जासूसी फिल्मों से है बॉलीवुड का पुराना रिश्ता

जेम्स बांड स्टाइल की जासूसी फिल्मों (स्पाई थ्रिलर) ने साल 2023 में बॉक्स-ऑफिस पर ज़बरदस्त कमाल किया, पठान व टाइगर-3 आदि को देखने के लिए सिनेमाघरों में दर्शकों की भीड़ उमड़ी। लेकिन भारत में इस शैली की फिल्मों का यह कोई नया ट्रेंड नहीं है। दरअसल, यह ट्रेंड 55 वर्ष पहले 1968 में रिलीज़ हुई एक फिल्म से शुरू हुआ था, जो उस साल की बॉक्स-ऑफिस पर सबसे सफल फिल्म थी और आप हैरत करेंगे कि उसे एक ऐसे व्यक्ति ने बनाया था जिसके बारे में आज यह कल्पना करना भी कठिन है कि बम व बंदूकों में उसकी कोई दिलचस्पी रही होगी। यह व्यक्ति 1917 में चंदरमौली चोपड़ा के रूप में पैदा हुआ था। उसने राज कपूर की कालजयी फिल्म ‘बरसात’ लिखी जो प्रेम कथा थी और 1949 में रिलीज़ हुई थी। फिर उसने अपना बैनर सागर फिल्म्स लांच किया और वह भी एक प्रेम कहानी (आरज़ू 1965) के साथ और इसके लगभग दो दशक बाद उसने टीवी धारावाहिक ‘रामायण’ बनाया, जिसने उसका जीवन हमेशा के लिए बदल दिया।
अब आप समझ गये होंगे कि मैं रामानंद सागर की बात कर रहा हूं। सागर ही का मूल नाम चंदरमौली चोपड़ा था। आरज़ू और रामायण के बीच में ही सागर ने स्पाई थ्रिलर की नींव ‘आंखें’ के साथ रखी थी। ‘आंखें’ रहस्य व जासूसी पर आधारित फिल्म थी, जिसमें धर्मेन्द्र, माला सिन्हा, महमूद आदि मुख्य कलाकार थे। सागर के करियर की यह सबसे सफल फिल्म रही। इस 174-मिनट की मनोरंजन व बेहतरीन गानों से भरी फिल्म को भारत, जापान व लेबनान में सेट किया गया है। सुनील (धर्मेन्द्र) व मीनाक्षी (माला सिन्हा) दो समर्पित एजेंट्स हैं जो देश के दुश्मनों के विरुद्ध निडरता से लड़ते हैं। 
वे भारत सरकार के लिए काम नहीं कर रहे हैं बल्कि उस सीक्रेट ग्रुप का हिस्सा हैं जिसे आज़ाद हिंद फौज के तीन दिगज्जों ने गठित किया है- दीवान चंद (हिन्दू), अशफाक भाई (मुस्लिम) और इशक सिंह (सिख)। इस वास्तविक प्रतीक को आसानी से समझा जा सकता है। 1945-46 में ब्रिटिश सरकार ने आज़ाद हिंद फौज के तीन अधिकारियों- कर्नल प्रेम सहगल, जनरल शाहनवाज़ खान व कर्नल गुरबख्श सिंह ढिल्लों का कोर्ट मार्शल किया था, जिसने पूरे देश को हिलाकर रख दिया था। दिलचस्प यह है कि दीवान चंद की भूमिका में नज़ीर हुसैन थे, जो स्वयं नेताजी सुभाषचंद्र बोस की आज़ाद हिंद ़फौज में अधिकारी थे। 
‘आंखें’ की कहानी कुछ इस तरह है कि भारत को अस्थिर करने के लिए हथियार व गोला बारूद स्मगल करके लाया जा रहा है। इस शैतानी साज़िश का सरगना डॉक्टर एक्स (ब्राउन मिलिट्री यूनिफार्म व एक आंख के चश्मे में जीवन) है और उसका सहयोग भयावह मैडम (आसानी से रूप बदलने वाली ललिता पवार) कर रही है। सुनील को जांच के लिए बेरूत भेजा जाता है, जहां उसकी मुल़ाकात साथी एजेंट मीनाक्षी से होती है, जिससे वह अपनी जापान यात्रा के दौरान भी मिला था। बेरूत में दोनों का एक ही मिशन है। बहादुर सीक्रेट एजेंट के रूप में माला सिन्हा ने प्रभावी काम किया है; वह फैशनेबल रेड पैन्ट्स व हाई-हील के जूते पहनती हैं और बंदूक चलाती हैं। साठ के दशक के लिहाज़ से कुछ अन्य नये तत्व भी पर्याप्त मात्रा में हैं जैसे जलती-बुझती रंगीन लाइट्स के ट्रांसमीटर्स, एजेंट्स के लिए कोड नेम (शेर-ए-पंजाब, ताज महल), बोट चेज़ और धर्मेन्द्र का टाइगर से लड़ना। 
यह सीजीआई से पहले की बात है, इसलिए पर्दे के पीछे की कहानियां भी पर्दे के ऊपर की कहानियों जितनी रोमांचक थीं। मसलन, कैमरामैन के लिए विशेष पिंजरा बनाया गया ताकि वह सुरक्षित रहते हुए उमा देवी नामक बाघिन को शूट कर सके। उमा को शूट्स के दौरान नियंत्रित करना आसान न था। एक दिन वह बोर हो गई (संभवत: रिटेक्स से), वह पिंजरे के ऊपर से कूदी और गायब हो गई। दहशत में उसकी तलाश की गई, वह एक कंपाउंड के कोने में सोते हुए मिली। यह दिलचस्प क़िस्सा ‘एन एपिक लाइफ: रामानंद सागर- फ्रॉम बरसात टू रामायण’ (मई 2023) से लिया गया है, जिसे प्रेम सागर ने लिखा है। उन्होंने यह भी लिखा है कि बेरूत के सीन ईरान में शूट किये गये थे और चर्चित गाने ‘दे दाता के नाम’ को तेहरान की सड़कों पर शूट किया गया था। प्रेम सागर लिखते हैं, ‘पापाजी आंखें में किसी नये कलाकार को लेना चाहते थे। उसी दौरान वह एक हॉल में ‘शोला और शबनम’ (1961) देखने के लिए गये, जिसमें उन्होंने धर्मेन्द्र के बड़े व मज़बूत हाथ देखे और सोचा कि इन हाथों में बंदूक परफेक्ट दिखायी देगी।’
लेकिन ‘आंखें’ भारत की पहली जासूसी फिल्म नहीं है। जेम्स बांड से प्रेरित ‘फज़र्’, जिसमें जितेन्द्र एजेंट 116 के रूप में हैं, उससे एक साल पहले रिलीज़ हुई थी। 1968 में ही ‘आंखें’ के कुछ माह बाद ‘हमसाया’ रिलीज़ हुई, जिसमें जॉय मुखर्जी (जिन्होंने निर्देशन भी किया), माला सिन्हा व शर्मिला टैगोर मुख्य भूमिकाओं में थे। दोनों फज़र् व हमसाया में दुश्मन देश चीन है। फज़र् का खलनायक रोबोट जैसा चीनी व्यक्ति सुप्रीमो है, जो चाबी वाले खिलौने की तरह चलता है और असम्बद्ध आदेश देता है जैसे किल सुनीता, लोड पाइजन पाउडर आदि। हमसाया में खलनायक कामरेड चेन (मदन पुरी) है, जो भारतीय वायु सेना में घुसपैठ की विस्तृत साज़िश करता है। ज़ाहिर है कि 1962 का चीन से युद्ध फिल्मकारों के जहन में ताज़ा था। बहरहाल, इन दोनों फिल्मों ने आंखें जैसी सफलता हासिल नहीं की थी। इसके बाद तो एजेंट विनोद और न जाने कौन-कौन सी जासूसी फिल्में आयीं। अब तो स्पाई यूनिवर्स का एक अलग ही विभाग बन गया है, जो पठान, टाइगर की सफलता को देखते हुए आगे भी जारी रहेगा। 
 
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर