सम्भल कर चलने की ज़रूरत

पहला किसान आन्दोलन अगस्त, 2020 से दिसम्बर 2021 तक सवा वर्ष से अधिक अवधि तक चला था। पंजाब से अनेक किसान संगठन हरियाणा पार करके दिल्ली की सीमाओं पर पहुंच गये थे। उत्तर प्रदेश की दिल्ली सीमा पर भी भारी संख्या में किसान एकत्रित हुए थे। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार ने इस समय के दौरान किसान नेताओं के साथ तीन कृषि कानूनों एवं अन्य मांगों के संबंध में लम्बी बैठकें की थीं परन्तु कोई परिणाम नहीं निकला था। लम्बी अवधि के बाद प्रधानमंत्री ने स्वयं कृषि संबंधी नये तीन कानूनों को वापिस लेने की घोषणा की थी, किन्तु कानून वापिस लेने के बाद भी किसानों की 23 फसलों के लाभकारी समर्थन मूल्य लेने के संबंध में मुख्य मांग बरकरार रही। इसके लिए केन्द्र सरकार ने एक समिति ज़रूर बनाई थी, परन्तु उसे किसान संगठनों का समर्थन नहीं मिला था। केन्द्र सरकार ने भी आगे उस समिति के कामकाज की ओर ज्यादा ध्यान नहीं दिया।
उस समय चले आन्दोलन के कारण रेलगाड़ियों एवं वाहनों के आवागमन में बार-बार अवरोध पड़ने के कारण उद्योग एवं व्यापारिक क्षेत्रों में अरबों रुपये का घाटा पड़ा था। आम लोगों को भी समय-समय  पर भारी परेशानी से भी गुज़रना पड़ा था। इस कारण उपजे घाटे की पूर्ति के लिए लम्बा समय लगा था तथा पंजाब में प्रत्येक पक्ष से बड़ी अनिश्चितता भी पैदा हो गई थी। इस बार दो संगठनों संयुक्त किसान मोर्चा (़गैर-राजनीतिक) तथा किसान मज़दूर संघर्ष समिति ने ‘दिल्ली चलो’ के नाम पर फसलों के समर्थन मूल्य पर अपनी अन्य मांगों को लेकर आन्दोलन शुरू किया है, जिससे एक बार फिर अनिश्चितता के हालात बने दिखाई देते हैं। 
पिछली बार की भांति इस बार भी हरियाणा की सीमाओं पर भारी संख्या में एकत्रित हुये किसानों को दिल्ली जाने से रोकने के लिए हरियाणा और केन्द्र सरकार द्वारा कड़े प्रबन्धों के साथ-साथ सुरक्षा बलों को तैनात किया गया है। दो दिनों से चल रहे इस आन्दोलन के कारण जहां हरियाणा की सीमाओं पर भारी तनाव पैदा हो चुका है, वहीं पिछली बार की तरह यह टकराव जन-साधारण के लिए बड़ी समस्याओं वाला बनता जा रहा है। इन सीमाओं से  प्रतिदिन लाखों की संख्या में हर तरह के वाहन चलते हैं। खास तौर पर हर तरह के सामान की ढुलाई इन वाहनों द्वारा की जाती है जिनमें फल-सब्ज़ियां एवं अन्य हर तरह का सामान भी शामिल होता है। उद्योगपतियों एवं व्यापारियों के लिए भी यह समय बड़ा हानिकारक बन जाता है। वे अपना माल राज्य से बाहर नहीं भेज सकते। 
दूसरे शब्दों में किसी न किसी तरह इसका प्रत्येक व्यक्ति पर प्रभाव पड़ता है। अब इन संगठनों के समर्थन में कुछ अन्य संगठनों ने भी अपना रोष दर्ज करवाने के लिए रेल लाइनों पर बैठने की घोषणा कर दी है। कृषि तथा औद्योगिक मज़दूरों की मांगों के लिए कुछ संगठनों ने 16 फरवरी को भारत बंद का आह्वान भी किया है। चिन्ता इस बात की है कि इस तरह का माहौल आगे और गम्भीर घटनाओं को भी जन्म दे सकता है जिस तरह कि आन्दोलनकारियों को हरियाणा की सीमाओं पर रोकने के लिए हरियाणा की सरकार द्वारा जो आंसू गैस एवं रबड़ की गोलियों तथा अन्य साधनों का प्रयोग किया गया है, उससे दर्जनों किसान घायल हुये हैं। हरियाणा पुलिस का यह आरोप है कि आन्दोलनकारियों द्वारा पथराव करने के कारण उसके भी दर्जनों पुलिस कर्मचारी घायल हुये हैं। हाईकोर्ट ने भी इस संबंध में कुछ याचिकाओं की सुनवाई करते हुए चिन्ता प्रकट की है और सभी पक्षों को बातचीत द्वारा मामले के हल की ओर बढ़ने की अपील की है। केन्द्र सरकार के सम्बद्ध मंत्रियों की ओर से दिये गये बयानों के अनुसार सरकार बातचीत के लिए तैयार है, परन्तु कई जटिल मामलों का हल एकाएक नहीं निकाला जा सकता। इसलिए विस्तारपूर्वक एवं गम्भीर विचार-विमर्श की ज़रूरत होगी। वह भी यह चाहती है कि ऐसी बातचीत में किसानों के समूचे पक्षों का प्रतिनिधित्व होना चाहिए। यह अच्छी बात है कि केन्द्र सरकार एवं आन्दोलनकारी किसान संगठनों में एक बार फिर बातचीत शुरू हो रही है। इस समूचे घटनाक्रम के दृष्टिगत हम संबंधित सभी पक्षों को यह अपील करते हैं कि किसानों एवं समूचे देश से संबंध रखने वाले ऐसे जटिल मामलों को मिल-बैठ कर हल करने को प्राथमिकता दी जाये। नि:संदेह पैदा हुई इस स्थिति से आज ज्यादातर राजनीतिक पार्टियां अपने-अपने ढंग से लाभ लेने की इच्छुक दिखाई देती हैं तथा अपनी ओर से वे इन मामलों के संबंध में बड़े-बड़े दावे एवं वायदे भी कर रही हैं। ऐसी बयानबाज़ी माहौल को सुधारने की बजाय बिगाड़ने में ही सहायक हो सकती है, जो समय पा कर सभी के लिए नुकसानदायक साबित हो सकती है। 

—बरजिन्दर सिंह हमदर्द