नितीश के फिर पलटी मारने के राजनीतिक निहितार्थ

नितीश कुमार दुनिया के एकमात्र ऐसे नेता हैं, जो मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए, मुख्यमंत्री बनने के लिए, मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देते हैं ताकि फिर से मुख्यमंत्री बन सकें। 28 जनवरी, 2024 को उन्होंने एक बार फिर अपने पद से त्यागपत्र दिया और फिर उसी दिन मुख्यमंत्री पद की शपथ ली, इस बार भाजपा के समर्थन से, जिसे 17 माह पहले तलाक देकर उन्होंने राजद के नेतृत्व वाले महागठबंधन के साथ सरकार बनायी थी। इस तरह नितीश कुमार 9वीं बार बिहार के मुख्यमंत्री बने हैं और पिछले 15 वर्ष के दौरान उन्होंने दो बार भाजपा का साथ छोड़कर फिर से उसका हाथ पकड़ा है। यह भारतीय राजनीति में अवसरवाद का चरम है, जिसका संकेत तो उसी समय मिल गया था, जब ‘इंडिया’ गठबंधन ने नितीश कुमार को अपना चेयरपर्सन नहीं बनाया था। उन्होंने संयोजक का पद लेने से स्वयं इन्कार कर दिया था और ललन सिंह की जगह जद (यू) की कमान अपने हाथ में ले ली थी। इस पृष्ठभूमि में राजनीतिक महत्व के कई प्रश्न उठते हैं- बार-बार पलटी मारने से स्वयं नितीश कुमार की राजनीति पर क्या प्रभाव पड़ेगा? भाजपा के लिए इसका क्या अर्थ है? इससे ‘इंडिया’ गठबंधन कमज़ोर होगा या नहीं? 
बिहार की राजनीति में दो मज़बूत गुट हैं, एक भाजपा का और दूसरा राजद का। ये दोनों लगभग बराबर के ही हैं। जद (यू) इनमें से जिसकी तरफ चला जाता है, उसका पलड़ा भारी हो जाता है। इस स्थिति का नितीश कुमार ने भरपूर फायदा उठाया है कि इन दोनों धड़ों से विधानसभा में बहुत कम सीटें होने के बावजूद वह लगातार मुख्यमंत्री बनने में सफल रहे हैं। इस कामयाबी के बावजूद अगर आप गौर करेंगे तो देखेंगे कि विधानसभा में जद (यू) की सीटों में कमी ही आयी है, जबकि कभी वह भाजपा के साथ गठबंधन में होते हुए भी राज्य में सीनियर पार्टनर थी, आज जूनियर पार्टनर है, लेकिन बिहार की ‘संतुलन की राजनीति’ के कारण नितीश कुमार मुख्यमंत्री बने हुए हैं। जद (यू) के विधायकों की संख्या में निरंतर कमी आने का अर्थ यह है कि नितीश कुमार का बार-बार पलटी मारना बिहार की जनता को पसंद नहीं आया है। इसलिए 2024 का लोकसभा चुनाव नितीश कुमार की अवसरवादी राजनीति का लिटमस टेस्ट होगा जोकि उनके राजनीतिक भविष्य को भी तय करेगा।
आगे बढ़ने से पहले आवश्यक है कि नितीश कुमार के इस बार पलटी मारने के कारण को समझ लेते हैं। दरअसल, सपने कभी-कभी बहुत भयावह हो जाते हैं। यह बात अजीब लगती है, लेकिन एक बार जब नितीश कुमार का प्रधानमंत्री बनने का सपना चकनाचूर हुआ, जिसके लिए वह महागठबंधन में शामिल हुए थे, लेकिन ‘इंडिया’ गठबंधन ने उन्हें अपना चेयरपर्सन नहीं बनाया, तो वह महागठबंधन को छोड़कर फिर से एनडीए का हिस्सा बन गये। इसकी एक खास वजह है। 2022 में नितीश कुमार व राजद के बीच पॉवर शेयरिंग का यह समझौता हुआ था कि 2024 लोकसभा चुनाव के बाद बिहार का मुख्यमंत्री पद तेजस्वी यादव को सौंप दिया जायेगा। लेकिन प्रधानमंत्री ‘प्रत्याशी’ बनने का सपना टूटने के बाद नितीश कुमार के सामने ‘न खुदा ही मिला न विसाले सनम’ वाली स्थिति उत्पन्न हो गई, उन्हें खतरा लगा कि वह तो बिना कुर्सी के रह जायेंगे। इसलिए उन्होंने पाला बदल लिया, लेकिन इस बार एनडीए में उनकी पहली जैसी पोजीशन रहना कठिन है।
भाजपा, विशेषकर उसकी बिहार ईकाई, फिर से नितीश कुमार को साथ लेने के लिए तैयार नहीं थी। आम चुनाव से पहले विपक्ष को कमज़ोर करने के उद्देश्य से आखिरकार उसने भारी मन से यह कदम उठा ही लिया, लेकिन अपनी शर्तों पर, जिनसे नितीश कुमार की स्थिति कमज़ोर ही हुई है। नवम्बर 2020 में नितीश कुमार इस बात को लेकर खुश नहीं थे कि भाजपा ने तारकेश्वर प्रसाद व रेनू देवी को उप-मुख्यमंत्री बनाया था। वह सुशील मोदी को पसंद करते थे, जो उनके साथ तीन बार उप-मुख्यमंत्री रह चुके थे। भाजपा ने इस बार भी नितीश कुमार की पसंद व संवेदनाओं की परवाह नहीं की है। उसने विजय कुमार सिन्हा और सम्राट चौधरी को उप-मुख्यमंत्री बनाया है, जो हमेशा ही नितीश कुमार की नाक में दम करते रहे हैं। 
साल 2022 में नितीश कुमार के महागठबंधन के साथ जाने की एक बड़ी वजह यह थी कि स्पीकर रहते हुए सिन्हा ने उनके कामकाज में काफी दखलंदाजी की थी। सिन्हा व चौधरी की नियुक्ति इस तथ्य का स्पष्ट संकेत है कि इस बार 2005-2010, 2010-2013 और 2017-2022 की तरह भाजपा अधिक संख्या बल के बावजूद दब्बू व दोयम दर्जे की पार्टनर बनकर नहीं रहेगी। हालांकि आम ख्याल यही है कि नितीश कुमार के जाने से ‘इंडिया’ गठबंधन कमजोर होगा, लेकिन उनका जाना कई मायनों में इस ब्लॉक के लिए अप्रत्यक्ष कृपादान भी हो सकता है। पहली बात तो यह कि अगर नितीश कुमार ‘इंडिया’ गठबंधन में रहते तो बिहार की 40 लोकसभा सीटों में से कम से कम 15-20 अपनी पार्टी जद (यू) के लिए मांगते और अगर वह जीत जाते तो इसकी कोई गारंटी नहीं थी कि अपने सांसदों से भाजपा का समर्थन कराते। अब वह बिहार की आधी सीटें भाजपा से लेकर चुनाव लड़ेंगे और गारंटी अब भी इस बात की नहीं है कि अगर केंद्र में हालात कुछ और बने तो वह पलटी नहीं मारेंगे। 
दूसरा यह कि नितीश कुमार के जाने से भी बिहार में जो महागठबंधन का वोट है, वह अपनी जगह सुरक्षित है, उस पर कोई फर्क नहीं पड़ा है। तीसरा यह कि अब राजद अगले चुनाव के लिए ठोस विपक्ष की भूमिका में आ सकती है और उसे ही सत्ता विरोधी लहर का लाभ भी मिलेगा। 17 माह तक सत्ता में रहकर राजद को अपनी ट्रेज़री व चुनावी मशीनरी रिचार्ज करने का अवसर भी मिल गया है। तेजस्वी यादव ने भी अपनी प्रशासनिक विश्वसनीयता में इज़ाफा किया है, खासकर बेरोज़गारों को नियुक्ति पत्र बांटकर उन्होंने दिखाया है कि वह चुनावी वायदा पूरा करने में सक्षम हैं। माकपा प्रमुख सीताराम येचुरी बहुत पहले से यह कहते आ रहे हैं कि चुनावी गठबंधन केवल राज्य स्तर पर हो सकते हैं और राष्ट्रीय गठबंधन लोकसभा चुनाव के बाद संभव हो सकता है। इसलिए नितीश कुमार के जाने के बाद जो राजनीतिक स्थिति बनी है, उसमें यही प्रतीत होता है कि ‘इंडिया’ गठबंधन की शेष 27 पार्टियां अब राज्य स्तर पर सीटों का बंटवारा करेंगी और चुनाव के बाद अगर केंद्र में सरकार बनाने की कोई संभावना बनती है तो उस किस्म का गठबंधन राष्ट्रीय स्तर पर बनाया जा सकता है जैसा कि डा. मनमोहन सिंह के कार्यकाल में बनाया गया था। इसलिए फिलहाल के लिए ‘इंडिया’ गठबंधन केवल नाम का रह गया है। 
बहरहाल, इस पूरे घटनाक्रम में भले ही नितीश कुमार नवीं बार मुख्यमंत्री बनने में सफल रहे हों और फलस्वरूप ‘इंडिया’ गठबंधन को कमज़ोर कर गये हों, जिससे निश्चितरूप से भाजपा को लाभ होगा, लेकिन स्वयं उनकी राजनीतिक छवि बहुत खराब हुई है और भाजपा का समर्थन करने वाले एक वरिष्ठ पत्रकार का कहना है कि ‘भारतीय राजनीति में जो कुछ खराब है, नितीश कुमार उसका प्रतीक हैं’। 
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर