समाप्त होनी चाहिएं राज्यपालों की मनमानी शक्तियां

जिन तरीकों से भारतीय संघवाद और निर्वाचित राज्य विधानमंडलों की शक्तियों को कमज़ोर किया जा रहा है, उनमें से एक यह है कि राज्यपाल विधानमंडलों द्वारा पारित विधेयकों पर उनके संबंध में कोई निर्णय लिए बिना ही बैठे रहते हैं। संविधान के अनुसार राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों को कानून बनने के लिए राज्यपाल द्वारा सहमति देनी होती है। भारत के संविधान की धारा 200 के अनुसार राज्यपाल या तो विधायिका द्वारा पारित विधेयक पर अपनी सहमति दे सकते हैं या यदि यह धन विधेयक नहीं है तो सहमति को रोक सकते हैं या प्रस्तावित कानून को राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित कर सकते हैं। यदि वह सोचते हैं कि यह विधेयक उच्च न्यायालय की न्यायिक समीक्षा की शक्ति का हनन करता है या उसे खतरे में डालता है।
यदि राज्यपाल सहमति नहीं देना चाहते तो उन्हें विधेयक को ‘जितनी जल्दी हो सके’ एक संदेश के साथ वापस करना चाहिए जिसमें विधानसभा से विधेयक या किसी निर्दिष्ट प्रावधान या सुझाये गये संशोधनों पर पुनर्विचार करने का अनुरोध किया जाये। यदि विधानसभा विधेयक पर पुनर्विचार करती है और उसे पुन: पारित करती है तो राज्यपाल फिर से अपनी सहमति नहीं रोक सकते। इसका मतलब है राज्य के संवैधानिक प्रमुख को निर्वाचित विधायिका के सुविचारित निर्णय को रास्ता देना चाहिए।
 केरल में राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने राज्य विधानमंडल द्वारा पारित आठ विधेयकों को रोक दिया है, जिनमें से तीन दो साल से अधिक समय से लंबित हैं। तमिलनाडु में राज्यपाल आर.एन. रवि राज्य विधानमंडल द्वारा पारित 12 विधेयकों पर रोक लगाये हुए हैं। पंजाब में राज्यपाल बनवारी लाल पुरोहित ने सात विधेयकों को बिना किसी फैसले के लंबित रखा है। जिन विधेयकों को मंजूरी नहीं दी गई उनमें सार्वजनिक स्वास्थ्य, कुलपतियों की नियुक्ति की प्रक्रिया, उच्च शिक्षा, लोकायुक्त और सहकारी समितियां जैसे मुद्दे शामिल हैं। पंजाब राज्य सरकार ने राज्यपाल की निष्क्रियता को लेकर सर्वोच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया था और इसके बाद केरल और तमिलनाडु की सरकारों ने भी इसका अनुसरण किया है।
भारत का संविधान राज्य विधानसभा द्वारा पारित किसी भी कानून को वीटो करने के लिए राज्यपाल की किसी विवेकाधीन शक्ति का प्रावधान नहीं करता है। हालांकि अनुच्छेद 200 राज्यपाल के लिए कानून पर निर्णय लेने के लिए स्पष्ट रूप से कोई समय सीमा नहीं बताता है, ‘जितनी जल्दी हो सके’ शब्दों को छोड़कर परन्तु राज्यपाल ‘पॉकेट वीटो’ का प्रयोग करने के लिए अनिश्चित काल तक बिलों पर बैठे रहते हैं। साल की शुरुआत में तेलंगाना राज्य सरकार ने राज्यपाल द्वारा सहमति नहीं दिये जाने वाले दस विधेयकों पर सर्वोच्च न्यायालय में एक रिट याचिका दायर की थी। 23 अप्रैल को भारत के मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा की पीठ ने कहा था कि राज्यपाल को सहमति के लिए भेजे गये विधेयकों को ‘जितनी जल्दी हो सके’ वापस कर दिया जाना चाहिए और उन्हें दबाये नहीं रखा जाना चाहिए, जिससे राज्य विधान सभाओं को अनिश्चित काल तक इंतजार न करना पड़े।
6 नवम्बर को सर्वोच्च न्यायालय की तीन सदस्यीय पीठ का नेतृत्व कर रहे भारत के मुख्य न्यायाधीश डॉ. धनंजय यशवंत चंद्रचूड़ ने पंजाब राज्य सरकार की याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा कि राज्यपालों को सुप्रीम कोर्ट के समक्ष याचिका दायर होने तक के इंतजार के बाद ही कार्रवाई शुरू नहीं करनी चाहिए। उन्होंने आगे कहा कि राज्य के राज्यपालों को इस तथ्य से अनजान नहीं होना चाहिए कि वे जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि नहीं हैं। मुख्य न्यायाधीश पंजाब की याचिका के साथ-साथ केरल और तमिलनाडु राज्य सरकारों द्वारा दायर याचिकाओं पर 10 नवम्बर को सुनवाई करने पर भी सहमत हुए थे।
इन राज्यों के राज्यपालों द्वारा संविधान की धारा 200 के प्रावधानों के अनुसार राज्य विधानसभाओं द्वारा विधेयकों पर निर्णय लेने से इन्कार करना स्पष्ट रूप से असंवैधानिक है। संविधान किसी राज्यपाल को किसी विधेयक पर अनिश्चित काल तक बैठने का प्रावधान नहीं करता है और अनुच्छेद में ‘जितनी जल्दी हो सके’ वाक्यांश इस भावना को इंगित करता है कि कोई अनुचित देरी नहीं होनी चाहिए। दरअसल, जस्टिस रोहिंगटन नरीमन ने कीशममेघा चंद्र सिंह मामले में 2020 के फैसले में कहा था कि उचित समय का मतलब तीन महीने होगा।
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अब तक की गयी टिप्पणियों से संकेत मिलता है कि राज्यपाल एक निर्वाचित प्रतिनिधि की शक्तियों का इस्तेमाल नहीं कर सकते हैं, न ही उनके पास संविधान के तहत इस मामले में विवेकाधीन शक्तियां हैं। अब यह सर्वोच्च न्यायालय पर निर्भर है कि वह इस पर अंतिम निर्णय दे कि राज्यपाल के लिए राज्य विधानसभा द्वारा पारित विधेयक पर निर्णय लेने के लिए उचित समय सीमा क्या होगी जो सहमति के लिए उनके समक्ष प्रस्तुत की गयी है। (संवाद)