ईरान और पाकिस्तान के टकराव का मतलब

ईरान ने पाकिस्तान में सर्जिकल स्ट्राइक की, जिसके निशाने पर आई.एस.आई. से जुड़ा जैश-अल-अदल समूह था। अंदेशा था कि इस महीने की शुरुआत में ईरान में हुए आत्मघाती बम विस्फोटों में वह शामिल था। ईरान के प्रहार के 48 घंटे से भी कम समय के बाद पाकिस्तान ने जवाबी कार्यवाही की। उसने सीमा से 100 कि.मी. से भी कम दूरी पर सिस्तान-बलूचिस्तान प्रांत में ईरानी शहर सरवान के नज़दीक एक गांव को निशाना बनाया। इसके लिए उसने किलर ड्रोन्स, रॉकेट और स्टैंड ऑफ हथियारों का प्रयोग किया। पाकिस्तान द्वारा बताया गया कि उसके द्वारा हमला बलूच आतंकवादियों के लिए था, जोकि एक बड़ी योजना बना रहे थे, लेकिन जो हकीकत योग्य पत्रकारों ने समझी है, वह यह है कि ईरान ने पाकिस्तान पर बमबारी की, जिसके जवाब में बदला लेते हुए पाकिस्तान को ईरान पर बम गिराने पड़े। अब दोनों मुल्क तनाव कम करने की बातें कह रहे हैं। इन हमलों का दौर शुरू होने से पहले ही ‘हैंडशेक’ की चर्चा की जा रही है। एक तेहरान में भारत के विदेश मंत्री जयशंकर और ईरान के राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी के बीच, दूसरी दाबोस में ईरान के विदेश मंत्री और पाकिस्तान के कार्यवाहक प्रधानमंत्री के बीच। 
सवाल यह है कि यह जो कुछ हुआ सो हुआ क्या यह मान लिया जाना चाहिए कि अब टकराव खत्म हो गया है? या फिर इसके बिल्कुल उल्ट टकराव बढ़ सकता है। अगर ईरान पाकिस्तान के हमले से ईरान और मजबूत होकर निकले? सोचने की बात है। अमरीका ने कभी भी ईरान की सीमा के भीतर हमला नहीं किया है। इज़रायल ने भी न किया, न सोचा और उनकी शत्रुता तो जग-जाहिर ही है। लेकिन इस बार पाकिस्तान ने ़खतरे का निशान पार कर लिया है। ऐसे में तेहरान अपना वर्चस्व साबित करने के लिए इसका जवाब देने की रौ में आ सकता है क्या? सवाल यह भी है कि इसका भारत और इस क्षेत्र के लिए क्या अर्थ हो सकता है? अपनी प्रतिक्रिया  देते हुए भारत ने ईरान का समर्थन ही किया है। कहा गया कि हम देशों के द्वारा आत्म-रक्षा में की जाने वाली कार्रवाई को समझ सकते हैं। हमें इन हमलों से कोई आपत्ति नहीं है, यहां एक दिलचस्प पृष्ठ-भूमि पर गौर करना अनिवार्य हो जाता है। इतिहास बताता है कि ईरान पाकिस्तान को मान्यता देने वाला पहला मुल्क था। ईरान के शाह ने 1950 में इस्लामाबाद का दौरा किया था जबकि भारत वह इसके छ: साल बाद 56 में ही आ पाये थे। उन्होंने दो युद्धों में भी पाकिस्तान का समर्थन किया था। 1965 के युद्ध में उसने पाकिस्तान की वायुसेना की रक्षा की और 1971 के समय वह फिर रावलपिंडी के पक्ष में खड़ा रहा था। भारत से ईरान के संबंध जाकर 1970 के दशक में ही सुधर पाये। तब हमने ईरान से बड़ी मात्रा में तेल खरीदना आरम्भ किया था। फिर 1990 के दशक में, अ़फगानिस्तान में एक साझा उद्देश्य में दोनों देश साथ आ गये। 
पाकिस्तान ने कंधार में तालिबान को तैयार करने में अपनी भूमिका का निर्वाह किया। यह एक सुन्नी कट्टरपंथी समूह था और भारत तथा ईरान दोनों के लिए ़खतरा हो सकता था। इसलिए उन्होंने तालिबान विरोधी नार्दन एलायंस को समर्थन दिया और इस समय वे दोनों ही पाक-प्रायोजित आतंकवाद के साथ संघर्ष कर रहे दिखाई दे रहे हैं। बेशक इस समझौते की अपनी सीमाएं हैं। 2016 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ईरान के दौरे के लिए गये थे। तब दोस्ती की बात हुई थी। संबंध काफी सुधरे थे। लेकिन एक साल बाद ही नज़र लग गई। ईरान के सर्वोच्च नेता ने मित्रता का पालन नहीं किया था। उन्होंने कश्मीरी मुसलमानों के बारे में कहा कि तेहरान को शोषकों से लड़ने में मदद करनी चाहिए। इसके बाद अमरीकी प्रतिबंधों के चलते भारत ने ईरान से तेल खरीदने में कटौती कर दी और ईरान 400 अरब डॉलर के निवेश के वायदे के साथ चीन से रिश्ते सुधारने में लग गया। इस समय वही चीन ईरान और पाकिस्तान के बीच मध्यस्थता की पेशकश कर रहा है। दोनों देशों में उसका काफी कुछ दाव पर जो लगा हुआ है।