स्वतंत्रता सेनानियों का केन्द्र होशियारपुर एवं आस-पास का क्षेत्र

स्वतंत्रता सेनानियों तथा गदरी बाबाओं की बात करते हुए मेरा ध्यान अपने ज़िले के मुख्य शहर होशियारपुर के ओर चला गया है। विशेषकर यहां के लेखकों तथा स्वतंत्रता सेनानियों की ओर। गांव हुक्कड़ां के तारा सिंह कामिल की बात हो चुकी है। भाषा विभाग के सम्मानित साहित्याकों में से जगननाथ अग्रवाल, डी.पी. सिंह, कमलेश कुमार भारती तथा पंजाबी विश्वविद्यालय द्वारा बाल शिक्षा के लिए सम्मानित की गई अमृत कौर भी यहां जन्मी हैं और प्रसिद्ध महारथी डा. गंडा सिंह पास के कस्बे नसराला का। थोड़ी दूर साहरी गांव शहीद बाबू हरनाम सिंह का पैतृक ठिकाना था। उस समय 1884 में जन्मे हरनाम सिंह तथा उनके जैसे अन्य जट्ट पुत्र कृषि से उचित आय न होने के कारण अमरीका, चीन, ईरान, बर्मा, थाईलैंड, मलेशिया तथा पूर्वी अफ्रीका जाने के लिए मजबूर थे। 
मिडल पास करके हरनाम सिंह 9 रुपये माह पर तब सेना में भर्ती हुआ तो उसे न तो इतने कम पैसों के लिए ब्रिटिश सरकार को सिर देना स्वीकार था और न ही अंग्रेज़ों का सिपाही बन कर स्वतंत्र देशों को ब्रिटेन के अधीन करना। वह डेढ़ वर्ष की नौकरी करने के बाद तुरंत नाम कटवा कर वापस आया तो रोज़ी-रोटी की तलाश में विदेश जाने वाले साथियों के साथ विचार-विमर्श करने लगा। 
वहीं था जिसने 1904 से 1916 के 12 वर्षों में बर्मा, हांगकांग, कनाडा, अमरीका, चीन, जापान, थाईलैंड आदि देशों के दो दर्जन से अधिक शहरों में रोज़ी-रोटी के लिए प्रयास करते हुए सामाजिक संगठनों में भी खूब भाग लिया। 
यदि उसका दो जेलों से फरार होना तथा पुन: पकड़े जाने की भी गिणती करें तो उसके जैसा संघर्षमयी तथा रंगीला जीवन अन्य किसी के हिस्से नहीं आया। उन दिनों में ही वेनकूवर (कनाडा) में स्थापित हुई स्वदेश एसोसिएशन का वह प्राथमिक कार्यकर्ता था, जिसने 1909 से 1911 तक ‘स्वदेश सेवक’ नामक मासिक अखबार भी निकाला। बहुत कम लोगों को पता है कि 1996 में चंडीगढ़ से जारी हुए ‘देश सेवक’ समाचार पत्र का नाम भी ‘स्वदेश सेवक’ से लिया गया है और इसके कार्यालय के लिए जिस इमारत का निर्माण किया गया था, उसका नाम भकना भवन है। 
बाबू हरनाम सिंह का बड़प्पन यह भी था कि उसने 7 फरवरी, 1916 से 6 जुलाई 1916 के बीच जो आधा दर्जन पेशियां भुगतीं, इस दौरान जज के प्रश्नों का उत्तर देते समय बिल्कुल भी नहीं डगमगाया और यदि किसी खतरनाक स्थान पर उपस्थित था या स्वतंत्रता के लिए सरकार के विरुद्ध संघर्ष करने वाले किसी ऐसे व्यक्ति के साथ उसने पत्र-व्यवहार किया तो इसका भी खुल कर इकबाल किया। उसकी जांच से संबंधित एस.एम. रोबिन्सन के निम्म लिखित शब्द भी इसकी गवाही देते हैं।   
‘हमें इसकी जवानी का भी पूरा ज्ञान है। हो सकता है इसे किसी ने गुमराह भी किया है। फिर भी कानून इसकी आज्ञा नहीं देता कि इसे फांसी से कम सज़ा दी जाए।’
बाबू हरनाम सिंह काहरी-साहरी के रूप में प्रसिद्ध हुआ यह योद्धा दो बार जेल से फरार हुआ और कनाडा की सिडनी विक्टोरिया कम्पनी में पाल सिंह के फर्जी नाम से काम करता रहा और श्याम में ईशर दास नाम के तहत। उसकी जीवनी तथा मर्यादा बारे खोज भरपूर पुस्तक लिखने वाले साहरी गांव में जन्मा डा. जसवंत राय लिखता है कि हरनाम सिंह भाषण कला के लिए इतना प्रसिद्ध था कि बर्कतुल्ला तथा भगवान सिंह भी उसका लोहा मानते थे। गदर पार्टी के लिए नये सदस्य भर्ती करते समय उसकी लगन शीर्ष पर होती थी।  डा. राय रचित पुस्तक ‘कम्म दा सितारा’ 2015 में प्रकाशित हुई थी और 2019 में इसका दूसरा संस्करण प्रकाशित हो गया था और तीसरा प्रकाशित होने वाला है। शहीद बाबू हरनाम सिंह की चुम्बकीय शक्ति का इससे बड़ा सबूत क्या हो सकता है कि जब जज ने उसके एक साथी चालिया राम की सज़ा फांसी के कम करके उम्र कैद की तो उसने यह रियायत ठुकरा कर बाबू हरनाम सिंह की भांति फांसी का फंदा चूमने को प्राथमिकता दी। काहरी-साहरी ज़िन्दाबाद!
शहीद करतार सिंह सराभा तथा उनके साथी
स्वतंत्रता सेनानियों की बात करते हुए अक्तूबर का महीना तो बीत ही गया, परन्तु नवम्बर का प्रभाव जारी है। इस महीने की 16 तारीख को वर्ष 1915 में 19 वर्ष के नौजवान करतार सिंह सराभा तथा उनके छ: साथियों (विष्णु गणेश पिंगले, जगत सिंह सुर सिंह, हरनाम सिंह सियालकोट, सुरैण सिंह बड़ा, सुरैण सिंह छोटा तथा बख्शीश सिंह गिल्लवाली) को ब्रिटिश शासकों ने प्रथम लाहौर साज़िश केस के अधीन लाहौर की केन्द्रीय जेल में फांसी दे दी थी। 
करतार सिंह सराभा भी 1912 में अच्छे रोज़गार की तलाश में अमरीका जाने वाले उन नौजवानों में थे जो अपनी मातृ-भूमि त्याग कर अमरीका, इंग्लैंड, कनाडा, बर्मा, सिंगापुर आदि देशों के लिए चल पड़े थे। जब उसने सांफ्रासिस्को की बर्कले यूनिवर्सिटी में रसायम विज्ञान की पढ़ाई शुरू की तो उसकी मुलाकात अढ़ाई दर्जन और विद्यार्थियों से हुई, जिन्होंने 1913 में आस्टोरिया में बैठक करके हिन्दी एसोसिएशन आफ पैसेफिक कोस्ट नामक संग्रामी संगठन स्थापित कर लिया था। सभी अपनी मातृ-भूमि को स्वंतत्र देखने के लिए इतने उत्सुक थे कि इन्होंने नवम्बर 1913 में ‘गदर’ नामक एक अखबार भी शुरू कर लिया। गुरमुखी अक्षरों में प्रकाशित इस अखबार की निरन्तरता ने इसे इतना लोकप्रिय बना दिया कि हिन्दी एसेशिएशन का नाम भी गदर पार्टी पड़ गया। याद रहे कि इस अखबार की देख-रेख का काम नौजवान सराभा के हाथ में था। 
गदर पार्टी तथा गदर अखबार की गतिविधियों का अनुमान इस तथ्य से लग जाता है कि ब्रिटिश सरकार ने इनके तेज़-तरार कार्यकर्ताओं को फांसी, देश निकाला तथा कैद की सज़ाएं देना मुनासिब समझा। यदि सराभा की ओर से फांसी की सज़ा सुनते ही जज के लिए इस्तेमाल किया गया धन्यवाद शब्द आज भी हवा में गूंज रहा है तो फांसी के तख्ते पर चढ़ कर फांसी देने वाले दरोगे के लिए इस्तेमाल वाक्य भी कम महत्वपूर्ण नहीं :
‘दरोगा येह मत समझ कि करतार सिंह मर रहा है, मेरे खून के जितने कतरे होंगे, उतने करतार सिंह और पैदा होंगे, औह देश की आज़ादी के लिए कुर्बान होंगे।’ यह बात भी नोट करने वाली है कि शहीद-ए-आज़म भगत सिंह सराभा को अपना राजनीतिक नेता मानते थे और उनकी तस्वीर हर समय अपने पास रखते थे। 
अब मंगत राम पासला तथा हरकंवल सिंह द्वारा स्थापित रैवोल्यूशनरी मार्क्सवादी पार्टी द्वारा अपने मासिक वक्ता ‘संग्रामी लहर’ ने 80 पृष्ठों वाले अक्तूबर क्रांति विशेषांक के माध्यम से उपरोक्त शहीदों को सिजदा किया है। इस अंक में फिरोज़पुर, फरीदकोट, लुधियाना, जालन्धर, अमृतसर तथा पठानकोट के सार्वजनिक संठगनों ने ही नहीं भारतीय इन्कलाबी मार्क्सवादी पार्टी की होशियारपुर, रोपड़, संगरूर व शहीद भगत सिंह नगर तथा सुबार्डिनेट सर्विसिस फैडरेशन की होशियारपुर तथा अमृतसर ईकाइयों ने भी भरपूर उपस्थिति दर्ज की है। खूबी यह कि यह अंक अनेक किरती किसान संगठनों के प्रमुख नेताओं के संदेश तथा तस्वीरों के माध्यम से अक्तूबर क्रांति को याद करते हुए आज के दिन एक और ऐसी क्रांति की मांग करता है। इन सैंकड़ों चेहरों में मेरे ‘देश सेवक’ की सम्पादकीय समय के बीका जैसे चेहरे भी शामिल हैं। मेरे लिए जिनके दर्शन सौभाग्यपूर्ण हैं। इस अंक से मैं अपनी ओर से स्वतंत्रता सेनानियों को याद करने के क्रम स्थापित करना चाहूंगा। फिर भी मैंने अपने क्षेत्र के भगत सिंह नगर को मार्च महीने याद करने के लिए आरक्षित रख लिया है।