सिख एजुकेशनल सोसायटी का ताज़ा प्रयास

1931 में लाहौर में स्थापित हुई सिख एजुकेशनल सोसायटी शिक्षा के साथ-साथ सिखों को दरपेश मामलों को समझने-समझाने में भी अहम योगदान डाल रही है। गत दिनों चंडीगढ़ के 26 सैक्टर में स्थित श्री गुरु गोबिन्द सिंह कालेज में प्रसिद्ध सिख चिन्तक डा. बलकार सिंह की दो पुस्तकें  च्ञ्जद्धद्ग ्नद्मड्डद्य ञ्जड्डद्मद्धह्ल स्ड्डद्धद्बड्ढ-ञ्जद्धद्ग स्श्चद्बह्म्द्बह्ल ड्डठ्ठस्र स्ह्लह्म्ड्डह्लद्गद्द4ज्, च्क्कद्गह्म्ह्यश्चद्गष्ह्लद्ब1द्ग ड्डठ्ठस्र क्कशह्यद्बह्लद्बशठ्ठ द्बठ्ठ स्द्बद्मद्धद्बह्यद्वज् रिलीज़ करने के लिए करवाए गए समारोह में विद्वानों ने कई मामलों पर गम्भीर विचार-विमर्श किया। इस विचार-विमर्श का केन्द्रीय नुक्ता श्री अकाल तख्त साहिब के सृजन के मूल संकल्प, सिद्धांत, इतिहास के साथ-साथ इसके जत्थेदार साहिब की नियुक्ति, कामकाज तथा सेवा-मुक्ति से जुड़े पहलू थे। 
समारोह की खूबसूरती यह थी कि इस अवसर पर विचार-विमर्श में भाग लेने वाले सभी वक्ता समय के किसी न किसी दौर में श्री अकाल तख्त साहिब से जुड़े रहे थे। वे इस महान संस्था के संकल्प तथा इतिहास से भी अवगत थे, इसकी समूचे पंथ के प्रति ज़िम्मेदारी, चुनौतियों तथा पड़ने वाले दबाव से भी अवगत थे, जैसे कि समारोह के विशेष मेहमान प्रो. मनजीत सिंह तख्त श्री केशगढ़ साहिब के साथ-साथ श्री अकाल तख्त साहिब के जत्थेदार के पद पर भी सुशोभित रहे हैं। पंजाब विधानसभा के पूर्व स्पीकर रविइन्द्र सिंह, जो इस समारोह के मुख्यातिथि थे, लम्बा समय अकाली राजनीति में सक्रिय रहे होने के कारण काफी घटनाओं के चश्मदीद गवाह हैं। समारोह की अध्यक्षता करने वाले सेवामुक्त आई.ए.एस. अधिकारी गुरदेव सिंह बराड़ जिस समय अमृतसर जिले के ज़िलाधीश थे, उस समय श्री अकाल तख्त साहिब से धर्म युद्ध मोर्चा लगा हुआ था। सिख एजुकेशनल सोसायटी के सचिव जसमेर सिंह बाला भी बब्बर अकाली दल के सक्रिय नेता रहे हैं और श्री अकाल तख्त साहिब से 1994 में जारी ‘अमृतसर ऐलाननामा’ पर हस्ताक्षर करने वाले अकाली नेताओं में एक थे। समारोह में विचार-विमर्श करने वालों में से डा. बलकार सिंह तथा डा. केहर सिंह, जो इस समय भी श्री अकाल तख्त साहिब जी की सलाहकार कमेटी के सदस्य हैं, सिख राजनीति से निकट से जुड़े रहे हैं। 
डा. केहर सिंह ने इस विचार-विमर्श में खुल कर कहा कि जब तक शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी का मौजूदा प्रबंध पंजाब गुरुद्वारा एक्ट-1925 के तहत वोटों के माध्यम से होता रहेगा, उस समय तक श्री अकाल तख्त साहिब का कामकाज स्वतंत्र तथा स्वायत्त ढंग से चलाया ही नहीं जा सकता। डा. बलकार सिंह ने अपनी इन पुस्तकों की रचना की पृष्ठभूमि बताते हुए कहा कि सिख सिद्धांत (गुरुवाणी) तथा सिख संस्थाएं सदा ही उन्हें कुछ न कुछ लिखने के लिए उकसाते रहे हैं। उन्होंने कहा कि श्री अकाल तख्त साहिब के सृजन का संकल्प तथा कार्य क्षेत्र श्री दरबार साहिब के समक्ष रख कर ही समझा जा सकता है। 
सिख एजुकेशनल सोसायटी 1937 से ही ऐसे कार्यों में अहम योगदान डाल रही है। इसने 1938 में अखंड पंजाब की राजधानी लाहौर में सिख नैशनल कालेज की स्थापना की। देश के विभाजन के बाद यह कालेज कादियां (गुरदासपुर) में तुरंत शुरू किया गया तथा सोसायटी का मुख्य कार्यालय जालन्धर स्थापित होने के बाद इस कालेज का कारज बंगा से चालू रखा तथा अब पूर्वी पंजाब की राजधानी चंडीगढ़ से सोसायटी प्रबंध चला रही है जहां पिछले दिनों उक्त कार्यक्रम आयोजित किया गया। 
इस कार्यक्रम की खूबसूरती यह भी थी कि लुधियाना से प्रसिद्ध चिन्तक अमरजीत सिंह ग्रेवाल तथा नई दिल्ली से राष्ट्रीय साहित्य अकादमी के पंजाबी संयोजक डा. रवेल सिंह भी अपने-अपने विचार पेश करने के लिए ज़ोर-शोर से पहुंचे। अमरजीत सिंह गे्रवाल ने उत्तर-मानववादी चिन्तन विधि से सिख पहचान का पक्ष उभारा। उनका विचार था कि आज जिस मुक्ति के माडल की वर्तमान दुनिया को तलाश है, वह श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की वाणी में से ही मिलेगा। डा. रवेल सिंह ने कहा कि पंजाबी व्यक्ति को उत्तर-मानववादी चिन्तन विधि को समझने-समझाने के लिए पश्चिमी चिन्तकों के स्थान पर गुरु नानक की रचना से शिक्षा लेनी चाहिए।
रविइन्द्र सिंह के अनुसार सिखों के समक्ष इस समय सबसे बड़ी चुनौती अपनी नई पीढ़ी को सिखी से जोड़े रखने की है और इस कार्य में सिख महिलाएं सबसे बड़ी भूमिका निभा सकती हैं। उन्होंने कहा कि सिख संस्थाओं को अपने बच्चों को स्तरीय शिक्षा देने के लिए भी और अधिक ध्यान देना होगा। प्रो. मनजीत सिंह ने कहा कि उनके जत्थेदार होते हुए विश्व सिख सम्मेलन, विश्व सिख कौंसिल, विश्व सिख कल्याण फंड, खालसा मार्च तथा राजनीतिक निशाने के रूप में ‘अमृतसर ऐलाननामा’ जैसे नये संकल्प तय किये गए थे, जिनकी आज भी आवश्यकता है। अपने अध्यक्षीय भाषण में स. गुरदेव सिंह बराड़ ने अधिक ज़ोर सिख एजुकेशनल सोसायटी की स्थापना तथा उपलब्धियों पर दिया परन्तु उन्होंने यह बात ज़ोर देकर कही कि सिख संस्थाओं के काम-काज की महज आलोचना करने के स्थान पर हमें कोई वैकल्पिक माडल पेश करना चाहिए।  
यह बात तो समारोह के आरम्भ में कर्नल जसमेर सिंह बाला ने मेहमानों का स्वागत करते हुए ही स्पष्ट कर दी थी कि सिख एजुकेशनल सोसायटी शिक्षा, खेलों, साहित्यिक व सांस्कृतिक क्षेत्रों के साथ-साथ सिखों के धार्मिक व राजनीतिक मामलों पर विचार-विमर्श के लिए हमेशा मंच उपलब्ध करती आ रही है। मंच का संचालन मेरे विद्यार्थी रहे गुरदर्शन सिंह बाहीया ने किया, जो लोक सम्पर्क अधिकारी के रूप में सेवा निभाते हुए कई मुख्यमंत्रियों तथा मंत्रियों के साथ कार्य करते रहे हैं। सरकारी नौकरी में आने से पहले वह लम्बा समय जत्थेदार गुरचरण सिंह टौहरा के मीडिया सलाहकार भी रहे हैं।
चाहे मेरा स्वास्थ्य सभी समारोहों में शामिल होने की आज्ञा नहीं देता, परन्तु मेरे लिए इस समारोह का हासिल यह था कि सिख पंथ के ऐसे गम्भीर मामलों पर प्रकाश डालने वाले कई वक्ता मेरे मित्र प्यारे थे, जिन्हें मिलना अब मेरे लिए मुहाल हो गया है। प्रो. मनजीत सिंह तथा बलकार सिंह पंजाबी यूनिवर्सिटी, पटियाला में मेरी नियुक्ति के समय मेरे सम्पर्क में आए, जब गुरदर्शन बाहीया मेरा विद्यार्थी था। अमरजीत ग्रेवाल कृषि यूनिवर्सिटी लुधियाना की नौकरी के समय मेरे करीबी रहा है। 1984 से चंडीगढ़ रहते समय नई दिल्ली वाले साथियों से मिलने का सबब भी कभी-कभार बनता है, जिनमें से रवेल सिंह भी एक है। आशा है कि सिख एजुकेशनल सोसायटी के कर्ता-धर्ता फिर भी ऐसा अवसर प्रदान करते रहेंगे, जिससे कादीयां तथा बंगा ही याद नहीं आते, अपितु पाकिस्तान में रह गये लाहौर की यादें भी उभर आती हैं।