मोदी के मुकाबले बार-बार कमज़ोर क्यों पड़ जाता है विपक्ष ?

मैं कई मीडिया मंचों पर यह बात अक्सर बोलता-लिखता रहा हूं कि नरेंद्र मोदी की ़खुशकिस्मती से इस समय देश में रणनीतिविहीन, दूरंदेशी से वंचित, संगठनात्मक रूप से कमज़ोर और पहल़कदमी से वंचित विपक्ष है। इसलिए मोदी को असली चुनौती का ही सामना नहीं करना पड़ता। वर्ष 1984 में कांग्रेस ने सारे देश में विपक्ष का स़फाया कर दिया था, लेकिन दो-तीन साल में ही विपक्ष कांग्रेस के म़ुकाबले जम कर खड़ा हो गया और उसने 1989 में उसे बहुमत पाने से रोक दिया। मोदी की 2014 और 2019 में जीत तो कांग्रेस की उस जीत की पासंग भी नहीं है। लेकिन फिर भी विपक्ष उनका बाल बांका भी नहीं कर पा रहा है। उस समय कांग्रेस का तमिलनाडु को छोड़ कर सारे देश में बोलबाला था, वह हर जगह या तो सत्ता में थी या सत्ता की प्रबलतम दावेदार थी— भाजपा तो दक्षिण भारत में बहुत कमज़ोर हालत में है। वहां उसका प्रभाव-क्षेत्र सीमित है। फिर भी विपक्ष नरेंद्र मोदी को अपनी जगह से हिला पाने में नाकाम है। अर्थव्यवस्था की हालत ़खस्ता है, घटती आमदनी, महंगाई, बेरोज़गारी से जनता बेहाल है। लेकिन, फिर भी उसका बहुमत विपक्ष की बात सुनने के लिए तैयार नहीं है। विपक्ष इतना अप्रासंगिक तो उस समय भी नहीं हुआ था जब कांग्रेस ने 1952, 1957 और 1962 के चुनावों को कश्मीर से कन्याकुमारी तक लगातार जीता था। सोचने की बात है कि जो तब नहीं हुआ, वह अब क्यों हो रहा है? 
पिछले दस साल की चुनावी राजनीति पर अगर एक गहरी निगाह डाली जाए तो एक दिलचस्प तथ्य यह सामने आता है कि जब भी भाजपा और नरेंद्र मोदी किसी राजनीतिक संकट का सामना करते हैं, विपक्ष उन्हें पहले से भी ज्यादा मज़बूत वापिसी का म़ौका दे देता है। वोटों के मोर्चे पर मोदी के पहले संकट की शुरुआत सत्तारूढ़ होने के नौ महीने बाद ही हो गई थी। फरवरी, 2015 में पहले आम आदमी पार्टी ने दिल्ली विधानसभा में भाजपा का त़करीबन पूरा सफाया कर दिया और फिर साल के आखिरी महीनों में बिहार में महागठबंधन के हाथों उसे बुरी तरह से पराजित होना पड़ा। इसी के तुरंत बाद मार्गदर्शक मंडल के बुज़ुर्ग नेताओं द्वारा लिखे पत्र ने मोदी ने नेतृत्व पर सवालिया निशान लगा दिये। 2016 में मोदी ने नोटबंदी का धमाकेदार ़कदम उठा कर अपनी मज़बूती पर उमड़ रहे शंका के बादलों को साफ करने की कोशिश की। लेकिन उनकी वास्तविक परीक्षा तो 2017 की फरवरी-मार्च में होने वाले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में होने वाली थी। अगर विपक्ष इन चुनावों में दिल्ली या बिहार के मुकाबले आधा-पौना प्रदर्शन भी कर देता तो मोदी का वर्चस्व स्थापित होने से पहले ही बुरी तरह लड़खड़ा जाता। अमित शाह ने उस समय कहा भी था कि अगर विपक्ष उत्तर प्रदेश के चुनावों को नोटबंदी पर जनमतसंग्रह के रूप में देखना चाहता है, तो उन्हें कोई आपत्ति नहीं है। ज़ाहिर है कि वह चुनाव मोदी-शाह के लिए ‘त़ख्त या त़ख्ता’ की तरह था। 
हम जानते हैं कि विपक्ष अपनी इस ज़िम्मेदारी निभाने में इतनी बुरी तरह से नाकाम रहा कि भाजपा को तीन-चौथाई बहुमत मिला। नोटबंदी आर्थिक विफलताओं को चुनावी कामयाबी ने छिपा लिया। अगर उत्तर प्रदेश में भाजपा चूकती तो संदेश यह जाता कि देश की जनता मोदी को खुला हाथ नहीं देना चाहती। लेकिन चूका विपक्ष और उसके बाद मोदी ने 2022 तक मुड़ कर नहीं देखा। 
2023 की शुरुआत भी मोदी के लिए संकट के वर्ष की तरह हुई। गुज़रे साल के आखिरी महीने में हिमाचल की पराजय, भारत जोड़ो यात्रा से कांग्रेस को मिले उछाल, महंगाई-बेरोज़गारी की मार, कर्नाटक की बहुचर्चित हार और दस साल में पहली बार बने भाजपा विरोधी विपक्षी मोर्चे ने सवाल उठा दिया कि क्या 2014 का लोकसभा चुनाव मोदी के लिए मुश्किल तो नहीं होने जा रहा है? इस सवाल का जवाब मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और तेलंगाना के चुनावी संग्रामों से मिलने वाला था। एक बार फिर विपक्ष के सामने 2015 जैसी चुनौती ही थी। अगर इन चुनावों में विपक्ष 2018 वाला प्रदर्शन दोहरा देता तो उसे मोदी सरकार द्वारा सारे देश को सुनाई जा रही राष्ट्र की महानता और सतत विकास की ़खुशनुमा कहानी के समांतर अपनी कहानी सुनाने के लिए एक प्रभावी मंच मिल जाता। फिर 2024 की लड़ाई वास्तव में टक्कर वाली होती। लेकिन विपक्ष एक बार फिर बुरी तरह से नाकाम रहा। उसने न केवल अपनी सरकारें खोईं, बल्कि विपक्षी एकता की पनपती हुई संभावना को भी धूमिल कर दिया। इस समय स्थिति यह है कि विपक्ष उल्टी गिनती सुन रहा है। ऐसा लगने लगा है कि लोकसभा चुनाव में 2019 की ही तरह एक ही टीम मैदान में खेलेगी। 
प्रश्न यह है कि विपक्ष हर बार ऐसा क्यों करता हुआ नज़र आता है? क्या वह राजनीतिक खुदकुशी पर आमादा है? यह समझने के लिए राजनीति शास्त्री होने की ज़रूरत नहीं है कि अगर 2024 भी कमोबेश 2019 जैसा हुआ तो देश में विपक्ष की मौजूदगी महज़ औपचारिक ही रह जाएगी। विपक्षी नेता भ्रष्टाचार के इलज़ामों में या तो जेल काटेंगे या ज़मानत पर रिहा होकर कहीं दुबके होंगे। अदालतें उनके खिलाफ चार्जशीटों पर विचार कर रही होंगी। परिवारवाद और भ्रष्टाचार की तोहमत से ग्रस्त उत्तर, दक्षिण और पूर्व की क्षेत्रीय शक्तियों ने भाजपा के साथ छिपी हुई समझदारी कायम कर ली होगी। वामपंथी और समाजवादी आंदोलन का अंत पहले ही चुका है। भाजपा के अलावा कोई भी विचारधारात्मक त़ाकत और कार्यकर्ता संस्कृति वाली पार्टी बची हुईं नहीं है। अगला लोकसभा चुनाव विपक्ष के लिए आ़िखरी म़ौका है जब वह अपने लिए तेजी से ़खत्म होते जा रहे स्पेस को कुछ बचा सकता है।
कांग्रेस ने जिस तरह हिंदी पट्टी की तीन विधानसभाओं का चुनाव लड़ा है, उससे तो यही लगता है कि उसने हारी हुई बाज़ी ही नहीं बल्कि जीती हुई बाज़ी भी हारने की कला विकसित कर ली है। उसका आलाकमान केवल प्रभावी होने का भ्रम देता है। असल में वह अपने निर्देशों को गहलोत, कमलनाथ और पटेल से मनवाने में नाकाम रहा। मध्य प्रदेश में कमलनाथ के म़ुकाबले ए.आई.सी.सी. के पर्यवेक्षकों की बेचारगी, अज्ञात कारणों से वहां बीस दिन पहले चुनावी मुहिम की गति धीमी हो जाना, धन की कमी के कारण वोटों की गोलबंदी में कार्यकर्ताओं के हाथ बंध जाना, राहुल गांधी द्वारा विधायकों के टिकट काटने से गहलोत द्वारा इंकार कर देना, बघेल द्वारा किसी भी आदिवासी नेता को प्राथमिकता देने से इंकार किया जाना, इस बात का प्रमाण है कि इन दीनों प्रांतों में ये तीनों नेता ही स्वयंभू हाईकमान थे। 
ह़क़ीकत यह है कि अगर भाजपा के खिलाफ सीधी टक्कर वाले आठ राज्यों में कांग्रेस ने प्रभावी लड़ाई नहीं लड़ी तो समझ लीजिए कि कोई नहीं लड़ा। उसके पास अब बहुत कम समय है। इसी बीच में उसे अपने पिटे हुए नेताओं का विकल्प खोजना है, ‘इंडिया’ गठबंधन को झाड़-पोंछ कर खड़ा करना है और विपक्ष के एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम को बिना देर किये तैयार कर लेना है। 


-लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।