जी-20 सम्मेलन : वैश्विक समस्याओं का समाधान ढूंढा जाना ज़रूरी

जी-20 विकसित व उभरती हुई 20 अर्थव्यवस्थाओं का प्रभावी समूह है, जिसके नेता 9-10 सितम्बर, 2023 को भारत की अध्यक्षता में नई दिल्ली में मिलेंगे। हालांकि इस सम्मेलन में रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग मौजूद नहीं रहेंगे, लेकिन उनकी अनुपस्थिति का भारत से कोई संबंध नहीं है और बकौल भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर ‘हर कोई अत्यधिक गंभीरता से आ रहा है।’ चीन का प्रतिनिधित्व उसके प्रीमियर ली कियांग करेंगे और पुतिन की जगह रूस के विदेश मंत्री सर्गेय लवरोव आयेंगे। सम्मेलन में वैश्विक आर्थिक मुद्दों पर विचार-विमर्श किया जायेगा, ग्लोबल ग्रोथ को पटरी पर लाने के लिए योजना तैयार की जायेगी।
गौरतलब है कि इस समूह का गठन 1999 में एशियाई वित्तीय संकट के बाद किया गया था। यह वित्त मंत्रियों और केंद्रीय बैंक गवर्नरों के फोरम के रूप में आरंभ हुआ ताकि वैश्विक आर्थिक मुद्दों पर चर्चा व समन्वय किया जा सके। वैश्विक वित्तीय संकट के बाद 2007 में इसका स्तर बढ़ाकर सरकारों के प्रमुखों का कर दिया गया और 2009 में यह ‘अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक सहयोग के लिए प्रमुख मंच’ बन गया। जी-20 ने मुख्यत: मैक्रोइकनोमिक मुद्दों पर फोकस किया है, लेकिन अब इसके एजेंडे का विस्तार करते हुए इसमें व्यापार, सस्टेनेबल डिवेल्पमेंट, स्वास्थ्य, कृषि, ऊर्जा, पर्यावरण, जलवायु परिवर्तनऔर भ्रष्टाचार के विरुद्ध जंग को भी शामिल कर लिया गया है। जी-20 में 19 देश और यूरोपियन यूनियन हैं। इन देशों के पास ग्लोबल जीडीपी का 85 प्रतिशत तथा विश्व व्यापार का 75 प्रतिशत से अधिक हिस्सा है। इनमें वैश्विक जनसंख्या के लगभग दो-तिहाई लोग रहते हैं। रोटेटिंग आधार पर समूह के प्रत्येक सदस्य को एक वर्ष के लिए अध्यक्षता मिलती है। भारत की अध्यक्षता 1 दिसम्बर, 2022 को आरंभ हुई थी और नवम्बर 2023 में समाप्त हो जाएगी।
अगर गौर से देखा जाये तो किसी भी अन्य सरकारी कार्यक्रम की तुलना में जी-20 वर्ष ने लीक से हटकर भारतीय पर्यटन को प्रोत्साहित किया है। एस जयशंकर के शब्दों में- ‘जी-20 अध्यक्षता हमारे लिए इवेंट नहीं बल्कि राष्ट्रीय जश्न रही।’ ‘इनक्रेडिबल इंडिया 2.0’ अभियान के अतिरिक्त जी-20 सम्मेलन भू-राजनीति के लिए अति महत्वपूर्ण होगा। रूस-यूक्रेन युद्ध से ही नहीं बल्कि अन्य कारणों से भी संसार में दरारें पड़ रही हैं। हालांकि अंतर्राष्ट्रीय डिप्लोमेसी में टाइटरोप वाकिंग का भारत का लम्बा इतिहास है, लेकिन ग्लोबल जियोपोलिटिकल व जियो-इकनोमिक फाल्ट लाइन्स के क्रॉसरोड पर खड़े होने के कारण उसके लिए यह साल अधिक चुनौतीपूर्ण रहा है। भारत क्वाड का सदस्य है, लेकिन उसने रूसी तेल खरीदना जारी रखा है। चीन से उसका सैन्य गतिरोध है, लेकिन वह ब्रिक्स व एससीओ का हिस्सा है। ज़ाहिर है कि भारत के इस अंदाज़ का असर उसके अपने विकास और संसार में उसके स्थान पर पड़ेगा। भारत की जी-20 वरीयताएं उसकी राष्ट्रीय विकास आवश्यकताओं में प्रतिविम्बित हुई हैं- डिजिटल पब्लिक इन्फ्रास्ट्रक्चर के ज़रिये सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन, सस्टेनेबल डिवेल्पमेंट गोल्स, क्लाइमेट फाइनेंस आदि।
जी-20 सम्मेलन की सफलता सुनिश्चित करने हेतु भारत को अपना कूटनीतिक संतुलन प्रयास जारी रखना होगा, विशेषकर इसलिए कि अभी तक जितनी भी मिनिस्टरियल्स हुई हैं, उनमें यूक्रेन मुद्दे के कारण सर्वसम्मति नहीं बन पायी है, बावजूद इसके कि प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी जी-20 सम्मेलन में सर्वसम्मति पर बल देते आये हैं। दोनों अमरीका और चीन-रूस की जोड़ी अपने-अपने घोषित दृष्टिकोणों पर ज़िद करे बैठे हैं। इन दोनों कैम्पों में पिछले साल बाली जी-20 सम्मेलन में भी मतभेद बना हुआ था। तब भारत ने बाली घोषणा को ड्राफ्ट करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी, जिसमें सदस्य देशों द्वारा यूक्रेन युद्ध की निंदा भी थी और कुछ देशों द्वारा युद्ध का अलग मूल्यांकन भी था। लेकिन इस बार दिल्ली घोषणा में यूक्रेन पैराग्राफ  को ड्राफ्ट करना अधिक चुनौतीपूर्ण हो गया है क्योंकि अमरीका और चीन-रूस कैम्पों में मतभेद की खाई ज्यादा चौड़ी हो गई है। बीजिंग-मास्को की रणनीतिक जोड़ी अधिक मज़बूत हो गई है और चीन के विरुद्ध व्यापार, टैक्नोलॉजी व भू-राजनीतिक मुद्दों की दृष्टि से वाशिंगटन के कठोर नज़रिए को अपनाने के लिए द्विदलीय समर्थन है। मसलन, अमरीका ने स्पष्ट किया है कि वह चीन को सोफिस्टिकेटिड चिप्स नहीं बेचेगा, जो उसके अनुमान के अनुसार चीनी सेना प्रयोग कर सकती है।
‘चीन के प्रति कठोर’ होने का यह अमरीकी नज़रिया रूस पर दबाव डालने के लिए है कि वह यूक्रेन में अपनी सैन्य कार्यवाही को रोके। इससे भारत के लिए दुविधा उत्पन्न हो गई है। नई दिल्ली को वाशिंगटन का सहयोग चाहिए ताकि एशिया में बीजिंग की हरकतों को नियंत्रित किया जा सके, लेकिन अपने सशस्त्र बलों के लिए वह रूसी सैन्य हार्डवेयर पर भी निर्भर है। वर्तमान भू-राजनीतिक सच्चाई यह है कि किसी भी भारत-रूस-चीन त्रिकोण में भारत हमेशा तीसरा ही रहेगा, इसलिए नई दिल्ली को अपनी सप्लाई चेन्स (दोनों सैन्य व रणनीतिक उत्पाद जैसे एपीआई व बैटरीज) में विविधता लानी होगी ताकि रूस व चीन पर निर्भरता कम हो। भारत अपनी जी-20 अध्यक्षता में दो बड़ी वैश्विक चुनौतियों का समाधान चाहता है। गरीब देशों के लिए ऋण राहत और क्रिप्टो एसेट्स के लिए ग्लोबल रेगुलेटरी फ्रेमवर्क डिज़ाइन किया जाये।
ऋण राहत अधिक ज़रूरी है क्योंकि इससे अनेक देशों की वित्तीय, सामाजिक व राजनीतिक स्थिरता प्रभावित होती है। जी-20 इस समस्या का समाधान निकालने की स्थिति में है क्योंकि यह सभी महत्वपूर्ण स्टेकहोल्डर्स का प्रतिनिधित्व करता है। गरीब देशों के समक्ष ऋण संकट पहली बार नहीं है, लेकिन पहली बार उनके कज़र्दाता एक साथ भू-राजनीतिक प्रतिद्वंदिता से जूझ रहे हैं। ऐसे में जी-20 को हस्तक्षेप करने की ज़रूरत है, विशेषकर इसलिए भी ताकि यह धारणा गलत साबित हो जाये कि यह ऐसे सदस्यों का जमावड़ा है जो अकेले कुछ नहीं कर सकते और मिलकर तय करते हैं कि कुछ नहीं किया जा सकता। कोविड महामारी के दौरान जी-20 ने 73 देशों के ऋण का कुछ उपचार अवश्य किया था, लेकिन अब इस समस्या के स्थायी समाधान के लिए फ्रेमवर्क की आवश्यकता है। क्रिप्टो एसेट्स पर आईएमएफ व फाइनेंशियल स्टेब्लिटी बोर्ड एक रोडमैप देने जा रहा है, जिस पर जी-20 को सहयोग करना चाहिए ताकि मनी लांडरिंग टेरर फाइनेंस पर विराम लगाया जा सके । नई दिल्ली सम्मेलन की सफलता के लिए इन दोनों चुनौतियों का समाधान अति आवश्यक है।
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