‘इंडिया’ बनाम ‘भारत’ ये कारोबार-ए-सियासत है, तुम न समझोगे

ये कारोबार-ए-सियासत है, तुम न समझोगे,
हुआ है मुझ को बहुत ़फायदा ़खसारे में।
शायर ‘साबिर’ के शे’अर में सियासत के स्थान पर शब्द मुहब्बत था, परन्तु मैं राजनीति बारे में लिख रहा हूं इसलिए मुझे मुहब्बत के स्थान पर सियासत लिखना प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तथा भाजपा द्वारा ‘भारत’ बनाम ‘इंडिया’ विवाद छेड़ने की राजनीति के सन्दर्भ में विचार करने के लिए लिखना ज़रूरी महसूस हुआ। ़खैर, प्रधानमंत्री मोदी ने आज तक कहीं भी नहीं कहा कि वह ‘इंडिया’ शब्द को प्रतिबंधित करने जा रहे हैं। बस, उन्होंने इतना ही किया है कि भारत के राष्ट्रपति की ओर से जी-20 के निमंत्रण पत्र में अंग्रेज़ी में ‘प्रैज़ीडैंट ऑफ भारत’ लिखवा दिया तथा उसके बाद इस विवाद को और तीव्र करने के लिए 20वें आसियान-इंडिया शिखर सम्मेलन के एक निमंत्रण-पत्र को भाजपा के प्रमुख प्रवक्ता संबित पात्रा द्वारा ट्वीट करवा दिया गया, जिस पर अंग्रेज़ी में ही ‘द प्राइम मिनिस्टर ऑफ भारत’ लिखा हुआ है। वास्तविकता यह है कि यदि यह बात हिन्दी में लिखी होती तो कोई शोर नहीं होना था क्योंकि भारत तथा इंडिया संविधान के अनुसार एक ही हैं, परन्तु आम तौर पर अंग्रेज़ी में हमेशा ‘इंडिया’ तथा अन्य भारतीय भाषाओं में ‘भारत’ लिखा और सम्बोधित किया जाता है परन्तु इस तरह प्रतीत होता है कि अंग्रेज़ी निमंत्रण-पत्रों में ‘भारत’ लिख कर जानबूझ कर एक विवाद छेड़ने का यत्न किया गया है। फिर इसके लिए समय भी वह चुना गया, जब संसद का विशेष अधिवेशन बुलाया जा चुका है, परन्तु उसका एजेंडा क्या है, किसी को भी जानकारी नहीं। इससे यह प्रभाव बन रहा है कि इस अधिवेशन में देश का नाम ‘इंडिया’ से ‘भारत’ के स्थान पर सिर्फ ‘भारत’ कर दिया जाएगा।
जिस तरह की दृष्टि से हमने पूरे घटनाक्रम को देखा है, उससे हमें तो यह प्रभाव मिलता है कि अभी प्रधानमंत्री मोदी इस विशेष अधिवेशन में देश का नाम सिर्फ ‘भारत’ रखने का कोई प्रस्ताव नहीं लाएंगे।
परन्तु यह एहसास ज़रूर होता है कि इस विवाद को इतनी हवा देने के पीछे प्रधानमंत्री श्री मोदी की कोई गहरी राजनीतिक चाल ज़रूर है। वह एक तीर से कई निशाने करने का यत्न कर रहे प्रतीत होते हैं। पहला यत्न तो यह है कि वह विपक्ष को इस विवाद में उलझाने में सफल रहे हैं तथा वह उन्हें ‘एक देश-एक चुनाव’ के विरोध में हवा बनाने से दूर ले गए हैं। गौरतलब है कि जिस तरह के संकेत मिल रहे हैं, उनके अनुसार पांच विधानसभाओं के आगामी चुनावों में भाजपा के हारने की सम्भावनाएं अधिक दिखाई देती हैं। यदि लोकसभा के चुनावों से एकाएक पहले भाजपा प्रदेश के चुनाव हार जाती है तो इसका विपरीत प्रभाव लोकसभा चुनावों पर पड़ना सुनिश्चित है। इसलिए यदि भाजपा ‘एक देश-एक चुनाव’ का कानून बना कर इनमें कुछ अन्य प्रदेशों के चुनाव लोकसभा चुनावों के साथ करवाने में सफल हो जाती है तो समझ लें उसने एक बड़ा ़खतरा टालने में सफलता हासिल कर ली है।
दूसरा, इस बहस से भाजपा ‘इंडिया’ शब्द को भारतीय मानसिकता खास तौर पर हिन्दुत्व मानसिकता जो भाजपा का कोर वोट बैंक है, में गुलामी के पर्यायवाची शब्द के रूप में प्रचार करने के यत्न में है ताकि विपक्ष के गठबंधन ‘इंडिया’ की धार को कम किया जा सके।
यहां एक और विचारणीय बात यह है कि हवा में ‘सरगोशियां’ हैं कि आजकल आर.एस.एस. मोदी-शाह जोड़ी से खुश नहीं है। इस ‘पहल’ को आर.एस.एस. प्रमुख मोहन भागवत को खुश करने की एक चाल भी माना जा रहा है, क्योंकि समय-समय पर भागवत ने भारत शब्द को प्राथमिकता देने की बात भी कही है परन्तु कुछ लोग इसे इससे भी आगे की चाल समझ रहे हैं कि इस विवाद से हिन्दुत्व वोट बैंक में मोदी स्वयं को आर.एस.एस. तथा मोहन भागवत से भी बड़ा हिन्दुत्वादी साबित करने में सफल हो सकते हैं। इससे पहली बात तो आर.एस.एस. मोदी का ही समर्थन करने के लिए विवश हो जाएगा। अगर न भी हुआ तो मोदी स्वयं अपने दम पर ही अपने कोर वोट बैंक को अपने से दूर होने से रोकने में सफल सफल हो जाएंगे। वैसे यह यत्न एवं बहस एक प्रकार से हिन्दू राष्ट्र के लिए कतारबंदी करने का यत्न ही प्रतीत होती है, परन्तु इस बहस या विवाद के सिर्फ इतने ही अर्थ नहीं हैं, अपितु इसके और भी अनेक लक्ष्य होंगे, जिनमें चुनावों तक लोगों का ध्यान देश के वास्तविक मामलों से हटाना, अडानी को बचाना, भ्रष्टाचार तथा महंगे रक्षा सौदों के मामलों से ध्यान भटकाना भी इसके उद्देश्यों में शामिल हो सकता है, परन्तु एक बात स्पष्ट है कि भाजपा विरोधी दलों की एकजुटता से अपनी घबराहट को छिपा नहीं पा रही।
भारत के नामों की दास्तान
‘इंडिया’, ‘भारत’ तथा ‘हिन्दुस्तान’ के प्रचलित तीन नामों के अलावा भी इस धरती के कई नाम प्रचलित रहे हैं, जिनमें जम्बूद्वीप, भारत वर्ष, भारत खंड, आर्यव्रत, हिन्द, अलहिन्द, हिम वर्ष, अजनाभ वष इतेना, सिंधू तथा अन्य कुछ नाम भी शामिल हैं। हिन्द, हिन्दुस्तान तथा इंडिया जैसे भूगोलिक नाम हैं जो भिन्न-भिन्न देशों के लोगों की बोलने की सामर्थ्य के अनुसार अलग-अलग हो गए। ़फारसी लोग सिंधू को हिन्दू बोलते थे तथा यूरोपियन इंड जो बाद में इंडस हो गया, बोलते थे।
भारत नाम के पीछे भरत नामक राजा का ज़िक्र भी होता है। एक भरत राजा दुष्यन्त तथा शकुंतला के बेटे थे तथा दूसरा भरत भरत चक्रवर्ती बताया जाता है। स्कंद पुराण के अनुसार भरत चक्रवर्ती पहले जैन तीर्थंकर शरभदेव के पुत्र थे जबकि जम्बूद्वीप मिथिहासिक भूगोल के अनुसार हिन्दूकुश की पहाड़ियों से लेकर सार्क और एशियाई देशों तक फैला हुआ था, जिसके अधीन चीन और रूस के भी कई इलाके आते थे, लेकिन इन इलाकों के राजाओं की आपसी लड़ाई के कारण यह देश सिकुड़ता चला गया।
एक देश-एक चुनाव पर अकाली दल
हालांकि एक देश-एक चुनाव स्पष्ट रूप में संघात्मक ढांचे को कमजोर करने का काम करेगा, लेकिन अकाली दल जो किसी समय राज्यों को अधिक अधिकार देने की राजनीति का अग्रणी होता था, द्वारा बिना किसी सोच-विचार के सबसे आगे होकर, एक देश-एक चुनाव के पक्ष में खड़ा होना हैरानीजनक है। ऐसा लगता है कि अकाली दल चाहे ऊपर से भाजपा के खिलाफ कितनी भी डींगें मार रहा है परन्तु वास्तव में वह 2024 के चुनावों में भाजपा के साथ समझौता करने के लिए छटपटा रहा है। विरोध सिर्फ छोटा या बड़ा भाई बनने की लड़ाई में बड़ा भाई बने रहने तक ही सीमित है।
बाब माज़ी के देखु तो हो सर बुलंद, 
़िफक्र-ए-माज़ी मगर दिल डराता है।
(लाल फिरोज़पुरी)
चाहे मेरे व्यतीत हो चुके समय का इतिहास तो मेरा सिर ऊंचा उठाता है पर भविष्य का ़िफर्क डरा रहा है।
विद्यार्थी चुनाव और राजनीति
पंजाब यूनिवर्सिटी के चुनावों में पंजाब की राजनीति का भविष्य देखा जा रहा है। काग्रेस से संबंधित एन.एस.यू.आई. के जतिंदर सिंह के प्रधान चुने जाने और शहीद जसवंत सिंह खालड़ा की सोच से संबंधित संस्था सत्थ की रमणीक कौर के उप-प्रधान चुने जाने के साथ ‘आप’ और भाजपा के लिए राजनीतिक खतरे की घंटी बज गई है। वैसे तो सत्थ की उम्मीदवार का जीतना, पंजाब के लिए अच्छा शगुन है, जो पंजाबियों में इन्साफ-पसंद ताकतों को मज़बूती देगा। यहां यह बात ज़रूरी है कि जीतने वाले जतिंदर सिंह चुनाव से कुछ दिन पहले तक भाजपा की ए.बी.वी.पी. के साथ जुड़े हुए थे।
तनमनजीत सिंह ढेसी का उत्थान
नि:संदेह भारतीयों को ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ऋषि सुनक के भारतीय देश का होने पर गर्व है और होना भी चाहिए, लेकिन जिस प्रकार की चर्चा सुनाई दे रही है, उसके अनुसार इस बार ब्रिटेन में लेबर पार्टी के जीतने की आशा है। ब्रिटेन में मुख्य विरोधी पार्टी सरकार के मंत्रिमंडल के मुकाबले अपने सांसदों का शैडो मंत्रिमंडल बनाती है, जो अपने-अपने विभागों में सरकार द्वारा की जा रही कारवाइयों पर नज़र रखते हैं। यह रिवायत है कि जब विपक्षी पार्टी अस्तित्व में आती है तो वह आम तौर पर अपने शैडो मंत्री को ही उसी विभाग का मंत्री बना देती है। ब्रिटेन के पहले सिख दस्तारधारी सदस्य सांसद ढेसी कुछ समय पहले भारत आए थे, उस समय वह रेलवे के शैडो मंत्री थे। लेकिन भारत में उनको अनदेखा ही नहीं किया गया बल्कि उन्हें मामूली तकनीकी गलती के आधार पर करीब दो घंटे हवाई अड्डे पर रोका भी गया। अब लेबर पार्टी में तनमनजीत सिंह ढेसी का कद और भी ऊंचा हो गया है और उनको शैडो वित्त मंत्री बना दिया गया है। भाव जैसी सम्भावनाएं हैं यदि लेबर पार्टी सत्ता में आई तो ढेसी ब्रिटेन के वित्त मंत्री बन सकते हैं। ऐसी संभावना वाला नेता जब भारत में आता है तो चाहिए तो यह कि भारत सरकार उनकी अच्छी खातिरदारी करे और जब वह सत्ता में आए तो विश्व राजनीति में भारत को फायदा हो सके, भारत की दोस्ती मज़बूत हो सके, लेकिन पता नहीं क्यों, भारत सरकार इन बातों की परवाह नहीं करती। पहले पंजाबियों और सिखों के हमदर्द समझे जाते कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो को भी बहुत अनदेखा किया गया था, जिसके कारण भारत कैनेडियन मंत्रिमंडल में कई भारतीय मंत्री होने का भारत-कनाडा संबंधों में कोई लाभ नहीं ले सका।
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