नदी पानी के संबंध में पंजाब को न्याय कब मिलेगा ?

इस रंग बदलती दुनिया में,
इन्सान की नीयत ठीक नहीं।
कश्ती को संभालो मौजों में ,
तूफान की नीयत ठीक नहीं।
गीतकार हसरत जयपुरी के इस प्रसिद्ध गीत की ये पंक्तियां उस समम अपने-आप ही याद आ गईं जब कल यह समाचार सुना कि भारत के गृह मंत्री अमित शाह ने पंजाब के पानी के मामले में राज्यों को आपस में बातचीत के माध्यम से सुलझाने के लिए कहा है। इसका साफ अर्थ तो यही निकलता है कि केन्द्र सरकार यह मामला कानून तथा संविधान के अनुसार हल नहीं करना चाहती। नहीं तो चाहिए तो यह कि पानी के मामले पर शुरू से विचार किया जाए, पंजाब के साथ हुए अन्याय का हर्जाना दिलाया जाए या दिया जाए और आगे से पंजाब के अधिकार बहाल किये जाएं। भाजपा सरकार जो मुस्लिम शासकों के कथित अन्यायों को समाप्त करने के लिए किसी भी सीमा तक जाने से नहीं झिझकती, हालांकि ये तीन-चार सदियां पुराने हैं और मुस्लिम शासकों के बाद 200 वर्ष अंग्रेज़ों का शासन भी रहा। वही भाजपा सरकार पंजाब के साथ स्वतंत्रता के बाद शुरू हुए अन्यायों, जिन्हें अभी 70 वर्ष ही हुए हैं, को दूर करवाने के लिए क्यों कुछ नहीं करती, अपितु कई अन्य नये अन्याय स्वयं भी कर रही है। 
भारत में पानी के मामले अंतर्राष्ट्रीय रूप में प्रभावित रिपेरियन कानून के अनुसार ही हल होते हैं। पहले समझ लें कि रिपेरियन कानून है क्या। रिपेरियन शब्द लातीनी भाषा के शब्द ‘रिपा’ से बना है। ‘रिपा’ का अर्थ नदी या दरिया का किनारा होता है। अत: रिपेरियन इस किनारे पर रहने वाला व्यक्ति या राज्य हो गया जो प्रकृतिक रूप में इस नदी या दरिया के पानी का पहला हकदार बन जाता है। यह रिपेरियन सिद्धांत विश्व में प्राचीन रोमन कानून में भी माना जाता था। आधुनिक भारत में 1935 के ‘भारत सरकार एक्ट’ की 7वीं अनुसूचि जो प्रादेशिक अधिकारों की सूची थी, में यह धारा 17वीं धारा के तौर पर दर्ज हुई, कि पानी राज्यों का मामला है। बाद में स्वतंत्र भारत के संविधान की 7वीं अनुसुची में भी यह धारा 17वीं धारा के रूप में दर्ज हुई कि पानी राज्यों का मामला है। 
सेवामुक्त लेफ्टिनेंट जनरल हरवंत सिंह के अनुसार संविधान का प्रारूप तैयार करने वाली संयुक्त समिति ने देखा था कि इसका प्रभाव यह है कि प्रत्येक राज्य को राज्य के भीतर पानी की आपूर्ति के पूरे अधिकार दिये जाएं। यहां तक कि भारत का संविधान नदियों के पानी के मुद्दे को अदालत के दायरे से भी बाहर रखता है। इस विषय पर बड़ी अथारिटी माने जाते ओपन-हाइम का कहना है कि ‘सिद्धांत तथा अभ्यास इस नियम पर सहमत हैं कि नदियां रिपेरियन राज्यों के क्षेत्र का हिस्सा हैं। पानी की बांट बारे विवाद सिर्फ रिपेरियन राज्यों के बीच हो सकता है। किसी रिपेरियन तथा गैर-रिपेरियन राज्य के बीच नहीं (जैसे कि पंजाब के मामले में राजस्थान, दिल्ली तथा हरियाणा के साथ हो रहा है) रावी, ब्यास तथा सतलुज के मामले में ये तीनों ही राज्य गैर-रिपेरियन राज्य हैं। 
उल्लेखनीय है कि अंतर्राष्ट्रीय लॉ एसेसिएशन द्वारा 1966 में हेलसिंकी में की गई 52वीं कान्फ्रैंस में अंतर्राष्ट्रीय पानी के विभाजन संबंधी बने ‘हेलसिंकी नियम’ भी रिपेरियन सिद्धांत को और मज़बूत करते हैं, परन्तु समय की सितम-ज़ऱीफी देखें कि इसी वर्ष जब पंजाबी सूबा बना तो पंजाब पुनर्गठन एक्ट में भारत सरकार ने 78, 79 तथा 80 की नईं धाराएं जोड़ कर पंजाब के संवैधानिक अधिकारों पर डाका मारा था।  हरवंत सिंह लिखते हैं कि पंजाब में कांग्रेस सरकार सुप्रीम कोर्ट में से पंजाब पुनर्गठन एक्ट की धारा 78,79 तथा 80 को रद्द करने हेतु किये गये केस को वापस करवाने के लिए ही बनवाई गई थी। पंजाब के एक किसान संगठन ने ये धाराएं समाप्त करवाने के लिए पंजाब तथा हरियाणा हाईकोर्ट में एक रिट दायर की थी। 
प्रारम्भिक बहस के बाद मुख्य न्यायाधीश एस.एस. संधावाविया ने अपने नेतृत्व में पूर्ण पीठ बनाई और सप्ताह के अंतिम कार्य दिवस को अगली सुनवाई के लिए सोमवार 25 नवम्बर, 1983 की तिथि निश्चित कर दी। परन्तु इन दो दिनों में ही दो बातें घटित हो गईं। एक तो मुख्य न्यायाधीश संधावलिया का तबादला पटना हाईकोर्ट का हो गया, और दूसरे, भारत के अटार्नी जनरल ने सुप्रीम कोर्ट में मौखिक याचिका दी कि यह केस महत्वपूर्ण है, इसे सुप्रीम कोर्ट में तबदील किया जाए जो स्वीकार भी हो गई, परन्तु केस इतना ‘महत्वपूर्ण’ था कि आज तक उसकी सुनवाई ही नहीं हुई। इससे स्पष्ट दिखाई देता है कि पूर्व की केन्द्र सरकारों का पंजाब के पानी के प्रति क्या रवैया था और वर्तमान केन्द्र सरकार भी पंजाब को इन्साफ देने में कोई दिलचस्पी नहीं रखती। नक्श लायलपुरी के शब्दों में :
सींचा था जिस को ़खून-ए-तमन्ना से रात दिन,
गुलशन में उस बहार के ह़कदार हम नहीं।
राजस्थान, दिल्ली तो क्या, हरियाणा भी हकदार नहीं 
उक्त स्थिति के दृष्टिगत स्पष्ट है कि आधुनिक भारत में 1935 के अंग्रेज़ों के समय के कानून तथा स्वतंत्रता के बाद भारतीय संविधान में भी नदियों के पानी पर सिर्फ रिपेरियन राज्यों का अधिकार है। हैरानी की बात है कि यह अधिकार आंध्र प्रदेश-तमिलनाडु के विवाद में माना जाता है। नर्मदा के मामले में माना जाता है, परन्तु पंजाब के पानी पर लागू नहीं किया जाता। रावी, ब्यास तथा सतलुज नदियों में हिमाचल अपर रिपेरियन राज्य है। वह अपने हिस्से का पानी इस्तेमाल कर सकता है, परन्तु भारत की सुप्रीम कोर्ट तथा कई हाईकोर्ट्स के भिन्न-भिन्न फैसले यह स्पष्ट करते हैं कि अपर रिपेरियन राज्य पानी के बहाव में से निचले रिपेरियन राज्यों के अधिकार को नुकसान नहीं पहुंचा सकता। 
हरियाणा बारे भ्रम है कि वह विभाजन से पहले पंजाब का हिस्सा था, इसलिए वह इन तीनों नदियों का रिपेरियन राज्य है, और पानी का हकदार है। नहीं, अब वह सिर्फ यमुना तथा घग्गर का रिपेरियन राज्य है, सतलुज, रावी एवं ब्यास का नहीं। इस बात के ऐतिहासिक सबूत हैं। 1873 में पटियाला, नाभा तथा जींद रियासतें पंजाब के भीतरी क्षेत्र में तो थीं, परन्तु स्वतंत्र राज्य थीं। इसलिए पंजाब की भांति रिपेरियन राज्य न होने के कारण सरहिंद नहर से लिए जाते पानी के बदले पंजाब को पानी का मूल्य देना पड़ता था। 26 अक्तूबर, 1927 को तैयार हुई गंग नहर जो हुसैनीवाला से बीकानेर के लिए पानी लेकर गई, के लिए पंजाब को पानी की रायल्टी या कीमत मिलती रही। स्वतंत्र भारत में 29 जनवरी, 1955 के जिस समझौते में राजस्थान को 80 लाख फुट एकड़ पानी राजस्थान को दिया गया, उसमें साफ लिखा गया है कि (इस) पानी की कीमत बारे फैसला एक अलग बैठक बुला कर किया जाएगा। यह अलग बात है कि आज तक वह बैठक बुलाई ही नहीं गई। 
वैसे भी कोई समझौता उस समय तक समझौता नहीं माना जा सकता जब तक कोई चीज़ लेने के बदले कोई चीज़ या कीमत नहीं दी जाती। राजस्थान, दिल्ली तथा हरियाणा पंजाब को पानी के बदले क्या दे रहे हैं? यह सिर्फ और सिर्फ अन्याय है। 
यह ठीक है कि पंजाब की पहली सभी सरकारें चाहे वे कांग्रेसी सरकारें थीं या संयुक्त या अकाली-भाजाप सरकारें, वे इस अन्याय के विरुद्ध लड़ने में विफल रही हैं। शायद उनकी नीयत ही नहीं थी। हालांकि इस बीच पंजाब विधानसभा में कैप्टन अमरेन्द्र सिंह मुख्यमंत्री पंजाब के समय तथा प्रकाश सिंह बादल के मुख्यमंत्री होते समय दो बार विधानसभा पंजाब सरकार को निर्देश दे चुकी है कि इन राज्यों से पानी की रायल्टी लेने के लिए कार्रवाई की जाए, परन्तु ऐसी कोई कोशिश भी नहीं हुई। यह निर्देश मौजूदा भगवंत मान सरकार पर भी लागू है। देखने वाली बात यह है कि वह कितना हौसला दिखाते हैं। वैसे मौखिक मांग उठाने से पंजाब का कुछ नहीं संवरेगा। 
नहीं तो यह स्पष्ट है कि पंजाब ने देर-सवेर रेगिस्तान तो बनना ही है, क्योंकि प्रत्येक वर्ष हम औसतन 86 सेंटीमीटर भू-जल कम कर रहे हैं अर्थात प्रत्येक वर्ष तीन फुट पानी का स्तर नीचे जा रहा है। हमारे पास न तो धान का फसली चक्कर बदलने की हिम्मत है, न ही उद्योगों में पानी का उचित इस्तेमाल करने की, न ही पानी में मिलते ज़हर को रोकने की। परिणामस्वरूप बिना आर.ओ. के स्वच्छ किया पानी पीने के योग्य नहीं रहा और आर.ओ. जितना पानी पीने के योग्य बनाता है, उससे चार गुणा बर्बाद करता है। पंजाब को बचाने के लिए सिर्फ एक ही रास्ता है कि नदियों का पानी पहले पंजाब की आवश्यकताओं के लिए इस्तेमाल किया जाए। यदि बचे तो बाहरी राज्यों को रायल्टी लेकर दिया जाए। 
हाल ़खूं में डूबा है कल न जाने क्या होगा,
अब यह ़ख़ौफ-ए-मुस्तकबिल ज़ेहन ज़ेहन तारी है। 
 (मंजर भोपाली)
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