ब्रिगेडियर उस्मान न होते तो पाकिस्तान में होता वैष्णो देवी मंदिर

भात को आज़ाद हुए और पाकिस्तान को निर्मित हुए अभी बमुश्किल दो महीने ही हुए थे। अक्तूबर की गुलाबी सर्दियों ने अभी दस्तक ही दिया था कि तभी 22 अक्तूबर 1947 को पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर पर कबायली घुसपैठ की आड़ में हमला बोल दिया। उसने इस अभियान का गुप्त नाम ऑपरेशन ‘गुलमर्ग’ रखा था। जिस मोहम्मद अली जिन्ना ने 14 अगस्त, 1947 को एक जोरदार और क्रांतिकारी भाषण देकर भारत के साथ अच्छे पड़ोसी की तरह आज़ाद सफर शुरु करने का वायदा किया था, उसी जिन्ना की सेना ने षड़यंत्र करके महज कुछ ही दिनों में कबायलियों को सैन्य हथियार थमाकर उनके साथ पाकिस्तानी सैनिकों की जम्मू-कश्मीर में अवैध घुसपैठ कराकर औचक हमला बोल दिया। चूंकि तब तक जम्मू-कश्मीर रियासत भारत का हिस्सा नहीं थी, वह आज़ाद रियासत थी, इसलिए भारत की फौज पाकिस्तान की इस हरकत पर अपनी तरफ से सीधे जवाब नहीं दे सकती थी। पाकिस्तान भी इस बात को जानता था और इसी का फायदा उठाते हुए कबायलियों के भेष में उसके सैनिक मौजूदा श्रीनगर के अंदरूनी इलाकाें तक पहुंच गये।
इनकी मंशा श्रीनगर से होते हुए जम्मू तक पहुंचने और हरि निवास पैलेस से माता वैष्णो देवी की गुफा तक के पूरे इलाके को कब्जाने की थी लेकिन पाकिस्तानियों की इस मंशा के सामने चट्टान की तरह एक भारतीय सैनिक खड़ा रहा और उसके ये मंसूबे पूरे नहीं हुए। जिस भारतीय सैनिक ने पाकिस्तानी सेना के इस मंसूबे को चकनाचूर किया था, उसका नाम था ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान। वह अपने सैनिकों के बीच ब्रिगेडियर उस्मान के नाम से मशहूर थे। उत्तर प्रदेश के मौजूदा मऊ ज़िले के बीबीपुर गांव में 15 जुलाई, 1912 को जन्मे मोहम्मद उस्मान ने मिलिट्री कॉलेज सैंडहर्स्ट से सैन्य एजुकेशन हासिल की थी। भारतीय सेना के पहले फील्ड मार्शल बने, जनरल सैम मानेक शॉ उनके बैचमेट थे।
ब्रिगेडियर उस्मान बचपन से ही बहादुर और निडर थे। जब वह अभी खुद 15 साल की उम्र के थे, तब अपने से दोगुना बड़े लड़कों को बदतमीजी करने पर पीट दिया करते थे। सिर्फ मारपीट में ही वह निडर नहीं थे बल्कि एक बार वह अपने गांव के बाहर एक कुएं के पास लोगों की भीड़ लगी देखी, पास गये तो पता चला एक छोटा बच्चा कुएं में गिर गया है और लोग उसे निकालने के लिए तरह-तरह की योजनाएं बना रहे हैं, लेकिन कुएं में नीचे कूदने की किसी की हिम्मत नहीं पड़ रही। ऐसे में मोहम्मद उस्मान ने न आव देखा न ताव और बिना कुछ कहे सीधे कुएं में कूद गए और छोटे बच्चे को गोद में उठा लिया और गांव वालों के द्वारा नीचे डाली गई रस्सी को मजबूती से पकड़कर बाहर आ गये। इस घटना के बाद से वह गांव में छोटे बड़े लोगों के बीच बहुत हिम्मती और बहादुर युवा मान लिए गए थे। 
धोखे से जम्मू-कश्मीर पर कबायलियों के वेष में हमला करने वाली पाकिस्तानी सेना नवम्बर 1947 के पहले हफ्ते तक जम्मू-कश्मीर के राजौरी ज़िले तक पहुंच गई थी और 24 नवम्बर को उन्होंने झंगड़ इलाके पर कब्ज़ा कर लिया था। उनका अगला निशाना नौशेरा था। एक बार पाकिस्तानी सैनिक अगर नौशेरा पर कब्जा कर लेती, तो उनके लिए फिर जम्मू दूर नहीं था और माता वैष्णों देवी का मंदिर भी दूर नहीं था। जिस समय पाकिस्तानी सेना ने झंगड़ पर कब्जा किया, ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान नौशेरा में थे और 50 पैरा ब्रिगेड की अगुवाई कर रहे थे। उन्होंने देखा कि पाकिस्तानी सेना बड़ी चतुराई से नौशेरा के चारो तरफ घेरा डाल रही है। लेकिन ब्रिगेडियर उस्मान पाकिस्तानियों की इस चाल को सफल नहीं होने दिया। जब दो दिन की घेराबंदी के बाद ब्रिगेडियर उस्मान की फौज ने पाकिस्तानी सेना पर जबरदस्त हमला करके उसे पीछे खदेड़ दिया।
ब्रिगेडियर उस्मान की इस सूझबूझभरी बहादुराना कार्यवाई की सेना में खूब तारीफ हुई। उन्हीं दिनों जनरल करियप्पा ने नौशेरा का दौरा किया और मोहम्मद उस्मान व उनके बहादुर सैनिकों से मुलाकात की। मुलाकात के बाद जनरल करियप्पा ब्रिगेडियर उस्मान से कहा, ‘मैं आपसे एक तोहफा चाहता हूं कि आप कोट पर हमला करें।’ कोट दरअसल नौशेरा से करीब 10 किलोमीटर दूर पूर्व में स्थित वह रणनीतिक जगह थी, जिसे पाक सैनिक ट्रांजिट कैंप की तरह इस्तेमाल कर रहे थे। अपने जनरल के आदेश पर ब्रिगेडियर उस्मान ने आप्रेशन ‘किपर’ के नाम से 1 फरवरी 1948 को पाकिस्तानी सेनाओं पर जबरदस्त हमला किया। दरअसल भारतीय सेना ने बड़ी चतुराई से इस हमले में एयरफोर्स का भी इस्तेमाल किया था। भारतीय सेना के अचानक और ताकतवर हमले से पाकिस्तानी सेना भौचक्की रह गई। भारतीय सेना ने देर शाम को हमला किया था और रात के दस बजते बजते कोट को अपने कब्ज़े में ले लिया। पाकिस्तानी सेना को इससे बड़ा धक्का लगा और उन्होंने स्थानीय कबायलियों की मदद से करीब 11 हजार की फौज बनाकर 6 फरवरी की सुबह भारतीय सैनिकों पर पलटवार कर दिया। लेकिन बहादुर ब्रिगेडियर उस्मान के नेतृत्व में भारतीय सैनिक पीछे नहीं हटे और इस तरह जी जान लगा देने के बाद भी पाकिस्तानी सेना का सारा प्लान चौपट हो गया। इसके बाद से ही ब्रिगेडियर उस्मान को नौशेरा का शेर की उपाधि मिली थी।
नौशेरा में जबरदस्त तरीके से मुंह खाने के बाद पाकिस्तानी सेना इस कदर बौखला गई कि उसने ब्रिगेडियर उस्मान पर उन दिनों 50 हजार रुपये का ईनाम रख दिया। जरा सोचिए जिस समय एक रुपये का ढाई सेर देसी घी मिला करता था, उन दिनों 50 हजार रुपये की कितनी वैल्यू रही होगी। लेकिन इससे नौशेरा के इस शेर को जरा भी फर्क नहीं पड़ा। फरवरी में पाकिस्तानी सेना को जबरदस्त तरीके से धूल चटाने के बाद उन्होंने अगले मार्च के महीने में झंगड़ पर हमला करने की तैयारी शुरु कर दी और इस गुप्त ऑप्रेशन का नाम ‘विजय’ दिया। 12 मार्च को आप्रेशन विजय शुरु हुआ और 18 मार्च आते-आते झंगड़ भारतीय सेना के कब्ज़े में था। लेकिन लगातार बेहद कम संसाधनों पर लड़ते हुए आखिरकार 36 साल की उम्र में 3 जुलाई, 1948 को नौशेरा का शेर ब्रिगेडियर उस्मान शहीद हो गये। जब पाकिस्तानी सेना ने उन पर तोप के गोले से हमला किया और इस गोले के कई टुकड़े उनके सीने में धंस गये। भारतीय फौज में ‘जय हिंद’ का चलन शुरु करने वाले ब्रिगेडियर उस्मान को दिल्ली स्थित जामिया मिलिया विश्वविद्यालय के परिसर में सुपुर्द-ए-खाक कर दिया गया। अगर ब्रिगेडियर उस्मान अपनी सूझबूझ से पाकिस्तानी फौजों पर नौशेरा में हमला नहीं किया होता तो पाकिस्तानी सेना वैष्णो देवी मंदिर पर अप्रत्यशित तरीके से कब्ज़ा कर चुकी होती।

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