अदालती सुधार का एक और यत्न

पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय द्वारा आपराधिक एवं खराब आचरण वाले नागरिकों के अग्रिम ज़मानत हेतु हकदार न होने का फैसला नि:संदेह अदालतों की न्यायिक प्रक्रिया में निरन्तर सुधार का ही एक अंग माना जा सकता है। उच्च न्यायालय ने यह टिप्पणी विगत दिवस एक अभियुक्त द्वारा अपनी गिरफ्तारी की आशंका के दृष्टिगत अपने लिये अग्रिम ज़मानत हासिल करने हेतु दायर की गई याचिका पर फैसला सुनाते समय की। अदालत ने अभियोजन पक्ष की इस दलील से सहमति जताई कि मामला दर्ज होने के बाद भी अभियुक्त द्वारा दूसरे पक्ष को गालियां और धमकियां दिये जाने की शिकायत आई है। लिहाज़ा अभियुक्त के इस खराब आचरण वाले पक्ष को देखते हुए उसे अग्रिम ज़मानत नहीं दी जा सकती। अदालत ने इसके बाद उसकी इस याचिका को भी रद्द कर दिया। इस मामले के सन्दर्भ में जस्टिस सुमित गोयल पर आधारित खण्ड पीठ ने इस फैसले को एक नज़ीर सिद्ध करते हुए कहा कि इस प्रकार के आपराधिक मामलों में अभियुक्त पक्ष को अग्रिम ज़मानत देते समय उसके द्वारा अपनाये गये खराब आचरण और आपराधिक व्यवहार को अवश्य दृष्टिगत रखा जाना चाहिए। अदालत ने इस टिप्पणी को भविष्य में अदालती फैसलों में एक आवश्यक कारक होना भी करार दिया। अदालत ने इस मामले में एक पग और आगे बढ़ते हुए कहा कि किसी अभियुक्त को आपराधिक मामले में ज़मानत देते समय ऐसे सभी पक्षों का ध्यान रखा जाना चाहिए, और कि अभियुक्त के आचरण और चरित्र के प्रति जानकारी हासिल करने के लिए सभी पक्षों पर सावधानीपूर्वक विचार किया जाना चाहिए।
उच्च न्यायालय की यह टिप्पणी बेशक एक व्यक्ति द्वारा अपनी पत्नी की मार-पीट किये जाने और ऐसे मानवीय अपराध के बावजूद पत्नी के प्रति निर्मम और क्रूरतापूर्ण व्यवहार किये जाने के दृष्टिगत एकाकी मामले को लेकर सामने आई है, किन्तु इसका प्रभाव नि:संदेह भविष्य में दूरगामी सिद्ध होने की बड़ी सम्भावना है। वैसे भी, ऐसे फैसले अक्सर भविष्य में एक अनुकरणीय उदाहरण जैसे बन जाते हैं। अदालत में इस मामले में अभियुक्त और याचिकाकर्ता के वकील ने बेशक इसे एक पारिवारिक मामला करार देने, और इस हेतु पूछताछ की आवश्यकता न होने का भी दावा किया, किन्तु अदालत ने इसके बावजूद, केस दर्ज होने के बावजूद धमकीपूर्ण आचरण अपनाने और दूसरे पक्ष के साथ गाली-गलौच किये जाने को न्याय के विरुद्ध करार देते हुए उसकी ओर से दायर याचिका को सुनवाई हेतु स्वीकार किये जाने से इन्कार कर दिया। अदालत ने अभियुक्त पक्ष को इस धरातल पर कोई भी लाभ दिये जाने का हकदार होने से स्पष्ट रूप से इन्कार किया। अदालत की ओर से दिये गये ये सुझाव भी फैसले का आधार बनते हैं कि आरोपित को ज़मानत देते समय उसकी ओर से जांच अधिकारी के समक्ष नियमित रूप से पेश होने के पक्ष को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। इस प्रकार नि:संदेह आरोपित के आचरण पक्ष पर नज़रसानी की जा सकती है। उसके द्वारा अभियोजन पक्ष के किसी सदस्य, व्यक्ति को प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से कोई लाभ, प्रलोभन देने और कोई वायदा किये जाने को कदाचरण पक्ष में रखा जा सकता है। उसकी ओर से धमकियों और आपराधिक आचरण जैसा व्यवहार किया जाना अपने आप में खराब आचरण जैसा माना जाना चाहिए। अदालत ने आरोपित द्वारा बिना न्यायिक अनुमति के विदेश जाने को भी अनुचित करार देते हुए, संबंधित अदालतों को इसे विचाराधीन लिये जाने का सुझाव दिया है। नि:संदेह आरोपित का ऐसा व्यवहार न्यायिक प्रक्रिया को चुनौती जैसा हो सकता है। अदालत की ओर से उसे दी गई ज़मानत की अवधि के दौरान उसकी ओर से किसी अन्य आपराधिक कृत्य में शामिल होने को भी कदाचरण माना गया है।
हम समझते हैं कि नि:संदेह यह फैसला वर्तमान स्थितियों में न केवल एक बड़ा अहम सन्दर्भ है, अपितु इसके भविष्य में न्यायिक धरातल पर एक बड़ी नज़ीर बनने की भी प्रबल सम्भावना है। प्राय: ऐसा होते पाया गया है कि अभियुक्त अथवा आरोपित पक्ष अपने रसूख का इस्तेमाल करके स्थायी ज़मानत अथवा अग्रिम ज़मानत हासिल करने में कामयाब हो जाता है, किन्तु इसके बाद वह दूसरे पक्ष अथवा मुकद्दमा पर असर-अन्दाज़ होने लगता है। इससे एक ओर जहां न्यायिक प्रक्रिया प्रभावित होती है, वहीं न्याय मिलने में देरी होने की सम्भावनाएं भी बढ़ती हैं। यह क्रिया अदालतों में मुकद्दमों की बढ़ती संख्या में भी इज़ाफा करती है क्योंकि ज़मानत हासिल करके ऐसे आपराधिक तत्व मुकद्दमों को अधिकाधिक लटकाते रहने में कामयाब हो जाते हैं। अदालतों के रिकार्ड में मुकद्दमों की संख्या को कम करने और न्यायिक प्रक्रिया को यथा-सम्भव जन-केन्द्रित बनाने हेतु अदालतों की ओर से विगत कुछ वर्षों से जो सुधार-प्रक्रिया जारी की गई है, उसका यह फैसला एक आवश्यक अंग प्रतीत होता है। नि:संदेह आपराधिक तत्वों की शिनाख्त कर, उनके अपराध, उनके आचरण और उनके व्यवहार के आईने को समक्ष रख कर उनके साथ वैसा ही व्यवहार किये जाने की बड़ी आवश्यकता है। हम समझते हैं कि इसका प्रभाव नि:संदेह बहु-आयामी हो सकता है। एक ओर जहां पीड़ित पक्ष को सही समय पर सही न्याय मिलने की सम्भावना बनती है, वहीं न्याय एवं न्यायिक प्रणाली के प्रति विश्वास का धरातल भी विस्तृत होता है। अदालत की यह टिप्पणी सुधार-पथ पर एक और यत्न जैसी है।