राजनीति की शतरंज

उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के साथ मिल कर चुनाव लड़ने के लिए प्रदेश की 80 सीटों में से 17 पर चुनाव लड़ने तथा शेष 63 सीटें समाजवादी पार्टी को छोड़ने पर ही कांग्रेस को सन्तोष करना पड़ा है। कभी दशकों पहले उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की तूती बोलती थी, परन्तु धीरे-धीरे गांधी-नेहरू परिवार का यह मज़बूत किला ध्वस्त होना शुरू हो गया था। पहले समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव कांग्रेस को 11 सीटें देने के लिए ही तैयार हुए थे, परन्तु बाद में प्रियंका गांधी वाड्रा के हस्तक्षेप करने के उपरांत यह मामला हल हो गया। इन कम सीटों पर ही सन्तोष करना हम कांग्रेस की समझदारी समझते हैं, क्योंकि उसे राजनीतिक वास्तविकता का पता चल चुका है। 
दूसरी तरफ कुछ राज्यों में सक्रिय आम आदमी पार्टी के साथ भी कांग्रेस समझौता करने की बड़ी इच्छुक रही है। चाहे पंजाब के कांग्रेसी नेताओं ने इस संबंध में अपनी हाईकमान की पेश नहीं जाने दी, परन्तु समाचारों के अनुसार दिल्ली, हरियाणा, गुजरात, गोवा एवं चंडीगढ़ में उसका आम आदमी पार्टी के साथ समझौता सफल होने वाला है। दिल्ली राज्य की 7 सीटों में से 3 पर कांग्रेस तथा 4 सीटों पर आम आदमी पार्टी चुनाव लड़ेगी, परन्तु इन दोनों ही पार्टियों को राष्ट्रीय राजधानी में भाजपा के साथ कड़ा मुकाबला करना पड़ेगा, क्योंकि इस समय लोकसभा की सभी 7 सीटें भाजपा के पास हैं।
चाहे पश्चिमी बंगाल में ममता बैनर्जी ने स्पष्ट रूप से कांग्रेस के साथ भागीदारी के स्थान पर स्वयं अकेले चुनाव लड़ने की घोषणा की है तथा केरल में भी वामपंथी पार्टी के साथ इसका समझौता होना मुश्किल प्रतीत होता है, परन्तु कांग्रेस हाईकमान अभी भी यह यत्न कर रही है कि वह इन दोनों राज्यों में किसी न किसी रूप में और किसी भी शर्त पर सीटों संबंधी समझौता कर ले। कांग्रेस मध्य प्रदेश की 29 सीटों में से समाजवादी पार्टी को एक सीट देगी एवं शेष सीटों पर स्वयं चुनाव लड़ेगी। इसी तरह झारखंड में पिछले लोकसभा चुनावों के दौरान कांग्रेस एवं झारखंड मुक्ति मोर्चा ने साथ मिल कर चुनाव लड़े थे तथा इस बार भी ऐसी ही सम्भावनाएं दिखाई देती हैं। बड़ा एवं कड़ा मुकाबला बिहार में होने जा रहा है, जहां ‘इंडिया’ गठबंधन के सूत्रधार मुख्यमंत्री नितीश कुमार अपना पाला बदल कर भाजपा के साथ जा मिले हैं, परन्तु बिहार में अभी भी लालू प्रसाद के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनता दल का बड़ा आधार बना हुआ है। इसलिए कांग्रेस, वामपंथी पार्टियों तथा तेजस्वी यादव के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनता दल के साथ मिल कर चुनाव लड़ने के लिए समझौता कर रही है। जम्मू-कश्मीर में नैशनल कान्फ्रैंस के प्रमुख फारूख अब्दुल्ला ने यह स्पष्ट रूप में बयान दिया था कि उनकी पार्टी चुनावों में कांग्रेस के साथ गठबंधन नहीं करेगी, परन्तु कांग्रेस फारूख अब्दुल्ला के साथ किसी न किसी तरह ऐसा समझौता करने के लिए यत्न कर रही है। इसलिए कांग्रेस ने वादी में लोकसभा की 6 सीटों में से 3 सीटें फारूख अब्दुल्ला की पार्टी को देने की पेशकश की है।
पिछले समय में महाराष्ट्र की राजनीति में भी व्यापक स्तर पर उथल-पुथल होती रही है, खास तौर पर शिव सेना का टुकड़ों में बंट जाना तथा नैशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी का टूट जाना महत्त्वपूर्ण बाते हैं, परन्तु कांग्रेस के पास शिव सेना के उद्धव गुट के साथ तथा शरद पवार  के पास शेष रह गई नैशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी के साथ समझौता करने के बिना और कोई विकल्प दिखाई नहीं दे रहा। तमिलनाडू में अभी तक डी.एम.के. एवं कांग्रेस का मज़बूत आधार बना दिखाई देता है। वर्ष 2019 में डी.एम.के., वापमंथी पार्टियों तथा कांग्रेस ने मिल कर 39 में से 38 सीटों पर जीत हासिल की थी। इस बार भी इस गठबंधन के बने रहने की पूरी सम्भावना है। ऐसे यत्नों से यह राष्ट्रीय पार्टी अपनी डावांडोल होती नाव को स्थिर करने का यत्न ज़रूर कर रही है। हम इसे समय के अनुसार कांग्रेस की ओर से अपनाई परिपक्व सोच एवं दृष्टिकोण मानते हैं। ऐसे यत्न  उसके लिए कारगर भी सिद्ध हो सकते हैं परन्तु इस समय देखने वाली बात यह होगी कि वह चुनावों में  रह गये कम समय में राष्ट्रीय स्तर पर नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में बेहद मज़बूत हो चुकी भाजपा का किस योजना एवं ढंग-तरीके से मुकाबला कर सकेगी।

—बरजिन्दर सिंह हमदर्द