गलती का एहसास है तो स्वयं से भी माफी मांगें

जीवन में अक्सर ऐसे पल आते जाते रहते हैं जब हमसे जाने अनजाने कुछ ऐसा हो जाता है जिससे दूसरे की हानि होती है, चोट पहुंचती है और कभी कभी उसके परिणाम बहुत घातक होते हैं। यदि जानबूझ कर किसी का अहित किया तो यह गंभीर अपराध की श्रेणी में आता है लेकिन अनजाने में और बिना किसी उदेश्य के अचानक हो गया तो इसका एहसास पीछा नहीं छोड़ता। अपराध बोध तो जानते बूझते किए काम का भी होता है और उसका क्या दण्ड मिल सकता है, इसकी भी जानकारी होती है और अपने बचाव के लिए दलील और वकील भी तैयार कर लिए जाते है। जो पीड़ित पक्ष है वह भी न्याय के द्वार खटखटाता है। यह ऐसी स्थिति है जिसमें कुछ निश्चित नहीं है कि क्या परिणाम होगा, कब होगा और न्याय मिलेगा या नहीं, कुछ भी हो सकता है। परन्तु अपराध किया है, इसका एहसास हमेशा रहता है। कानून सज़ा दे या न दे लेकिन अपने आप से क्षमा मांगनी ज़रूरी है, तब ही मन शांत हो पाता है।
इसके विपरीत उस व्यक्ति की मानसिक स्थिति बिलकुल अलग होती है जिससे कुछ ऐसा अनजाने में हो गया है जिसे वह अपराध समझता है। जैसे कि बचपन या युवावस्था में सही या गलत संगत में पड़कर कुछ कर बैठना या ऐसा करना जो परिवार या समाज की दृष्टि में तो अपराध हो लेकिन वह उसे ठीक समझता हो। इसमें सामान्य से लेकर यौन व्यवहार तक आता है। वह अपनी गलती की सज़ा भी भुगतने के लिए तैयार रहता है। उसे चैन नहीं मिलता। वह हर समय कुंठा से ग्रस्त रहता है कि उससे कसूर तो हुआ है, चाहे किसी ने उसे यह करते हुए देखा हो या न देखा हो, उस पर किसी ने आरोप लगाया हो न लगाया हो, अपनी सोच में तो वह अपराधी बन ही जाता है। हो सकता है कि उसके किए कृत्य का किसी को पता न हो और जब कोई साक्ष्य या सबूत ही नहीं तो उस पर कोई दोष भी नहीं लगा सकता। अब यह उस व्यक्ति पर होता है कि उससे जो भूल हुई है, उसे सुधार ले और आगे कभी भूल न होने देने के प्रति होशियार रहे। जिसके साथ उसने यह किया, उसे जब यह ज्ञान ही नहीं कि किसने किया तो वह किस को दोष दे? पीड़ित के पास इसके अतिरिक्त कोई विकल्प ही नहीं होता कि वह अपने साथ हुए या किये गए अन्याय का प्रतिकार नियति या ईश्वर पर छोड़ दे।
अपराध बोध से मुक्ति
यह वास्तविकता है कि अपराध का एहसास जीवन भर रहता है चाहे उसका दण्ड मिले या न मिले। बहुत से लोगों से कोई त्रुटि हो जाती है तो वह इस हीन भावना से ग्रस्त हो जाते हैं कि वे कुछ ठीक कर ही नहीं सकते। उनसे जो होगा, गलत ही होगा। इसके लिए वह अपने भाग्य को ज़िम्मेदार मान लेते हैं कि कुछ भी सही न कर पाना उनकी भाग्य रेखा में लिखा है। वे एक तरह के अवसाद, निराशा या तनाव के शिकार हो जाते हैं। कई बार तो ऐसे लोगों को मानसिक और मनोवैज्ञानिक विशेषज्ञों की सहायता लेने की ज़रूरत पड़ जाती है। सही उपचार न होने से अनेक शारीरिक दोष होने की संभावना हो जाती है, आम तौर से नींद न आने से इसकी शुरुआत होती है। कई बार तो बल्कि अधिकतर मामलों में यही पाया जाता है कि वे केवल किसी अपराध की कल्पना कर लेते हैं कि अवश्य ही उनसे यह गलती हुई है जबकि असल में ऐसा कुछ नहीं होता। ऐसे व्यक्ति की हालत तब और खराब हो जाती है जब घर परिवार या रिश्तेदारों के बीच वे अपने काल्पनिक अपराध बोध के कारण तानों और अवहेलना के शिकार होते हैं। अक्सर ऐसे लोग एकांत में रहना पसंद करने लगते हैं और कई मामलों में बिना बताये घर से दूर चले जाते हैं और कभी लौटकर नहीं आते।
असल में होता यह है कि किसी की कही कोई बात, अपने साथ या परिवार में हुई कोई घटना हमेशा के लिए दिमाग में चिपक जाती है, कितना भी भूलने की कोशिश करो, वह स्मृति से हटती ही नहीं, जितना सोचो उतना ही उसका आकार बढ़ता जाता है, कितना भी दिल और दिमाग से बाहर रखने की कोशिश करो, वह उतना ही हावी होती जाती है। अनेक बार सही और गलत में भेद करना कठिन हो जाता है। एक भ्रम जैसी स्थिति बन जाती है और यह निर्णय करना दुष्कर हो जाता है कि क्या सही है और क्या नहीं, इसी पशोपेश में पड़कर व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का ही निरादर करने लगता है, उसे अपने आप से ही मानो दुश्मनी हो जाती है। यहां तक कि अपने को चोट पहुंचाने लगता है। लगता है कि वह अपना ही शत्रु है, स्वयं को नष्ट करने तक के बारे में सोचने लगता है। इस भावना के बलवती होने से उसमें आत्मघाती प्रवृत्ति पनपने लगती है और अक्सर ऐसा होता है कि उसकी सहनशक्ति जवाब दे जाती है और चिड़चिड़ेपन से लेकर अपनी जान स्वयं लेने तक पर उतारू हो जाता है। उसे यह समझ ही नहीं आता कि उससे क्या गलती हुई है, मन में केवल यह बस जाता है कि उससे कुछ तो गलत हुआ है, अपराध हुआ है और उसे सज़ा मिलनी ही चाहिए। कोई दूसरा उससे इस बारे में बात ही नहीं करता क्योंकि वास्तव में कुछ हुआ ही नहीं, फिर भी वह अपने को कुसूरवार मानकर अपने को स्वयं सजा देने लगता है। 
अपने साथ अत्याचार करने में उसे सुख मिलने लगता है जिसकी परिणति अक्सर आत्महत्या में होती है।
गंभीर स्थिति से बाहर निकलना
अपराध बोध या कसूर का एहसास है तो उससे उबरने या मुक्त होने का एक ही उपाय है और वह यह कि व्यक्ति उससे नहीं जिसके साथ उसने गलत हरकत की है, बल्कि स्वयं अपने आप से यानी खुद से क्षमा याचना करे । क्षमाप्रार्थी भी स्वयम् और क्षमा भी अपने को करना है, तब ही मानसिक कष्ट से मुक्ति मिल सकती है। यह सोच कर अपने से क्षमा मांगनी होगी कि मैं चाहे माफी के लायक नहीं भी हूँ परन्तु अपने को क्षमादान देता हूँ।
बहुत से लोग क्या अधिकतर व्यक्ति अपने अपराधों की माफी के लिए धार्मिक स्थलों में जाकर याचना करते हैं या जिसके प्रति गलत किया है, उससे माफ  करने के लिए कहते हैं। यदि मन में ईश्वर या पीड़ित के लिए कोई पीड़ा ही नहीं है तो यह क्षमा याचना केवल दिखावटी है। व्यक्ति वहां से हटते ही भूल जाता है कि उसने कोई गलती की है। 
यदि स्वयं को अपराध के एहसास से मुक्त रखना है, अपने को दूसरे क्या सोचते हैं, इस सोच से मुक्त रखना है तो एक ही उपाय है कि शीशे के सामने खड़े होकर अपनी छवि से यह कहें कि मैं क्षमाप्रार्थी हूँ और स्वयं को क्षमादान का इच्छुक हूं। इसके साथ ही जिस व्यक्ति के साथ गलत किया है, उसकी तस्वीर की कल्पना करें कि आईने में वह मौजूद है। तब ही माफीनामा कुबूल होगा वरना यह ढोंग होगा। यह समझ में आ जाये कि गलती तो की है तो फिर दोबारा उसे दोहराने से बचा जा सकता है। क्षमा वाणी पर्व का यही पालन है।