किसान आन्दोलन की राह

कुछ समय पहले संयुक्त किसान मोर्चा (गैर-राजनीतिक) तथा किसान मज़दूर संघर्ष कमेटी द्वारा अपनी मांगों के लिए केन्द्र सरकार पर दबाव बनाने के लिए ‘दिल्ली चलो’ का नारा देने तथा किसानों के हरियाणा के साथ लगती शंभू तथा खनौरी सीमाओं पर बड़ी संख्या में जमा होने से केन्द्र, हरियाणा तथा पंजाब की सरकारों में व्यापक स्तर पर हलचल पैदा हो गई है। इसका बड़ा कारण यह है कि वर्ष 2020-21 में हुए पहले किसान आन्दोलन के दौरान भी इस क्षेत्र में बेहद अनिश्चितता तथा गड़बड़ वाला माहौल बन गया था। पंजाब के किसान संगठनों द्वारा दिल्ली सीमा पर लगभग डेढ़ वर्ष  डेरे लगाए रखे गए थे, जिससे सभी संबंधित पक्षों का नुकसान हुआ था। 
लगभग 700 किसान इस आन्दोलन की भेंट चढ़ गए थे। अंत में लम्बे संघर्ष के बाद केन्द्र सरकार द्वारा बनाए गए तीन कृषि कानूनों को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को वापस लेने की घोषणा करनी पड़ी थी। इस लम्बी अवधि के दौरान पंजाब के उद्योग तथा व्यापार को अरबों रुपये का नुकसान हुआ था। सामान्य जनजीवन भी बेहद प्रभावित हुआ था। उसके बाद लम्बी अवधि तक पंजाब पूरी तरह खड़ा नहीं हो सका था। इसी कारण इस बार किसान संगठनों द्वारा दिए गए ‘दिल्ली चलो’ के नारे ने इस क्षेत्र में पुन: बड़ी चिन्ता पैदा कर दी थी। हरियाणा सरकार ने इस बार किसानों को हरियाणा की सीमाओं से आगे जाने से रोकने के लिए प्रत्येक तरह के कड़े प्रबंध किए हैं। इस उद्देश्य के लिए भारी संख्या में आंसू गैस का इस्तेमाल किया गया और रबड़ की गोलियां भी बरसाई गईं, उससे जहां सैकड़ों ही किसान घायल हुए, वहीं उनमें हरियाणा सरकार के इस व्यवहार के विरुद्ध भारी रोष भी पैदा हुआ। इसके विरुद्ध रोष प्रकट करने के लिए पंजाब के कई अन्य किसान संगठन भी आन्दोलनरत हो गए। उनकी ओर से रेलगाड़ियां रोकी गईं और कई स्थानों पर निश्चित समय के लिए टोल प्लाज़ाओं पर वसूली भी बंद करवा दी गई। अलग-अलग पार्टियों के नेताओं ने भी हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर की कड़ी निंदा की। चिरकाल से लम्बित अपनी मांगों के प्रति केन्द्र पर दबाव बनाने के लिए इन किसान संगठनों द्वारा भारत बंद का आह्वान भी किया गया, जिसका अधिक प्रभाव पंजाब में ही देखा गया है। गत सप्ताह भर से एक प्रकार से प्रदेश का जनजीवन प्रभावित ही रहा है। जहां जनसाधारण किसी न किसी रूप में इस आन्दोलन की ज़द में आया है, वहीं एक बार फिर प्रदेश के पहले ही सिसक रहे व्यापार तथा उद्योग को भी और धक्का लगा है और क्षरण होना शुरू हो गया है। 
हरियाणा की सीमा पर किसानों के इकट्ठे होने से पहले और बाद में भी केन्द्रीय मंत्रियों ने संबंधित किसान संगठनों के नेताओं के साथ लम्बी और विस्तारित बैठकें की हैं, परन्तु अभी तक फसलों के लाभकारी समर्थन मूल्य और किसानों की अन्य मांगों का कोई ठोस हल सामने नहीं आया। इससे पंजाब में और खास तौर पर किसानों में बेचैनी और गुस्सा बढ़ना लाज़िमी है। यह बात भी देखने वाली है कि दर्जनों ही किसान यूनियनों में एकता की अभी भी बेहद कमी नज़र आ रही है। अपने-अपने तौर पर चलाए जाने वाले आंदोलन बड़ी मज़बूती नहीं पकड़ सके, इसलिए किसान संगठनों को जागरूक होने की आवश्यकता है। इस मामले के प्रति पंजाब सरकार का अपना एजेंडा है, जिसकी परतें खुलनी शुरू हो गई हैं। इसी कारण ही बहुत-से विपक्षी दलों और नेताओं द्वारा इसको निशाने पर लिया जाने लगा है। नि:संदेह पैदा हुए ऐसे हालात का आने वाले लोकसभा चुनावों पर भी बड़ा असर देखा जा सकेगा। इसके दृष्टिगत सभी दलों ने अपनी-अपनी नीति बनानी शुरू कर दी है। देखने वाली बात यह भी होगी कि ऐसे हालात में किसान आंदोलन किस तरह का रूप धारण करेगा, इसके साथ पंजाब का भविष्य भी जुड़ा नज़र आता है।

—बरजिन्दर सिंह हमदर्द