बार-बार क्यों आन्दोलित होते हैं किसान?

केन्द्र सरकार ने हाल ही में किसानों के मसीहा कहे जाने वाले चौधरी चरण सिंह और भारत में हरित क्रांति के जनक एम.एस. स्वामीनाथन को भारत रत्न देने की घोषणा की थी लेकिन उन्हीं स्वामीनाथन की सिफारिशों को लागू नहीं करने को लेकर किसान एक बार फिर बड़े आंदोलन के लिए सड़कों पर हैं। इससे पहले किसानों ने सरकार द्वारा उनकी मांगें माने जाने की घोषणा के बाद 21 नवम्बर 2021 को 378 दिन तक चला अपना आंदोलन खत्म किया था लेकिन सवा दो वर्ष बाद यदि वे एक बार फिर सड़कों पर हैं तो उसके कारणों की पड़ताल करना ज़रूरी है। किसानों का कहना है कि पिछले आंदोलन को वापस लेते समय सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर गारंटी का जो वादा किया था, वह अभी तक पूरा नहीं हुआ है। दरअसल एमएसपी, जो खुले बाज़ार में फसलों के मूल्य में होने वाले उतार-चढ़ाव से किसानों को सुरक्षा देने के लिए ज़रूरी है, किसानों के लिए हमेशा से ही एक संवेदनशील मुद्दा रहा है लेकिन सरकार द्वारा किसानों के समक्ष किए गए वायदों को दो साल से ज्यादा समय बीत जाने के बाद भी इस दिशा में कोई प्रगति नहीं होते देख किसान संगठनों ने एक बार फिर अपनी मांगें पुरजोर तरीके से दिल्ली तक पहुंचाने के लिए आंदोलन शुरू किया है। एमएसपी किसानों की बहुत पुरानी मांग है और उनका यह कहना गलत नहीं माना जा सकता कि जिन एम.एस. स्वामीनाथन को केंद्र सरकार ने भारत रत्न से नवाज़ा है, वह स्वयं एमएसपी देने की सिफारिश कर चुके हैं और स्वामीनाथन का सम्मान तो तभी होता, जब उनकी सिफारिशों के अनुरूप किसानों को एमएसपी दे दिया जाता।
भारतीय किसानों का इतिहास संघर्षों और आंदोलनों से भरा हुआ है। अपनी समस्याओं के समाधान के लिए उन्होंने सदैव आंदोलन का रास्ता अपनाया और 2020-2021 का किसान आंदोलन इस बात का प्रमाण था कि किसान अपनी आवाज बुलंद करने के लिए बड़े पैमाने पर एकजुट हो सकते हैं। वैसे आजादी से पहले किसानों ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ भी कई आंदोलनों में भाग लिया था लेकिन आजादी के बाद भी किसानों को अपनी समस्याओं के लिए आंदोलन का रास्ता अपनाना पड़ा है। 1960 के दशक में शुरू हुई हरित क्रांति के कारण भारतीय कृषि में क्रांतिकारी बदलाव आए। उस क्रांति के कारण खाद्य उत्पादन में बढ़ोत्तरी हुई, जिसके परिणामस्वरूप गरीबी और भुखमरी में कमी आई लेकिन हरित क्रांति का लाभ सभी किसानों को नहीं मिला और छोटे तथा सीमांत किसान पीछे रह गए। इसीलिए भारत के किसानों के लिए कृषि को एक उन्नत उद्योग की तर्ज पर विकसित किया जाना आज सबसे बड़ी ज़रूरत बन चुकी है। 2020 में केंद्र सरकार द्वारा पारित तीन कृषि कानूनों के विरोध में किसान बड़े पैमाने पर सड़कों पर उतरे थे। दरअसल किसानों का मानना था कि ये कानून उन्हें बड़े कॉरपोरेट घरानों के हाथों में बेच देंगे। किसानों की एकता और शक्ति के प्रतीक बने उस आंदोलन ने देश में कृषि और किसानों की समस्याओं पर बहस को जन्म दिया था और आखिरकार केंद्र सरकार को तीनों कृषि कानूनों को रद्द करने पर विवश होना पड़ा था लेकिन किसानों की समस्याएं अभी भी जस की तस हैं।
2020-21 में संयुक्त किसान मोर्चा के नेतृत्व में तीन कृषि कानूनों के विरोध में 40 किसान संगठनों और जत्थेबंदियों ने लम्बा आंदोलन किया था, जिसमें लंबे संघर्ष के बाद उन्हें सफलता भी मिली थी जबकि इस बार किसान मजदूर मोर्चा के नेतृत्व में कई किसान संगठनों ने अपनी बारह सूत्री मांगें रखी हैं, जिनमें स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के आधार पर सभी फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य किसानों को मिले, बिजली संशोधन विधेयक-2020 को खत्म किया जाए, भूमि अधिग्रहण कानून 2013 दोबारा लागू किया जाए, लखीमपुर खीरी में किसानों की हत्या करने वाले अपराधियों को कठोर सजा मिले, कृषि ऋण माफ किए जाएं, इत्यादि प्रमुख हैं। सरकार ने पिछले किसान आंदोलन के दौरान कृषि कानूनों को वापस लेने के साथ-साथ किसानों से कई वादे किए थे और फसलों के लिए एमएसपी की कानूनी गारंटी देने पर विचार करने के लिए समिति बनाने का भी वादा किया था। घोषणा के करीब 8 महीने बाद इसके लिए एक समिति का गठन भी कर दिया गया था लेकिन कोई नहीं जानता कि इतने समय बाद भी इस मामले में कोई प्रगति हुई अथवा नहीं। 
किसान संगठनों का आरोप है कि सरकार केवल समय बर्बाद कर रही है और उन्हें अपनी मांगों के पूरा होने को लेकर सरकार की प्रतिबद्धता के बारे में संदेह है। ऐसे में यह सवाल भी काफी गंभीर है कि यदि प्रधानमंत्री ने कृषि कानूनों को वापस लेते समय एमएसपी कानून बनाने का आश्वासन दिया था तो उस दिशा में इतने लम्बे समय तक भी कार्य क्यों नहीं किया? आखिर किसानों के पिछले आंदोलन के बाद सरकार के साथ हुए समझौते में बनी सहमतियों को जमीन पर उतारने को लेकर कोई गंभीरता क्यों नहीं दिखी? यही कारण है कि किसान संगठनों ने एक बार फिर शांतिपूर्वक तरीके से दिल्ली कूच कर दिया। हालांकि किसान आंदोलन की टाइमिंग को लेकर सवाल उठाए जा रहे हैं कि लोकसभा चुनाव से ठीक पहले ही आन्दोलन क्यों शुरू किया गया? इस बारे में किसान संगठनों का स्पष्ट कहना है कि यह उन वादों को पूरा करने के लिए दबाव बनाने का सही समय है और एक प्रकार से इसे एक रणनीतिक कदम माना जा सकता है। किसानों का कहना है कि सरकार ने उनसे दो साल पहले जो वादे किए थे, उन्हें अब तक पूरा नहीं किया है, इसीलिए इस आंदोलन के जरिये वे सरकार को उसके वादे याद दिलाना चाहते हैं।
हालांकि दिल्ली में घुसने से रोकने के लिए हरियाणा के तमाम बॉर्डरों की भारत-पाकिस्तान बॉर्डर की भांति जबरदस्त किलेबंदी करने के साथ ही जिस प्रकार शंभू बॉर्डर पर किसानों पर ड्रोन के जरिये भी आंसू गैस के गोले दागे गए, उन पर रबड़ की बुलेट दागी गईं, उससे सरकार ने अपनी संवेदनहीनता का परिचय देते हुए कुछ ऐसा माहौल बना दिया है, मानो किसान इस देश के नागरिक न होकर दुश्मन देश के सैनिक हों। संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों के तहत देश के अन्नदाताओं को सौहार्दपूर्ण तरीके से अपनी बात रखने का मौलिक हक है और पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने भी सरकार द्वारा की गई अभूतपूर्व किलेबंदी पर चिंता जताते हुए उनके मौलिक अधिकारों की वकालत की है। हाईकोर्ट ने सही ही कहा है कि कानून-व्यवस्था बनाए रखी जाए और बल का इस्तेमाल आखिरी उपाय के तौर पर हो। सरकार ने किसानों को रोकने के लिए जिस तरह से सड़क पर बड़ी-बड़ी बेहद नुकीली कीलें ठोंकने, कंटीले तार लगाने, सीमेंट और भारी पत्थरों से बैरिकेडिंग तथा अन्य बाधाएं खड़ी करने जैसे उपाय किए हैं, उसे सरकार द्वारा लोगों के विरोध प्रदर्शन के मौलिक अधिकार को बाधित करने के रूप में देखा जा रहा है।
एक ओर कृषि प्रधान देश भारत में किसानों को ‘धरती का भगवान’ और ‘अन्नदाता’ कहा जाता है, दूसरी ओर ड्रोन जैसी आधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल उसी अन्नदाता पर आंसू गैस के गोले फैंकने के लिए किया जाता है, तो इसे एक विडम्बना ही कहा जाएगा किसानों के विरोध को दबाने के लिए दिल्ली की सीमा को इस कदर सील किया गया है, मानो वहां अब बारूदी सुरंग बिछाना ही बाकी रह गया है। देश के अन्नदाताओं के विरुद्ध बल प्रयोग किसी भी लोकतांत्रिक सरकार का अभीष्ट नहीं हो सकता। एक स्वस्थ लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसी को भी अपने वाजिब मुद्दों के लिए विरोध जताने या प्रदर्शन करने का अधिकार है। यदि किसान संगठन शांतिपूर्ण और लोकतांत्रिक तरीके से अपनी बात दिल्ली में अपनी ही चुनी हुई सरकार के समक्ष रखना चाहते हैं तो इसमें गलत क्या है और उन्हें इस तरह की बाधाएं खड़ी करके क्यों रोका जाना चाहिए? हालांकि यहां जिम्मेदारी किसान संगठनों की भी है कि उनके आंदोलन के चलते न तो कानून-व्यवस्था बिगड़ने की स्थिति उत्पन्न हो और न ही आम जनता के समक्ष मुश्किलें पैदा हों।

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