जन-विश्वास विधेयक : जेल के बदले जुर्माना कितना जायज़ ?

 

सरकार ने लोकसभा में उस जनविश्वास विधेयक को पारित करा लिया जो 19 मंत्रालयों से जुड़े 42 कानूनों के 182 प्रावधानों को बदलकर इन कानूनों के तहत सज़ा पाने वाले अपराधियों को जेल की सज़ा से मुक्ति दिला देगा। उसे अपराध के बदले में बस तय जुर्माना ही देना होगा। सोच हो सकती है कि जेल में डाल कर अनुत्पादक भीड़ बढ़ाने से बेहतर है जुर्माने के तौर पर उनसे कुछ धन हासिल किया जाए जो ज्यादा सार्थक और उत्पादक कृत्य होगा। राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड के आंकड़े बताते हैं कि जुलाई 2023 तक देश की अदालतों में जो चार करोड़ चालीस लाख से ज्यादा मामले लंबित हैं, इनमें से तीन करोड़ तीस लाख से ज्यादा मामले आपराधिक हैं। इन मामलों का विश्लेषण करें तो बहुतायत संख्या अत्यंत साधारण किस्म के आपराधिक आरोपों के हैं। ऐसे में इस संशोधन विधेयक को सरकार राज्यसभा से भी पास कर ले तो वह अदालतों से आपराधिक मामलों का और जेल प्रशासन से कैदियों के देखरेख का बोझ कम करने में सफल हो जाएगी।
जनविश्वास विधेयक राज्यसभा से पास होकर कानून बन गया तो साधारण अपराधों से संबंधित अदालत में लंबित लाखों मुकद्दमों का निपटारा आसानी से और त्वरित तौर पर संभव होगा और धन, समय, ऊर्जा, संसाधन के अपव्यव का कारण बनने वाले इन लंबित मुकद्दमों की संख्या भी आगे से नहीं बढ़ेगी। साधारण मामलों वाले इन खिंचते मुकद्दमों के चलते जनता, अदालतें, सरकार और कारोबारी तथा दूसरे वर्ग परेशान होते थे। अब न तो अदालतें बेवजह के कागज़-पत्र, कार्यवाइयों के बोझ से दबेंगी, न छोटे स्तर का भ्रष्टाचार पनपेगा बल्कि कोर्ट के कामकाज में फुर्ती आयेगी। साधारण अपराध में जेल जाने वाला व्यक्ति देश, समाज, परिवार के लिए बोझ बन जाता है और रिहा होने के बाद भी कलंक नहीं छूटता। सो बेहतर है कि जुर्माना भरकर अथवा आदालत से बाहर एक दंड राशि चुका कर दोनों पक्ष समझौता कर अपराध और मुकद्दमा मुक्त हो लें। भले सरकार के विरोधी और विधि विशेषज्ञ इसे डीक्रिमलाइजेशन और भ्रष्टाचार को कानून सम्मत बनाने की बात कह कर सरकार की बुराई करें परन्तु मोदी सरकार ने लोगों के रहन-सहन एवं व्यापार करने में सुगमता, सुविधा लाने के लिए पिछले 9 वर्षों के शासनकाल के दौरान लगभग 40 हज़ार कानूनी प्रावधानों को सरल बनाया है। इस बार की कारगुज़ारी को जोड़ लें तो उसने 1,562 कानूनी प्रावधानों को कानून की किताब से हटाया है।  
अब अगर कोई जंगल में अनाधिकृत प्रवेश करता है, मवेशी ले जाता है, वहां हरा पेड़ काटता, गिराता, जलाता है, तो महज 500 रुपये का जुर्माना भरना पड़ेगा। पहले उसे 6 महीने जेल भी होती जिसे अब खत्म कर दिया गया है। इसी तरह अब कोई व्यक्ति अथवा औद्योगिक इकाई वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण फैलाती है तो उसे 5 या 6 साल की जेल नहीं होगी, बस जुर्माना लगेगा। आजकल बाहर से खाना मंगाने, बाहर खाने का चलन है। अभी तक नियम था कि असुरक्षित भोजन बेचने वाले को 6 महीने तक की जेल और एक लाख रुपये तक का जुर्माना होता था, कानून में बदलाव के बाद इस अपराध के लिए जुर्माना बढ़ाकर 3 लाख कर दिया है, दुर्लभ मामलों में ही जेल होगी, वह भी तीन महीने से ज्यादा नहीं। कोई भ्रामक, आपत्तिजनक जानकारी भेजता है, गैर-परमिट वाहन से माल ढुलाई या काम करता है, बेहद घटिया किस्म की गंभीर खामियों से भरी दवा बनाता है तो भी इन सबके लिए जेल नहीं होगी, तय जुर्माना भरकर वह छूट सकता है। यहां तक ट्रेनों में भीख मांगने वाले भिखारी को भी अब जेल नहीं ले जाया जाएगा बल्कि उनसे जुर्माना लेकर छोड़ दिया जाएगा। अगर कोई इन्सान गलत तरीके से पेटेंट का उल्लंघन करता है तो भी उसे जेल नहीं होगी बल्कि अधिकतम 10 लाख रुपये का जुर्माना लगेगा।
यह सही है कि देश में प्रचलित 1,536 कानूनों के 70 हज़ार प्रावधानों में से अधिकतर छोटे कारोबारियों के विकास में बाधा बनते हैं। ऐसे में सामान्य और कामकाज के दौरान असावधानी के चलते हो जाने वाले अपराधों के लिए जेल चले जाने का भय व्यापार के पारिस्थितिकी तंत्र और व्यापारी, निर्माता के व्यक्तिगत आत्मविश्वास के विकास में बाधा डालने वाला एक प्रमुख कारक है। जन विश्वास के जरिये सरकार का प्रयास है कि वह व्यवस्था की अड़चनें कम करने के लिए वर्तमान स्थिति के मद्देनज़र पुराने नियमों में बदलाव करके जो लोग छोटे-छोटे अपराधों के कारण जेल की सज़ा और जुर्माने से डरते हैं, वे लोग, व्यवसायी और सरकारी एजेंसियां सामान्य या तकनीकी रूप से सामान्य उल्लंघनों के लिए जेल जाने की चिंता से मुक्त हो कर अपना काम निर्भय हो कर सकेंगी। इससे व्यवसाय को बढ़ावा मिलेगा और कारोबार करने में आसानी होगी। कई कानूनी प्रावधानों को अपराध मुक्त करने से कारोबारियों को जेल जाने, अदालतों के चक्कर लगाने व नौकरशाहों के जाल में फंसने से राहत मिलेगी।
छोटे-बड़े, स्याहपोश व सफेदपोश सभी तरह के अपराधियों में जेल जाने का भय जुर्माने से ज्यादा रहता है। बहुत-से अपराधों में जुर्माना भरना सामान्य और शान की बात समझी जाती है। करोड़ों का अपराध और लाखों का जुर्माना उन्हें रास आने वाला है। जुर्माना उन्हें उसी अपराध को दोहराने से न तो नैतिक तौर पर बाध्य करता है न ही सामाजिक, आर्थिक और व्यवस्थागत तौर पर उन्हें रोकता है। जेल जाने से किसी भ्रष्ट कारोबारी के एक से अधिक कार्य प्रभावित होते थे परन्तु अब वह जुर्माना भरने के बाद निश्चिंत होकर भ्रष्ट तौर-तरीके अपना सकता है। उनके संगठनों द्वारा सरकार के इस कदम का स्वागत लाज़िमी है, परन्तु सवाल है कि इससे आम आदमी, उपभोक्ता को क्या मिला। उपभोक्ता के तौर पर उसे भारी नुकसान पहुंचने की आशंका है। असल में जनविश्वास के संशोधन अपराध की बारम्बारता बढ़ा देंगे, भले ही मुकद्दमों की संख्या घटे, जुर्माने के बतौर राजस्व बढ़े, परन्तु अपराध और भ्रष्टाचार भी उसी अनुपात में बढ़ेगा और यह समाज और स्वस्थ कारोबार के लिये उचित नहीं होगा। दवा निर्माण को ही लीजिए, भारत में गुणवत्ताविहीन, नकली दवाएं बनना आम बात है और अब तो इसका डंका विदेशों में भी बज रहा है। ऐसे में फार्मा कम्पनियों को केवल जुर्माना भरकर बचने की छूट नि:संदेह घटिया स्तर की दवाएं बनाने की ओर प्रेरित करेगी।
असल में अपराधों को अपराध की श्रेणी से बाहर करने वाला यह मार्ग उद्यम एवं व्यापार के परिस्थितिकी तंत्र को और भ्रष्ट बना सकता है। ये प्रावधान कारोबारियों में यह भाव भरेंगे कि अपराध के आरोप का क्या है, अधिकतम जुर्माने को मुनाफे में से पहले अलग निकाल कर रखा है। जनविश्वास के प्रावधान बताते हैं कि अपराध पर कड़ा नियंत्रण संभव न हो तो कानून को ही इतना ढीला कर दो कि कृत्य अपराध की श्रेणी से बाहर हो जाये या फिर दंड विधान में ऐसा बदलाव किया जाए कि अपराध की गंभीरता समाप्त हो जाए। 
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