क्या पर्यावरण से सामंजस्य स्थापित नहीं कर पाए अफ्रीकी चीते ?

 

मध्य प्रदेश में स्थित कूनो नेशनल पार्क में चीतों की मौत भारत के लिए एक बड़ी चिंता का विषय है। जानकारी देना चाहूंगा कि कूनो नेशनल पार्क में अब तक 5 चीतों और 3 शावकों की मौत हो चुकी है और मीडिया खबरें बतातीं हैं कि अब पार्क में अब कुल 15 चीते और 1 शावक बचे हैं। जानकारी मिलती है कि कूनों में 27 मार्च को, साशा नाम की मादा चीता की किडनी की बीमारी के कारण मृत्यु हो गई। 23 अप्रैल को, उदय की, 9 मई को दक्षा की मौत हुई, 23.25 मई के बीच कूनो में जन्म 3 शावकों की मौत हो गई और 11 जुलाई को एक नर चीता तेजस मृत पाया गया। इसके बाद आठवें चीते सूरज की भी मौत हो गई। 
कुछ समय पहले ही कूनो नेशनल पार्क में चीता पुनरोत्थान के लिए नामीबिया और साउथ अफ्रीका से 20 चीते लाए गए थे। नामीबिया से लाए गए 8 चीतों को भारत के प्रधनमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने जन्मदिन पर 17 सितम्बर, 2022 को कूनो नेशनल पार्क में छोड़ा था और पिछले साल सितम्बर में आठ चीते नामीबिया से लाए गए थे। इन आठ चीतों में से पांच मादा चीते और तीन चीते नर थे। दक्षिण अफ्रीका से लाए गए 12 में सात नर और पांच मादा के बाद कूनो नेशनल पार्क में चीतों की कुल संख्या 20 हो गई थी। उल्लेखनीय है कि देश में वर्ष 1952 में चीतों के विलुप्त होने की घोषणा की गई थी और करीब 70 साल बाद देश के कूनो अभ्यारण्य में चीते दिखाई दिए थे।
‘बिग कैट फैमिली’ का हिस्सा चीता एकमात्र ऐसा बड़ा मांसाहारी जानवर है जो भारत में पूरी तरह से विलुप्त हो गया था और चीतों के विलुप्त होने की बड़ी वजह इनके शिकार को माना गया। इसके अलावा रहने का ठिकाना न होना (अधिवास न होना) भी चीतों के विलुप्त होने की वजह माना गया। यह भी माना जाता है कि मध्य प्रदेश के कोरिया के महाराजा रामानुज प्रताप सिंह देव ने 1947 में देश में अंतिम तीन चीतों का शिकार किया था। कूनो नेशनल पार्क को करीब एक दशक पहले गिर के एशियाई शेरों को लाने के लिए तैयार किया गया था न कि चीतों के लिए हालांकि, गिर से शेरों को कूनो नहीं लाया जा सका और कूनो में चीतों का अधिवास किया गया। बहरहाल, कुछ विशेषज्ञ इन मौतों का कारण चीतों को लगाए घटिया रेडियो कॉलर को मानते हैं। मीडिया के हवाले से खबरें सामने आई थीं कि ये कॉलर टाइगर के थे, मगर चीतों को लगा दिए गए। जानकारों का मानना है कि टाइगर के लिए तैयार कॉलर चीतों को लगा दिए गए जिससे उनकी गर्दन छिल रही है और इंफेक्शन हो रहा है। कूनो के सभी चीतों के पास अफ्रीकी वन्यजीव ट्रैकिंग रेडियो कॉलर है, हालांकि कई विशेषज्ञ इस कॉलर में लगे बेल्ट की गुणवत्ता को लेकर सवाल उठा रहे हैं। कुछ का यह भी कहना है कि भारत लाने से पहले चीतों के गले पर पहले से ही इंफेक्शन था। 
यहां यह भी बता दूं कि कुछ समय पहले चीतों को सड़े गले मांस खिलाने को लेकर भी विवाद उठा था और कूनो अभ्यारण्य के अधिकारियों पर बंदरबांट के आरोप भी लगे थे। बताया जा रहा है कि चार महीनों के समय में ही इन चीतों की जानें गईं हैं। कूनो में चीतों की मौत के पीछे जो भी कारण हों, लेकिन यह पर्यावरणविदों और वन्यजीव संरक्षण से जुड़े लोगों के लिए एक गहन चिंता का विषय बन गया है। वास्तव में, नामीबिया और दक्षिणी अफ्रीका की जलवायु और भारत की जलवायु में फर्क है। सभी देशों की जलवायु, तापमान, वनस्पतियां, आबोहवा व पारिस्थितिकी तंत्र अलग-अलग होते हैं और जीवों के लिए उनके साथ एकदम से तालमेल बिठाना व सामंजस्य स्थापित करना इतना आसान नहीं होता है। पारिस्थितिकी तंत्र का धरती के समस्त जीवों पर बहुत असर पड़ता है और वे बहुत बार अनुकूल जलवायु, अधिवास व पारिस्थितिकी तंत्र न मिलने पर सर्वाइव नहीं कर पाते हैं। बहुत से वन्यजीवों के शरीर की बनावट बेहद संवेदनशील होती है और आबोहवा बदलने का उस पर असर पड़ सकता है। 
सच तो यह है कि जलवायु परिवर्तन के कारण जंगली जानवरों ही नहीं मनुष्यों तक को भी जीवित रहने के लिए नई चुनौतियां, नये वातावरण का सामना करना पड़ता है। लगातार सूखा, लगातार बारिश, आंधी-तूफान, गर्मी की लहरें, सर्दी, समुद्र के स्तर में वृद्धि, ग्लेशियरों का पिघलना और महासागरों का गर्म होना कहीं न कहीं जंगली जानवरों को नुकसान पहुंचा सकता है, उनके रहने के स्थानों (अधिवासों) आदि को नष्ट कर सकता है। जलवायु परिवर्तन, प्रकृति का जानवरों, मनुष्यों पर असर पड़ सकता है। बहुत बार प्राकृतिक कारणों से भी जंगली जानवर बीमार पड़ सकते हैं। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि किसी पशु या जानवर पर नज़र रखने के लिए कोई यंत्र उसके शरीर की संरचना के अनुकूल या प्रतिकूल भी साबित हो सकता है। 
कूनो राष्ट्रीय उद्यान में लाए गए चीते निश्चित रूप से देश में पारिस्थितिकी संतुलन की दिशा में एक ठोस पहल कहीं जा सकती है, लेकिन इसके साथ-साथ चीतों के संरक्षण के लिए भी ज़रूरी इंतजाम करना हम सभी का परम दायित्व व कर्तव्य होना चाहिए। यह ठीक है कि विभिन्न प्राकृतिक उतार-चढ़ावों का असर धरती के सभी जीवों पर कमोबेश पड़ता रहा है। कहना ़गलत नहीं होगा कि तापमान, बारिश, हवा नमी जैसे जलवायुवीय घटक कहीं न कहीं जीवों को प्रभावित करते हैं। आंतरिक कारकों में आनुवंशिकता, एंजाइम और हार्मोन आदि को शामिल किया जा सकता है, जबकि बाहरी कारकों में प्रकाश, पानी, तापमान और खनिज या पोषक तत्व आदि शामिल किए जा सकते हैं। 
वन्यजीवों के मामले में कई बार स्थितियां कुछ ज्यादा ही संवेदनशील हो जाती हैं। कुछ पशु-पक्षी, जंगली जानवर किसी विशेष अनुकूल पर्यावरण में ही सुरक्षित व जीवित रह पाते हैं। दक्षिण अफ्रीका और नामीबिया से लाए गए बीस चीतों में कुछ के लिए शायद यहां के वातावरण से तालमेल बिठा पाना मुश्किल रहा और इसीलिए उनके जीवन और स्वास्थ्य के सामने कई तरह की जटिलताएं खड़ी हो रही हैं। हालांकि सरकार और संबंधित महकमे, पर्यावरणविद् और वैज्ञानिक चीतों की मौत, उनके बीमार होने (अस्वस्थ होने) के कारणों की खोज और उन्हें बचाने, उनका संरक्षण करने के लिए विभिन्न ज़रूरी उपायों को करने में लगातार लगे हैं, लेकिन इस संबंध में सभी ज़रूरी सावधानियां, विभिन्न सुविधाओं के साथ ही इस संबंध में गहन अध्ययन किए जाने की आवश्यकता है। यह बहुत ही महत्वपूर्ण और काबिलेतारिफ बात है कि सरकार ने बाघों की तरह चीतों के संरक्षण के लिए भी चीता परियोजना का समर्थन करने के लिए कई आवश्यक व ज़रूरी कदम उठाने की बात की है। सरकार प्रकृति के साथ होड़ तो कदापि नहीं कर सकती है लेकिन आवश्यक व ज़रूरी कदम उठाकर चीतों का संरक्षण करने की दिशा में नायाब पहल ज़रूर कर सकती है और प्रयासों तथा पहल से ही सबकुछ संभव बनाया जा सकता है। (युवराज)