लद्दाख में ज़ोर-शोर से हो रही गिलगित-बाल्टिस्तान की मांग

लद्दाख में दो प्रमुख सामाजिक व राजनीतिक गठबंधन हैं- एक है लेह एपेक्स बॉडी (एलएबी) जो अनेक बौद्ध धार्मिक व राजनीतिक पार्टियों का प्रतिनिधित्व करता है और दूसरा है कारगिल डेमोक्रेटिक अलायंस (के.डी.ए.) जो मुस्लिम धार्मिक समूहों व स्थानीय पार्टियों का प्रतिनिधित्व करता है। इन दोनों गठबंधनों ने इस साल जनवरी में गृह मंत्रालय को एक मेमोरेंडम सौंपा जोकि केंद्र और नव गठित केंद्र शासित प्रदेश के बीच चल रहे डायलाग का ही हिस्सा है। इस मेमोरेंडम में अन्य बातों के साथ एक महत्वपूर्ण व दिलचस्प मांग यह है कि लद्दाख के क्षेत्रीय नियंत्रण का विस्तार गिलगित-बाल्टिस्तान तक किया जाये जोकि फिलहाल पाक अधिकृत कश्मीर (पीओके) में है। सवाल यह है कि लद्दाख गिलगित-बाल्टिस्तान क्यों मांग रहा है और क्या वर्तमान में उसकी यह मांग पूरी करना संभव है?
लद्दाख की वर्तमान स्थिति यह है कि वह 59,146 वर्ग किमी में फैला हुआ है और वह 5 अगस्त, 2019 तक पूर्व जम्मू-कश्मीर राज्य का हिस्सा था। इस राज्य को खत्म करके लद्दाख व जम्मू-कश्मीर के रूप में दो केंद्र शासित प्रदेश बनाये गये। साथ ही इस क्षेत्र को धारा 370 के तहत जो विशेष संवैधानिक दर्जा प्राप्त था, उसे भी समाप्त कर दिया गया। केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर की तरह लद्दाख की अपनी विधानसभा नहीं है। लेकिन उसके पास चुनी हुई दो पहाड़ी परिषदें हैं- लद्दाख ऑटोनोमस हिल डेवलपमेंट काउंसिल-कारगिल (एलएएचडीसी) और एलएएचडीसी-लेह। इस क्षेत्र के माइक्रो प्रशासनिक कार्यों का भार इन्हीं दो परिषदों पर है। 2011 की जनगणना के अनुसार लद्दाख की जनसंख्या 2.74 लाख है। लद्दाख मुस्लिम बहुल केंद्र शासित प्रदेश है, जिसमें लेह ज़िला में बौद्धों की संख्या अधिक है और कारगिल में शिया मुस्लिम ज्यादा हैं। धारा 370 व 35ए निरस्त किये जाने पर इस क्षेत्र में मिलीजुली प्रतिक्रिया हुई थी। इन धाराओं के प्रावधानों के तहत स्थानीय लोगों को भूमि, जॉब्स व प्राकृतिक संसाधनों पर एक्सक्लूसिव अधिकार प्राप्त थे। लेह लम्बे समय से केंद्र शासित प्रदेश की मांग कर रहा था। लेकिन 2019 की घटनाओं के बाद से कारगिल फिर से कश्मीर के साथ जुड़ने की मांग करता आ रहा है।
बहरहाल अब इस क्षेत्र की नवीनतम मांगें कुछ और भी हैं। पिछले दो वर्षों के दौरान लेह व कारगिल के दोनों सामाजिक-राजनीतिक गठबंधन सड़कों पर आंदोलन कर रहे हैं कि बिना विधानसभा के केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा अर्थहीन है। दोनों ज़िलों ने हाथ मिलाकर ज़बरदस्त अभियान छेड़ा है यह मांग करते हुए कि राज्य का दर्जा बहाल करने के साथ ही विधानसभा दी जाये। सर्वसम्मति से संविधान के छठे शेड्यूल और अनुच्छेद 371 के तहत विशेष दर्जे की भी मांग है जैसा कि मिज़ोरम, त्रिपुरा, सिक्किम व अन्य उत्तरपूर्व के राज्यों को प्राप्त है। लद्दाख के लोगों का तर्क है कि अगर इस क्षेत्र को बाहर के लोगों व बाहर के निवेश के लिए खोल दिया जायेगा तो इससे ‘इकोलोजिकली अति नाज़ुक व संवेदनशील क्षेत्रों’ पर कुप्रभाव पड़ेगा। अब सवाल यह है कि लद्दाख क्षेत्रीय नियंत्रण विस्तार की मांग भी साठ में क्यों कर रहा है? गौरतलब है कि 1947 से पहले गिलगिट-बाल्टिस्तान क्षेत्र भी लद्दाख ज़िले का ही हिस्सा था, लेकिन अब यह क्षेत्र पाकिस्तान के कब्ज़े वाले कश्मीर में है। मेमोरेंडम में इस तथ्य का उल्लेख किया गया है और मांग की गई है कि क्षेत्रीय नियंत्रण का विस्तार गिलगित-बाल्टिस्तान तक किया जाये। 
मेमोरेंडम में कहा गया है कि केंद्र ‘गिलगित-बाल्टिस्तान को लद्दाख में मिलाने का हर संभव प्रयास करे’। यह भी मांग की गई है कि एक बार जब इस क्षेत्र में विधानसभा स्थापित हो जाये तो गिलगित-बाल्टिस्तान के लिए सीटें आरक्षित कर दी जायें। लद्दाख चीन के साथ भी लम्बी व संवेदनशील वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) शेयर करता है। 2020 में एलएसी पर भारत व चीन के सैनिकों के बीच हिंसक टकराव हुआ था, जिसके बाद, भाजपा नेता सुब्रमनियम स्वामी के अनुसार, चीन ने भारत का लद्दाख क्षेत्र में 1,000 वर्ग किमी क्षेत्र पर कब्ज़ा किया हुआ है और पूरी एलएसी पर यह कब्ज़ा लगभग 4,000 वर्ग किमी का है। अखबारी रिपोर्ट्स के मुताबिक 19 जनवरी, 2024 को भारत की केंद्र सरकार को दिए गये इंटेलिजेंस इनपुट्स में कहा गया है कि लद्दाख में एलएसी के निकट लगभग 1,000 वर्ग किमी क्षेत्र अब चीन के नियंत्रण में है। भारतीय सैनिकों को अब इस क्षेत्र में पेट्रोलिंग नहीं करने दी जा रही है। इस पृष्ठभूमि में ताज़े मेमोरेडम में कहा गया है कि ‘स्थानीय लोगों का सशक्तिकरण किया जाये ताकि क्षेत्र में स्थिरता आये और विदेश नीति भी मज़बूत हो सके’। मेमोरेंडम में यादध्यानी करायी गई है कि स्थानीय लोगों को चूंकि लद्दाख के कठिन भौगोलिक क्षेत्र की अधिक समझ है, इसलिए वह हमेशा सैन्य व लोजिस्टिक ऑपरेशनों में मददगार साबित हुए हैं। 
इस सब पर केंद्र का दृष्टिकोण क्या है? लद्दाख में ज़बरदस्त सड़क प्रदर्शनों को देखते हुए केंद्र ने 2022 में राज्यमंत्री जी किशन रेड्डी के नेतृत्व में एक समिति का गठन किया कि वह एलएबी और केडीए के सदस्यों से वार्ता करे। केंद्र ने लद्दाख के लोगों को आश्वासन दिया था कि वह ‘भाषा, संस्कृति व लद्दाख में भूमि संरक्षण से संबंधित मुद्दों का उचित समाधान तलाश करेगा’। लेकिन वह अभी तक किसी समाधान पर पहुंचने में नाकाम रहा है। 2023 में विरोध प्रदर्शनों का ताज़ा दौर आरंभ हो गया। इसके बाद एक अन्य उच्चस्तरीय समिति का गठन किया गया, जिसका प्रमुख राज्यमंत्री नित्यानंद राय को बनाया गया। इस समिति को भी लद्दाख के स्टेकहोल्डर्स से वार्ता करने के लिए कहा गया। इस 17-सदस्यों की समिति में लद्दाख के लेफ्टिनेंट गवर्नर और केडीए व एलएबी के सदस्यों को भी शामिल किया गया। 2024 में केडीए व एलएबी ने लिखित मेमोरेंडम सौंपा ताकि नई दिल्ली और लद्दाख के बीच में उक्त मांगों को लेकर अधिक संरचित वार्ता का मार्ग प्रशस्त हो सके।
लद्दाख को राज्य का दर्जा मिले या न मिले, लेकिन विधानसभा तो मिलनी ही चाहिए ताकि उसके नागरिकों की आवाज़ सुनी जा सके व उनकी समस्याओं का समाधान हो सके। लद्दाख की इकोलॉजी, भाषा व संस्कृति को सुरक्षित रखने के लिए उसे अनुच्छेद 371 के प्रावधानों के तहत लाना भी ज़रूरी है। इसमें भी कोई दो राय नहीं हैं कि सैन्य व लोजिस्टिक ऑपरेशनों में स्थानीय लोगों को शामिल करना हमेशा लाभकारी होता है। रही बात गिलगित-बाल्टिस्तान को लद्दाख में शामिल करने की तो यह दो ही सूरतों में संभव है- पीओके का वार्ता के माध्यम से भारत में विलय हो जाये या भारतीय सेना उसे पाकिस्तान से मुक्त करा ले। दोनों ही सूरतें फिलहाल असंभव सी प्रतीत होती हैं। हां, संभावित लद्दाख विधानसभा में गिलगित-बाल्टिस्तान के लिए सीटें आरक्षित करके उन्हें रिक्त छोड़ना ज़बरदस्त डिप्लोमेटिक संदेश अवश्य होगा।

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