भारत-अमरीका सैन्य सहयोग, बेजोड़ रिश्ते की ओर दो महाशक्तियां

भारत में अमरीकी राजदूत एरिक गार्सेटी ने कहा है कि बाइडेन-मोदी मुलाकात के दौरान उनके वार्ता विषयों में व्यापार, तकनीकी, ऊर्जा और शोध के साथ रक्षा भी है। कहने का मतलब यह है कि बाइडेन कुछ द्विपक्षीय रक्षा सौदों और समझौतों पर भी मुहर लगेगी। इसकी पूर्वपीठिका छह महीने से तैयार हो रही थी। बाइडेन के भारत आने से पहले 19 मार्च 2023 को अमरीकी रक्षा सचिव लॉयड ऑस्टिन तीन दिन के लिए भारत आये थे। लॉयड ऑस्टिन पहले ही दिन प्रधानमंत्री और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल से मिलकर दोनों देशों के बीच सैन्य सहयोग बढ़ाने पर चर्चा की। इसके बाद वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण 9 अप्रैल 2023 से एक सप्ताह के लिए अमरीका गईं। विश्व बैंक और आईएमएफ की वार्षिक बैठक के आलावा, जी-20 देशों के वित्तमंत्रियों, केंद्रीय बैंक गवर्नरों की बैठक से इतर उनके एजेंडे में कथित तौर पर बाइडेन की सितम्बर यात्रा की तैयारी भी थी, जिसमें ऐसे रक्षा मसले शामिल हैं जिसमें वित्त विभाग की सहभागिता भी दरकार है। इन कोशिशों के परिणामस्वरूप अमरीका और भारत के बीच रणनीतिक रक्षा सहयोग में छिपे तौर पर जो तेज़ी आयी है, उसका प्रतिफलन बाइडेन की इस यात्रा में तो दिखेगा ही आगे भी सामने आता रहेगा। बेशक, इससे भारत की सामरिक शक्ति बढ़ेगी, चीन, पाकिस्तान को सीधा संदेश जाएगा। डेढ दशक पहले तक भारत अमरीका के साथ सैन्य सहयोग नगण्य था। मोदी सरकार आने के बाद इसमें पंख लगे हैं।
अमरीका से रक्षा सौदों की बढ़ती संख्या और मात्रा की वजह अमरीकी हथियार लॉबी की शानदार लाबीईंग और दलालों को दिया जाने वाले कट के अलावा इसकी कई दूसरी वजहें हैं। यह ठीक है कि डोकलाम और यूक्रेन युद्ध ने इस ओर देश की रफ्तार को बहुत तेज़ कर दिया लेकिन आंकड़े बताते हैं कि मोदी सरकार जब से सत्ता में आयी है, उसके कुछ ही दिनों बाद उसने अपनी रक्षा नीति में देश को रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाने और रूस (एसएस1) से अति निर्भरता को समाप्त करने का लक्ष्य शामिल कर लिया था, इसका कारण दूरदर्शितापूर्ण और सुविचारित था न कि रूस का एक कम्युनिस्ट देश होना। सच तो यही है कि भारत रूस ने  संयुक्त रक्षा उत्पादन में ब्राह्मोस मिसाइलें, टैंकों टी-72 एम-1 टैंक, रेडार, पोतभेदी और तोपभेदी मिसाइलों का निर्माण बहुत सफल रहा। रूस से हथियार खरीद और मिलकर निर्माण तथा विकास के जरिए हमने नई क्षमताएं हासिल की। लेकिन पहले वर्तमान परिस्थितियों में जब यूक्रेन पर हमले ने दुनिया के पूरे भू-राजनीतिक परिदृश्य को बदल दिया है, चीन भी भारत को आश्वस्त करने की परवाह नहीं करता कि डोकलाम दोहराया नहीं जाएगा और सीमा के दोनों ओर प्रतिस्पर्धी हथियार का रूप धारण कर रहा है।  
ऐसे में रूस का झुकाव चीन की तरफ ज्यादा है और वह भारत की नौ सेना संबंधी समस्याओं को हल्के में ले रहा था तब उससे रक्षा रिश्ता सीमित करना वैदेशिक नीति के मामले में भी दुरुस्त था और कई अर्थों में रक्षा नीति के मामले में भी। साल 2016 में, ओबामा प्रेसीडेंसी के तहत लॉजिस्टिक्स एक्सचेंज मेमोरेंडम ऑफ एग्रीमेंट पर देश ने दस्तखत किया और अमरीका ने भारत को ‘प्रमुख रक्षा भागीदार’ घोषित किया। 2020 तक अमरीका देश को 20 अरब डॉलर से ज्यादा हथियार और सेना के काम आने वाले दूसरे साजो सामान बेचने लगा। अब रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह को पूरी उम्मीद है कि यह अगले कुछ वर्षों में 100 अरब डॉलर पार कर जाएगा। ट्रंप के बाद बाइडेन ने भी इस बावत सक्रियता दिखाई है, ‘कस्टॅमर इज किंग’ है की तर्ज पर प्रधानमंत्री मोदी की आवभगत की और मोदी सरकार ने कई रक्षा समझौते किए फलस्वरूप आज कई बड़े सौदे पाइपलाइन में हैं। इसको देखते हुए रक्षामंत्री की इस प्रत्याशा पर शक की गुंजाइश नहीं लेकिन इस धारणा को भी बल मिलता है कि देश रूसी हथियार लॉबी से बचकर अमरीकी हथियार लॉबी के हाथों में चला गया लगता है। पहले भारत अपने 65 प्रतिशत हथियारों, पुर्जों के लिए रूस पर निर्भर था, अब यह निर्भरता 45 प्रतिशत है। अभी अमरीका पर निर्भरता में 15 प्रतिशत का इजाफा हुआ है। राजनाथ की उम्मीद इसे जल्द ही 30 प्रतिशत पर लायेगी। नि:संदेह यह गति अमरीकी हिस्सेदारी को 50 प्रतिशत से पार पहुंचा सकती है।
रक्षा संबंधों में अमरीका के अटलांटिक साझेदारों जैसा विशेषाधिकार भारत को प्राप्त हुआ, यह ऑस्ट्रेलिया अथवा कनाडा के पास भी नहीं है। रक्षा संबंधी मामलों में किसी देश पर अति निर्भरता निश्चित रूप से भारत की स्वायत्तता को कमजोर करती है। यूक्रेन में फंसे पुतिन के रूस पर निर्भरता गलत है तो पश्चिम एशिया में निर्णायक प्रभाव से वंचित होते उस अमरीका पर जो अब एक ध्रुवीय महाशक्ति नहीं है और जब भारत को ज़रूरत थी, तो कई अवसरों पर अमरीका पीछे हट गया था। आज सामरिक सुरक्षा खतरे के रूप में चीन ने पाकिस्तान की जगह ले ली है। इन परिस्थितियों में अमरीकी सुरक्षा प्रतिष्ठान ने चीन की बढ़ती ताकत के खिलाफ एक रक्षा साझीदार के रूप में दिखता है साथ ही उसकी रणनीतिक राजनीतिक साझीदार की भूमिका देश के लिये महत्वपूर्ण है।  
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