सरकारों को ठेंगा दिखाते हुए एक बार फिर आने को लौट जाती है। केंद्र सरकार जो आर्थिक विकास और अवसंरचन निर्माण के लिये प्रतिबद्ध है, उसे बाढ़ को इस नज़रिये से भी देखना होगा कि यह इन दोनों की दुश्मन है। यह सड़कों, पुलों जैसी अवसंरचना के विकास में किये गये निवेश को बहा ले जाती है। बाढ़ के बाद क्षतिग्रस्त ढांचों की मरम्मत और पुनर्निर्माण में हर बार नया निवेश करना पड़ता है, जिससे विकास में विलम्ब और वित्तीय बोझ बढ़ता है। इस साल अब तक देश भर के 22 राज्यों के 235 जिले बाढ़ से प्रभावित रहे हैं, 15 हज़ार करोड़ रुपये से ज्यादा का आर्थिक नुकसान हुआ है, दस हज़ार से अधिक मकान आंशिक या पूरी तरह से तबाह हुए हैं तथा 750 से अधिक इन्सानी जानें गई हैं। इस सब में पशुधन की क्षति का आंकलन ही नहीं है। 
इसके अलावा इस बाढ़ से कितनी गाद कहां आयी, किस क्षेत्र की मृदा कितनी बदली। किन कृषि क्षेत्रों की मिट्टी की प्रकृति परिवर्तित हो गई, उसके सुधार अथवा उससे लाभ लेने के लिये क्या उपाय किया जाएं, कतिपय दूसरे देशों ने जैसा किया है, उनकी तरह बाढ़ जैसी आपदा को अवसर में कैसे बदलें,  ऐसे विषयों पर हमारे यहां अभी सोचा जाना ही नहीं शुरू हुआ। हुआ भी होगा तो बहुत कम, जिसे तवज्जो नहीं मिली।  दरअसल बाढ़  नियंत्रण का विषय संविधान की राज्य सूची, संघ सूची और भारत की सहमति सूची में से किसी में भी नहीं है। ऐसे में इसकी प्राथमिक ज़िम्मेदारी राज्यों की बनती है। केंद्र की भूमिका मात्र प्रचारात्मक होती है, वैसे वह इस संदर्भ में तकनीकी सहायता, सलाह तथा बयान आदि भी दे देती है। बाढ़  नियंत्रण योजनाओं और उनके कार्यान्वयन में राज्य और केंद्र के साधन-संसाधन साथ क्यों नहीं होते, इसका जवाब अनुत्तरित है। बाढ़ आती है और सरकारी एजेंसियां तयशुदा मॉडल के तहत बचाव के नाम पर इमदाद बांट देती हैं। बाढ़ न आये, आये भी तो यह इतनी प्रलयंकारी न हो, नियंत्रित रहे, इसमें नुक्सान की जगह फायदे तलाशे जाएं, इस सबके बारे में तो अभी सोचा ही नहीं है।  वास्तव में बुनियादी दिक्कत यही है। देश के वैज्ञानिक संस्थान इस समस्या का तकनीकी निदान क्यों नहीं सोचते? बाढ़ के मामले में संचार माध्यमों की भूमिक भी महत्वपूर्ण है। इनका काम बस इसका विवरण देना भर नहीं है। 
 बाढ़ के कारण पूरी दुनिया में जो मौतें होती हैं, उनमें 20 प्रतिशत अकेले भारत में होती हैं। ऐसे में हमें बाढ़ व वर्षा के जल के कुशल प्रबंधन की युक्ति निकालनी होगी। बेतरतीब शहरीकरण को रोकना होगा। बाढ़ ग्रस्त क्षेत्रों का स्थानीय कारोबार और पर्यटन इससे कैसे कम से कम प्रभावित हो, इस पर सोचना होगा। स्मार्ट सिटी निर्माण के तरीकों पर पुनर्विचार करना होगा। हमें इस वास्तविकता को स्वीकार करना ही होगा कि पुरानी जल निकासी व्यवस्था तेज़ी से बढ़ी जनसंख्या का बोझ नहीं उठा सकती। निर्माण और दूसरे क्षेत्रों से निकले ठोस कचरे का प्रबंधन बाढ़ आने पर ही क्यों होता है? नदियों, नालों के किनारे पर झुग्गी बस्तियों का अतिक्रमण, कूड़े का ढेर का हटना, गाद की सफाई, नदी पर जलाशयों का निर्माण बाढ़ से पहले क्यों नहीं होता? जल जमाव से पनपने वाले संचारी व गैर-संचारी रोगों की रोकथाम की व्यवस्था भी बाढ़ आने से पहले होना चाहिये। नुकसान से बचने के लिए कृत्रिम बुद्धिमत्ता और अन्य तकनीक के साथ संचार क्षमताओं के समन्वय से बाढ़ पूर्वानुमान की सटीक तकनीक विकसित करनी होगी। 
हम गौर करेंगे तो पता चलेगा कि बाढ़ आने की प्रवृत्ति अब बढ़ गई है। ऐसे में आम जन की संपत्ति के नुकसान की भरपाई हेतु सरकार को बीमा की व्यवस्था करनी होगी। देश में अभी तक महज एक प्रतिशत सम्पत्ति का बीमा है, जबकि अमरीका में 90 प्रतिशत सम्पत्ति का बीमा है। इसके साथ ही देश में मौसम विज्ञान विभाग, राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण, राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन योजना, केंद्रीय जल आयोग,  राष्ट्रीय बाढ़ जोखिम शमन परियोजना, राष्ट्रीय रिमोट सेंसिंग सेंटर आदि संस्थाओं के बीच समन्वय और सहयोग बढ़ाना तथा इन संस्थाओं की जवाबदेही भी तय करना होगा। वाटर शेड प्रबंधनए मृदा संरक्षण, नदी तटबंधों का निर्माण, बाढ़ रोकथाम तकनीक विकसित करने में निवेश की दिशा में तेज़ी से आगे बढ़ना होगा। नि:संदेह बाढ़ प्रबंधन प्रणाली को और अधिक मजबूत बनाने के लिए प्रगतिशील दृष्टिकोण को अपनाना होगा। बाढ़ केवल हमारे देश की समस्या नहीं है, संसार के तमाम देश इस समस्या से सामना करते हैं। हम भले ही इस प्राकृतिक आपदा के हल ढूंढने की दिशा में उन्नत तकनीक और खोजों के प्रति बहुत आग्रही और सचेत न हों, परन्तु बहुत-से विकसित देश इस मामले में अग्रणी हैं। उनके प्रयास, चल रहे शोध विकास और बनाये जा रहे मॉडल बताते हैं कि दो दशक बाद बाढ़ अधिकांश विकसित देशों के लिये कोई बड़ी समस्या नहीं रह जायेगी। सरकारी दावों के अनुसार हम शीघ्र ही विकसित देशों की सूची में शामिल होंगे। ऐसे में हमें भी इस दिशा में उन्हीं की तरह आगे बढ़ना होगा 
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर