सफलता के चार अध्याय

रामधारी सिंह दिनकर जी ने एक पुस्तक लिखी थी ‘संस्कृति के चार अध्याय’। इसकी भूमिका जवाहर लाल नेहरू ने लिखी थी। आजकल जब हम देश में अपनी पुरातन पवित्र संस्कृति की पुन:स्थापना करना चाहते हैं, और गुलामी की मानसिकता से छुटकारा पाना चाहते हैं, तो ऐसी पुस्तकों को कोई नहीं पढ़ता। किंडल पर डालो तो वहां पड़ी-पड़ी वे सूखती रहती हैं, लेकिन हम लोग किसी तेज़ एक्सप्रैस की तरह से ऐसे पुरातन स्टेशनों से धड़धड़ाते हुए गुज़र जाते हैं, और फिर देश और दुनिया में पुस्तक संस्कृति की मौत का रोना रोते हुए बेहाल हो जाते हैं।
नीति शतक से लेकर सांस्कृतिक उत्थान को चेतने वाली ऐसी सब पुस्तकें तो अब आपके सामान्य ज्ञान के कोषों से भी बाहर हो गई हैं। अनीति भरे इस वातावरण में नैतिकता का सन्देश देने वाली इन पुस्तकों को न कोई तलाशता है, न उनसे अपने जीवन को धनी बनाता है।
नुस्खा है, धनी बनना है तो अध्यवसाय, शोध और परिश्रम के इस मार्ग को तिलांजलि दो। अपने जीवन को इंस्टैट कॉफी की तरह तुरत फुरत तैयार हो जाने दो। संस्कृति के पुनरुत्थान का मतलब है, शार्टकट संस्कृति के नोक पलक के कुछ इस प्रकार संवाद देना कि सफलता आपकी हथेली पर उगती सरसों की तरह आपको कोर्निश बजाती नज़र आये। अगर आज चन्द बरदाई होते तो उन्हें गमलों में उगते ये सूरजमुखी बागों के विकल्प मानने पड़ते। उन्हें यह भी न कहना पड़ता, ‘मत चूकियो चौहान।’ पृथ्वी राज चौहान तो इस प्रेरणा से आप्लावित होकर दृष्टिहीन होते हुए भी महमूद गज़नी को धराशायी कर गये थे, लेकिन आज ऐसे प्रेरणा संकेतों की क्या आवश्यकता?
आज तो पूरा समाज ही दृष्टिहीन हो गया है। आदर्श वाक्यों को ताक पर रख कर ‘स्वार्थ परमो धर्मा’ चिल्लाता हुआ धक्का-मुक्की में विशेषज्ञ हो रहा है। ‘हम अकेले ही चले थे, जानिबे मंज़िल, लोग मिलते गये और कारवां बनता गया।’ आज मिलकर भी चलो, तो कामयाब वही जो भीड़ को पीछे छोड़ कर अकेला ही आगे बढ़ जाये। हां, अपनी इस मैराथन दौड़ में अपने पीछे आ रहे अपने नाती-पोतों के लिए रास्ता हमवार ज़रूर करता चला जाये। ‘केवल मैं’ आज का सत्य है। इस युग के नीति शतक अपना निचोड़ आपको देते हैं।
संस्कृति के पुनरुत्थान की बात आप अवश्य कीजिये, लेकिन अपनी वंशबेल से इस इतिहास को लिख दीजिये। बात धर्म-निरपेक्षता की कीजिये, लेकिन अपनी जाति, अपने धर्म को सर्वोपरि जानिये और जातीय जनगणना में उसे सदा का उपेक्षित, शोषित और प्रताड़ित बता उसके लिये विशेष आरक्षण का प्रबन्ध कर दीजिये।
संस्कृति के चार अध्याय की जगह आज के युग का महाग्रन्थ ‘सफलता के चार अध्याय’ होना चाहिये। पहला यह कि दुनिया के इस बाज़ार में आप अपना ढिंढोरा किस कर्ण भेदी स्वर में पीट सकते हैं? लोगों को मानना है कि आप जैसा न कोई हुआ और न कोई हो सकेगा। पहले कहते ‘हम जहां खड़े होते हैं, वहां से कतार शुरू हो जाती है।’ फिर इसमें शुरू हुआ कि ‘हमारी कतार हम से शुरू होती है, और हम पर ही खत्म हो जाती है।’ लेकिन आज का युगबोध है, ‘हमें कतार की ही आवश्यकता नहीं। हमारे जैसा न कोई पहले हुआ है, और न कोई हमारे बाद होगा।’ देखो चीन हो या रूस, इनके राष्ट्राध्यक्षों ने ‘हमारा कोई विकल्प नहीं’ कह प्रस्ताव पास करवा जीवन भर के लिये अपनी कुर्सी सुरक्षित कर ली है। अपना भला चाहते हो तो हमें भी यही गरिमा प्रदान कर दो। 
सफलता का अगला अध्याय बताता है, कि इस उपलब्धि के लिए तुम्हारा बातूनी होना बहुत आवश्यक है। अपनी प्रशंसा में ज़मीन-आसमान के कुलाबे मिलाना तुम्हें आना चाहिये। इसके लिए मिथ्या आंकड़ों का साक्ष्य तुम्हारे पास होना चाहिये। वाक्परटु बिके हुए आंकड़ा शास्त्री तुम्हारे पास होने चाहियें। सफलता का यशोगान बिना अपने गवैयों के नहीं होता है, प्रिय!
सफलता का तीसरा अध्याय कहता है कि जिस बात का दावा करो, उसका अस्तित्व भी कहीं नज़र न आये। महंगाई पर नियन्त्रण की बात करो तो लोगों की जेब और फट जाये, और तुम बताते रहो कि तनिक पड़ोसी देशों की ओर देखो। वहां तो महंगाई तुम्हारी महंगाई से चार गुणा अधिक है। यही हाल बेकारी, भूख और भ्रष्टाचार का है। अपनी चारपाई के नीचे क्या झांकते हो? पड़ोसी देशों में तो उनकी चारपाई तक बिक गई और अब वे नंगे निचार फर्श पर असहाय पड़े हैं।
और अब आ जाओ सफलता के चौथे और आखिरी अध्याय पर। कभी मशहूर लेखक जे.डी. सैलिंजर ने एक पुस्तक लिखी थी, ‘मौन’। पुस्तक लिखते ही पहला, दूसरा और तीसरा पृष्ठ खाली, जो मौन का द्योतक थे। तुम्हारी किताब में सफलता के नाम अर्पित तुम्हारे इस अध्याय में केवल तुम्हारी तस्वीर रहे, पुष्पित और अभिनंदित ताकि लोगों को तुम्हें पहचानने और तुम्हारा अभिनंदन करने में कोई दिक्कत न आये और पुस्तक की इतिश्री हो तुम्हारी सफलता के उत्सव से। उत्सव जो कभी खत्म नहीं होता है। एक के बाद दूसरी घोषणा से यह पल्लवित होता है और भूखे लोगों के मुंह में तुम्हारा रियायती निवाला इसका जयघोष बनता है।