राहुल गांधी की सज़ा पर रोक से भाजपा-संघ कबीले को झटका

 

नरेंद्र मोदी के अंध भक्तों के लिए सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मोदी उपनाम वाले मानहानि के केस में कांग्रेस नेता राहुल गांधी की सजा पर रोक लगाने और एक सांसद के रूप में उनकी स्थिति को बहाल करना एक बड़ा झटका था। इससे तो पूरा भाजपा-संघ कबीला हिल गया और उनका सम्पूर्ण राजनीतिक तंत्र भी। वास्तविक अर्थों में यह निर्णय निचली न्यायपालिका की कार्यप्रणाली और कुछ हद तक विधायी प्रभावशीलता पर सवाल भी है। सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी ने इस मामले में निचली न्यायपालिका द्वारा अपनाई गयी जल्दबाजी के तंत्र को उजागर किया है, जो लोकसभा अध्यक्ष को कुछ हद तक आत्म-निरीक्षण करने के लिए भी मज़बूर करेगा। राहुल को लोकसभा की सदस्यता से वंचित करने का आदेश देने में इतनी जल्दबाज़ी की क्या ज़रूरत थी?  अध्यक्ष कुछ दिनों तक इंतज़ार कर सकते थे और अपनी कार्रवाई के परिणामों पर विचार कर सकते थे। हालांकि चुनाव आयोग को मोदी और अमित शाह के सीधे निर्देशों पर काम करने वाला माना जाता है, किन्तु उसने भी इंतजार किया और लोकसभा अध्यक्ष की कार्रवाई से खाली हुई सीट के लिए उपचुनाव कराने की घोषणा नहीं की। 
आदेश पर रोक लगाने वाली शीर्ष अदालत की तीन न्यायाधीशों की पीठ ने स्पष्ट रूप से कहा कि निचली अदालत में सुनवायी करने वाले जज द्वारा अधिकतम सजा देने का कोई कारण नहीं बताया गया। बेशक इसने कर्नाटक रैली में अपनी टिप्पणियों के लिए राहुल की खिंचाई की और पाया कि कांग्रेस नेता के बयान अच्छे नहीं थे और सार्वजनिक जीवन वाले एक व्यक्ति से सार्वजनिक भाषण देते समय सावधानी बरतने की उम्मीद की जाती है। 
न्यायाधीशों की इस टिप्पणी का स्पष्ट अर्थ यह है कि राहुल को संयम बनाये रखना चाहिए था। सजा देने वाली निचली अदालत द्वारा अपनी कार्रवाई को उचित ठहराने के लिए उपयुक्त कारण नहीं बताना ही सजा पर रोक लगाने का आधार बना। न्यायमूर्ति बी.आर. गवई ने जानना चाहा, ‘हालांकि अपीलीय और उच्च न्यायालय ने दोष सिद्धि पर रोक को खारिज करने के लिए बड़े पैमाने पर पन्ने खर्च किए हैं, लेकिन उनके आदेशों में इन पहलुओं पर विचार नहीं किया गया है।’ शीर्ष अदालत गुजरात उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती देने वाली गांधी की याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसने उनकी ‘मोदी उपनाम’ टिप्पणी पर मानहानि मामले में उनकी सजा पर रोक लगाने की उनकी याचिका खारिज कर दी थी। गुजरात के पूर्व मंत्री पूर्णेश मोदी ने 2019 में गांधी के खिलाफ उनके ‘सभी चोरों का सामान्य उपनाम मोदी कैसे है?’ पर आपराधिक मानहानि का मामला दायर किया था। 
जरा लोकसभा अध्यक्ष की दशा की भी कल्पना करें।  सर्वोच्च न्यायालय द्वारा राहुल की लोकसभा सदस्यता बहाल करने के बाद उन्हें फिर से बहाल करने का आदेश जारी करना पड़ा है। लोकसभा सचिवालय को भी उस घर को दोबारा आवंटित करने में असुविधा का सामना करना पड़ेगा, जहां से उसने अध्यक्ष के आदेश के मद्देनज़र राहुल को बाहर कर दिया था।  एक बात तय है कि सर्वोच्च न्यायालय ने उनकी सजा को खारिज करने हेतु गुजरात उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की तरह जल्दबाज़ी रुख नहीं अपनाया था।  सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने टिप्पणी की कि गुजरात उच्च न्यायालय का आदेश ‘पढ़ने में बहुत दिलचस्प’ है और उसमें ‘बहुत सारे उपदेश’ हैं। 
राहुल गांधी की याचिका को खारिज करते हुए, गुजरात उच्च न्यायालय ने 7 जुलाई को कहा था कि ‘राजनीति में शुचिता’ समय की आवश्यकता है। उच्च न्यायालय ने आगे कहा कि दोष सिद्धि को रोकने के लिए कोई उचित आधार नहीं था, क्योंकि सुनवाई करने वाली अदालत का आदेश ‘उचित और कानूनी’ था और इसमें हस्तक्षेप करने की कोई आवश्यकता नहीं है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी गुजरात उच्च न्यायालय की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाने से कम नहीं है। राहुल के वकील ने तथ्य पेश करते हुए बताया कि शिकायतकर्ता पूर्णेश मोदी का मूल उपनाम मोदी नहीं है और कि वह (पूर्णेश) मोध वनिका समाज से हैं। उन्होंने अपना नाम बदल लिया है। गांधी जी ने अपने भाषण के दौरान जिन लोगों का नाम लिया था, उनमें से एक ने भी केस नहीं किया है।’ कानूनी वेबसाइट लाइव लॉ के अनुसार, दिलचस्प बात यह है कि 13 करोड़ के इस ‘छोटे’ समुदाय में जो भी लोग पीड़ित हैं, उनमें से केस करने वाले केवल भाजपा पदाधिकारी हैं। तथ्यों पर नज़र डालने से यह स्पष्ट हो जाता है कि आरएसएस और शीर्ष भाजपा नेताओं, मोदी और अमित शाह ने यह सुनिश्चित करने के लिए उन्हें झूठे मामले में फंसाने की योजना बनायी थी कि राहुल संसद से बाहर रहें।  वास्तव में उन्हें यकीन था कि इसके परिणामस्वरूप राहुल की सदस्यता बहाल नहीं होगी व अगले 8 साल तक उनके चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी जायेगी। लेकिन दुर्भाग्य से आरएसएस और मोदी के लिए, उनका जाल-बट्टा सर्वोच्च न्यायालय के परिसर में बिखर गया है। इस आदेश का मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य पर काफी असर पड़ेगा। लोकसभा सदस्यता की बहाली आरएसएस और भाजपा की हिंदू राष्ट्र के साथ आगे बढ़ने की योजना को भी प्रभावित करेगी। कोई संदेह नहीं है कि इस फैसले का संघ परिवार पर विनाशकारी प्रभाव तो अवश्य पड़ेगा। इससे विपक्षी गठबंधन इंडिया की प्रासंगिकता को भी बढ़ावा मिलेगा। इसने भारत जोड़ो यात्रा की प्रासंगिकता को बढ़ाया है, जिसे बदनाम करने के लिए एक गहन अभियान चलाया गया था। शीर्ष अदालत के फैसले ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि राहुल को बिना किसी गलती के माफी मांगने के लिए मजबूर करने के लिए आपराधिक प्रक्रिया और जन प्रतिनिधित्व अधिनियम के प्रावधानों का उपयोग करना, न्यायिक प्रक्रिया का घोर दुरुपयोग है और इस न्यायालय द्वारा इसे स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए।  (संवाद)