सर्वोच्च् न्यायालय की सख्ती

उत्तर भारत में वायु प्रदूषण को नियन्त्रित करने के सभी यत्न विफल रहने के कारण देश की उच्च अदालत सुप्रीम कोर्ट बेहद सख्त हुई दिखाई दी है। विगत दिवस उसने इस संबंध में पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश तथा राजस्थान की सरकारों को कड़ी फटकार लगाई है तथा उन्हें स्पष्ट रूप में कहा है कि ़फसलों के अवशेष को आग लगाने का सिलसिला हर हालत में बंद होना चाहिए। इसके लिए उपरोक्त संबंधित प्रदेशों के मुख्य सचिव तथा पुलिस के डी.जी.पी. सख्ती से काम करें तथा प्रत्येक थाने के एस.एच.ओ. को आग लगाये जाने के सिलसिले को रोकने के लिए मुख्य तौर पर ज़िम्मेदार बनाया जाये। सर्वोच्च न्यायालय ने यहां तक भी कहा है कि वे नहीं जानते कि इस संबंध में सरकारों ने क्या करना है तथा क्या नहीं, परन्तु आग लगाने का सिलसिला हर हालत में रुकना चाहिए। यह जन-साधारण की ज़िन्दगी का सवाल है। इस संबंध में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा आगामी कार्रवाई के लिए 10 नवम्बर की तिथि निर्धारित की गई है।
नि:संदेह विगत लगभग दो दशकों से वायु प्रदूषण उत्तर भारत में एक बड़ी समस्या बना हुआ है। वर्ष में दो बार किसानों द्वारा गेहूं के नाड़ तथा धान की पराली को अगली ़फसलों के लिए ज़मीन तैयार करने हेतु आग लगाई जाती है। इससे उत्तर भारत में एयर क्वालिटी इंडैक्स अभिप्राय वायु गुणवत्ता बहुत खराब हो जाती है। हवा में धुआं तथा धूल इस तरह भर जाते हैं कि लोगों को सांस लेने में भी मुश्किल होने लगती है। विशेष तौर पर बुजुर्गों तथा बच्चों के लिए यह स्थिति बड़ी असुखद होती है। एक बड़े क्षेत्र में चारों ओर धुआं फैल जाने से सड़कों पर वाहनों के चालकों की देख पाने की सामर्थ्य बहुत कम हो जाती है, जिससे दुर्घटनाओं में वृद्धि होती है। इसके अलावा ़फसलों के अवशेष को आग लगाये जाने से ग्रामीण क्षेत्रों में कई बार हवाएं चलने से लगाई गई आग नियन्त्रण से बाहर जाती है तथा लोगों के घर, झुग्गियां सड़कों के किनारे लगे वृक्ष तथा यहां तक कि कई बार तूड़ी के बने  कुप्प भी आग की चपेट में आ जाते हैं। सड़कों से गुज़रते आम लोग तथा यहां तक कि स्कूलों की बसें भी कई बार धुएं तथा आग की चपेट में आ जाती हैं। इस कारण हर वर्ष जान-माल के नुकसान संबंधी समाचार सामने आते हैं। कृषि विशेषज्ञ इस तरह से गेहूं तथा धान के अवशेषों को आग लगाये जाने से ज़मीन की उपजाऊ शक्ति के होते नुकसान संबंधी भी अवगत करवाते रहते हैं परन्तु इन स्थितियों में कोई अधिक सुधार नहीं हुआ।
इस संबंध में किसानों का पक्ष अक्सर यही रहता है कि वे विवश होकर आग लगाते हैं, क्योंकि उन्होंने अगली ़फसलों के लिए ज़मीन तैयार करनी होती है। खास तौर पर अक्तूबर-नवम्बर में जहां तेज़ी से धान की कटाई हो रही होती है, वहीं इसके साथ ही गेहूं की बुआई भी शुरू हो जाती है। दोनों ़फसलों में अंतर बहुत ही कम होता है। इस कारण तेज़ी से ज़मीन अगली ़फसल के लिए खाली करने हेतु किसान धान के नाड़ को आग लगा देते हैं। ऐसा नहीं है कि विगत अवधि में सरकारों ने इस संबंध में कोई यत्न नहीं किये या प्रदेश के प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड या देश के ग्रीन ट्रिब्यूनल तथा न्यायालयों ने सरकारों को उत्तरदायी ठहराने के यत्न नहीं किये, परन्तु ये सब यत्न विफल साबित हुए हैं तथा गेहूं के नाड़ तथा धान की पराली को आग लगाने का सिलसिला पहले की भांति ही जारी है।
इस संबंध में हमारा यह स्पष्ट विचार है कि ़फसलों के अवशेष को आग लगाने से रोकने के लिए किसानों को उचित टैक्नालोजी उपलब्ध करने की बेहद ज़रूरत है, जो किसानों की पहुंच में हो। यह इक्कीसवीं सदी का युग है तथा इसमें विज्ञान तथा टैक्नालोजी ने बहुत तरक्की की है। ज्यादातर ऐसी मशीनें विकसित हो चुकी हैं जिनका इस समस्या को नियंत्रित करने में उपयोग हो सकता है, परन्तु समस्या यह है कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी ज़मीन विभाजित होने के कारण देश भर में किसानों की कृषि इकाइयां बेहद छोटी हो गई हैं तथा किसानों को लाभदायक मूल्य उपलब्ध करने में सरकारों की विफलता के कारण वे ऋण के जाल में भी बुरी तरह फंस गये हैं। समूचे तौर पर किसानों की आर्थिक स्थिति बेहद दयनीय है। इस कारण वे महंगी मशीनें खरीद कर उनका उपयोग नहीं कर सकते। सरकारों द्वारा केन्द्र सरकार तथा प्रदेश सरकारों द्वारा सबसिडी पर कुछ इस तरह की मशीनें दी भी गई हैं परन्तु इससे भी समस्या पर अभी तक नियंत्रण नहीं पाया जा सका।
इस संबंध में हमारा एक सुझाव है कि देश भर में ग्रामीण क्षेत्रों में बनाई गई कृषि सहकारी सोसायटियों को मज़बूत करके प्रदेश सरकारें उन्हें ऐसे ट्रैक्टर तथा मशीनें मुफ्त उपबल्ध करायें, जिनसे गेहूं के नाड़ तथा धान की पराली का निपटारा किया जा सके। इससे गेहूं के नाड़ तथा धान की पराली को खेतों में बारीकी से कुतरा भी जा सकता है तथा उसकी गांठें बना कर उसे अन्य उद्देश्यों के लिए भी प्रयुक्त किया जा सकता है। कुछ स्थानों पर निजी क्षेत्र के बिजली प्लांटों तथा गत्ता फैक्टरियों ने बेलर मशीनों द्वारा पराली तथा अवशेषों की गांठें बना कर उन्हें एकत्रित करना शुरू भी किया है। इन यत्नों को और अधिक उत्साहित किया जा सकता है, परन्तु इन कोशिशों में सफलता तभी मिल सकती है यदि केन्द्र सरकार तथा प्रदेश सरकारें मिल कर इस संबंध में स्पष्ट तथा ठोस नीति तैयार करें तथा ऐसी बनाई गई नीति को पूरी इच्छा-शक्ति की अभिव्यक्ति करते हुए प्रभावी ढंग से लागू भी करें। इसमें किसानों को भी अपना बनता योगदान डालना चाहिए। किसानों को यह बात अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिए कि गेहूं के नाड़ तथा धान की पराली को खेतों में आग लगाना उनके तथा उनके अपने परिवारों के स्वास्थ्य के लिए भी उचित नहीं है। इससे ज़मीन की उपजाऊ शक्ति को भी नुकसान पहुंचता है। इसलिए उन्हें भी सरकारों द्वारा इस समस्या पर नियन्त्रण पाने के लिए किये जाने वाले यत्नों में बढ़-चढ़ कर  योगदान डालना चाहिए।