बहुसंख्यकों के साथ-साथ मुसलमानों को रिझाने की कोशिश कर रही है भाजपा

अभी हाल ही में अखबारों में एक तस्वीर देख कर ज्यादातर लोगों को ताज्जुब ही हुआ होगा। इस चित्र में केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी मुसलमानों के सबसे बड़े और पवित्रतम तीर्थस्थल मदीना में दिखाई दे रही थीं। खबर यह थी कि वे ऐसी पहली हिंदू नेता हैं, जो किसी ़गैर-मुस्लिम प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व करते हुए मदीना पहुंची हैं। वे प़ैगम्बर मुहम्मद की मस्ज़िद में भी गईं जहां प़ैगम्बर का म़कबरा भी है। ईरानी ने सऊदी अरब के सरकारी पक्ष के साथ 2024 की हज के लिए एक आपसी समझौते पर भी हस्ताक्षर किये, और साथ में भारत से 1,075,25 हाज़ियों का कोटा भी सुनिश्चित कर लिया। आम तौर पर मुसलमान विरोधी समझी जाने वाली भाजपा की सरकार द्वारा की जाने वाली ऐसी पहल़कदमी किसी ़खास तरह के रुझान या किसी राजनीतिक रणनीति की तरफ इशारा कर रही थी। जब यह ़खबर आई, उसी के आसपास एक और ़खबर दिखी, जिसके साथ एक तस्वीर और थी। इसमें स्मृति ईरानी कई और लोगों के साथ एक विशाल चादर के कोनों को पकड़े हुए खड़ी थीं। ़खबर यह थी कि यह चादर दरअसल अजमेर के ़ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर चढ़ाई जाएगी। 
क्या यह चादर स्मृति ईरानी की थी, नहीं। बताया यह गया कि यह चादर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरफ से चढ़ाई जाएगी और इसे मोदी जी ने ही उन्हें इस म़कसद से दिया है। मोदी के आलोचकों को याद होगा कि जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री थे तो उनके पास आये एक मुसलमान मुल़ाकाती द्वारा भेंट की गई टोपी को उन्होंने स्वीकार करने से इंकार कर दिया था। आज वही मोदी प्रधानमंत्री के तौर पर देश की सबसे अहम स़ूफी दरगाह पर चादर चढ़वा रहे हैं। टिप्पणी करने वाले चाहे तो कह सकते हैं कि आ़िखर प्रधानमंत्री को स्वयं दरगाह पर जाने का समय क्यों नहीं मिला— आखिरकार मंदिरों में जाने के लिए तो वे हमेशा तैयार रहते हैं। जो भी हो, यह पूरा प्रकरण बताता है कि मुसलमानों के प्रति मोदी और भाजपा के रुख में कुछ न कुछ परिवर्तन तो आया ही है। यह याद करना आसान है कि अभी साल-छह महीने पहले उन्होंने पसमांदा मुसलमानों को भाजपा के पक्ष में करने के लिए ब़ाकायदा कार्यकर्ताओं से अपील की थी। भाजपा को मुसलमान इलाकों में स्नेह-यात्राएं निकालने का कार्यक्रम लेना था। ये खबरें और तस्वीरें बताती हैं कि भारतीय जनता पार्टी एक साथ कितने बड़े-बड़े मोर्चों को साधने में लगी रहती है। एक तरफ अयोध्या में राम लल्ला के मंदिर की प्राणप्रतिष्ठा को अभूतपूर्व पैमाने पर आयोजित करने का उद्यम चल रहा है, तो दूसरी तरफ मदीना और चिश्तिया सिलसिले की दरगाह के ज़रिये मुसलमानों को साधने की कोशिश हो रही है। 
भाजपा की इस मुसलमान-नीति की शुरुआत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत के इस कथन से हुई थी कि ‘अगर देश में मुसलमान नहीं होगा तो ये हिंदुत्व नहीं होगा।’ उनकी बात सही थी। हिंदुत्व की विचारधारा मुसलमानों को भारत से बाहर नहीं निकालना चाहती। सावरकर द्वारा दी गई हिंदुत्व की परिभाषा के अनुसार भारतीय मुसलमानों की पितृभूमि भारत ही है, इसलिए वे भारत में रह सकते हैं। लेकिन भारत में रहते हुए उनकी हैसियत क्या वैसी ही होगी जैसी हिंदुओं, सिखों, जैनों और बौद्धों (ये सभी भारत में पैदा हुए धर्म हैं) की होती है? यह सवाल इसलिए उठता है कि हिंदुत्व की परिभाषा में ऐसे सभी धर्मों की अलग श्रेणी बना दी गई है जिनकी पुण्यभूमि भारत नहीं है, अर्थात जो भारत में पैदा नहीं हुए हैं। जैसे, ईसाइयत और इस्लाम। हिंदुत्व के अनुसार ऐसे धर्मों को मानने वाले लोगों का वजूद कुछ शर्तों के आधीन ही हो सकता है। वे शर्तें क्या होंगी, यह मोहन भागवत ने साफ नहीं किया है। लेकिन हम उन शर्तों और उन्हें लागू करने के तरीकों के बारे में कुछ ठोस अनुमान अवश्य लगा सकते हैं। 
मसलन, मुसलमान रहेंगे लेकिन संघ परिवार की प्रमुख सदस्य भाजपा उन्हें या तो न के बराबर टिकट देगी या बिल्कुल नहीं देगी। मुसलमान रहेंगे, लेकिन बांग्लादेश से आए हिंदू शरणार्थी का संघ के विचारक छाती ठोक कर स्वागत करेंगे, और मुसलमान शरणार्थी घुसपैठिया करार दे दिया जाएगा। टीवी पर बहस में साफ तौर पर कहा जाएगा कि भाजपा पहले भी मुसलमान वोटों के बिना सत्ता में आई थी और उनके बिना ही सत्ता में फिर से आएगी। मुसलमान रहेंगे, लेकिन अल्पसंख्यक आयोग की ज़रूरत पर सवालिया निशान लगाया जाता रहेगा। मुसलमान रहेंगे, लेकिन संघ परिवार का ही संगठन बजरंग दल उन्हें थपड़ियाने के एजेंडे पर काम करता रहेगा। मुसलमान रहेंगे, लेकिन गौमांस रखने के आरोप में अखलाक की हत्या और मवेशियों का व्यापार करने वाले मुसलमानों की भीड़-हत्या के कारण बने माहौल के असर में बहुतेरे मुसलमान परिवारों ने अपने घर में गोश्त पकाना ही बंद कर देंगे। उन्हें जब खाना होगा तो रेस्त्रां में खा आएंगे।  
संघ जानता है कि 15-16 करोड़ मुसलमानों को इस देश से बाहर नहीं निकाला जा सकता है। न ही संविधान के तहत उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक घोषित किया जा सकता है। लेकिन उन्हें अघोषित रूप से एक ऐसी स्थिति में ज़रूर पहुंचाया जा सकता है, जिसमें उनकी राजनीतिक और सांस्कृतिक दावेदारियां पूरी तरह से शून्य हो जाएं। ऐसा होने पर कोई भी समुदाय तकनीकी रूप से नागरिक होते हुए भी नागरिकता से प्राप्त होने वाली शक्तियों से वंचित हो जाता है। मुसलमानों के साथ नियोजित रूप से पिछले साढ़े चार साल से ऐसा ही किया जा रहा है।
ऐसा कर पाने के लिए ज़रूरी है कि पहले मुसलमानों के वोट की ताकत को ज़ीरो कर दिया जाए। उत्तर प्रदेश की मिसाल बताती है कि 40-45 प्रतिशत हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण होते ही मुसलमान वोट अपनी अहमियत खो देते हैं। ऐसा होते ही सभी दल हिंदू वोटों के सौदागर बनने की कोशिश करने लगते हैं। पार्टियां रामभक्त, शिवभक्त और विष्णुभक्त में बंट जाती हैं। मुसलमानों के पक्ष में बोलना या उन्हें अपनी रणनीति का मुख्य अंग बनाना नुकसानदेह मान लिया जाता है। देश की राजनीति बहुसंख्यकवाद की प्रतियोगिता बन गई है। पूरा मुसलमान अधूरा बन गया है। इसलिए मोहन भागवत को यह कहने की सुविधा मिल गई है कि हिंदुत्व मुसलमानों के खिलाफ नहीं है। बहरहाल, यह मानना मुश्किल है कि भाजपा की इन कोशिशों से उसे मिलने वाले मुसलमान वोटों में कोई बड़ी बढ़ोतरी होने वाली है। लेकिन यह ज़रूर है कि चुनाव से ठीक पहले की गई इस पहल़कदमी का संयोग अगर कुछ मुसलमानों को लोकसभा का भाजपा टिकट देने से किया जा सकता है, तो इसके भाजपा के लिए कुछ सकारात्मक परिणाम निकल सकते हैं।
लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।