भारत में चुनावों के लिए पब्लिक फंडिंग बड़ी चुनौती क्यों ?

पारदर्शिता से समझौता नहीं किया जा सकता। इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने इलेक्टोरल बांड्स को सर्वसम्मति से असंवैधानिक घोषित करके वास्तव में चुनावी फंडिंग में पारदर्शिता के सिद्धांत को ही बरकरार रखा है। इस निर्णय से चुनावी फंडिंग पूरी तरह से तो एक नंबर में नहीं आ सकेगी, लेकिन इसे एक अच्छी शुरुआत कहा जा सकता है। दरअसल, चुनावी फंडिंग के किसी भी कानूनी फ्रेमवर्क में दो आवश्यक सिद्धांत होने चाहिए। एक, लोकतंत्र में मतदाता सबसे महत्वपूर्ण स्टेकहोल्डर्स होते हैं। दूसरा यह कि सार्वजनिक भलाई और राजनीतिक दल की प्राथमिकताओं के बीच हित के टकराव में सार्वजनिक भलाई को वरीयता मिलनी चाहिए। बहरहाल, इसके बावजूद चुनावी फंड्स में पारदर्शिता लाना व काले धन को नियंत्रित करना (दल की आय, प्रचार फंड्स व खर्च) भारत सहित दुनियाभर के लोकतंत्रों में सबसे बड़ी चुनौती है। स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव के विचार के लिए ज़रूरी है कि वोटर को मालूम हो कि पार्टी या प्रत्याशी के पास पैसा कहां से आ रहा है और उसे किस तरह खर्च किया जा रहा है?
इस पृष्ठभूमि में यह प्रश्न प्रासंगिक है कि अब जब इलेक्टोरल बांड्स को गैर-कानूनी घोषित कर दिया गया है तो भारत में चुनावी फंडिंग का ऐसा कौन-सा मॉडल अपनाया जाये जो पारदर्शी हो, काले धन को नियंत्रित करता हो और मतदाताओं के अधिकारों को भी सुरक्षित रखने में सक्षम हो? राजनीतिक पार्टियां अपने सदस्यों, नागरिकों, यूनियनों, निजी दानकर्ताओं, ट्रस्ट्स, कम्पनियों आदि से चुनावी फंड्स एकत्र करती हैं। इनमें से कम्पनियों से मिलने वाला फंड सबसे विवादित है, न केवल भारत में बल्कि संसारभर में। यही कारण था कि दशकों पहले भारत ने कुछ समय के लिए कॉर्पोरेट दान पर प्रतिबंध लगा दिया था। चिंता यह थी (जो अब भी है) कि कम्पनियां राजनीतिक दलों के खजाने व राजनीतिज्ञों की जेब भर देती हैं और फिर नीतियों पर अनुचित दबाव बनाती हैं, बल्कि यह कहना अधिक दुरुस्त होगा कि अपने हक में नीतियां बनवा लेती हैं और फिर दिए गये दान से कई गुना अधिक जनता से वसूल करती हैं। 
फलस्वरूप सारा बोझ मतदाता या जनता पर ही पड़ जाता है। लेकिन कॉर्पोरेट दान पर प्रतिबंध का एक दूसरा पहलू यह है कि लेन-देन भूमिगत या अंडर द टेबल चला जाता है। साथ ही कॉर्पोरेट दान के संदर्भ में जो नियम बनाने व अधिकतम की सीमा निर्धारित के प्रयास किये गये उनमें पारदर्शिता न लायी जा सकी।
इसलिए यूरोप के अनेक देशों और अमरीका के अनेक राज्यों में राज्य द्वारा चुनाव को फण्ड किया जाता है। चूंकि राज्य ही राजनीतिक पार्टियों व प्रत्याशियों को चुनाव लड़ने के लिए फंड करता है, इसलिए अनेक देशों, विशेषकर यूरोप में महिला प्रतिनिधित्व को प्रोत्साहित करने व मतदाता को जागरूक बनाने के लिए इंसेंटिव (प्रोत्साहन राशि) दिया जाता है। स्कॉटलैंड में अपंगों की राजनीतिक हिस्सेदारी बढ़ाने के लिए राज्य इंसेंटिव प्रदान करता है। भारत में, विधि आयोग ने अपनी 255वीं रिपोर्ट में कहा था कि चुनावी फंडिंग में अपारदर्शिता, बड़े दानकर्ताओं द्वारा सरकार को ‘कैप्चर’ करने जैसा है। चुनावी दान भ्रष्टाचार का बड़ा स्रोत है। इस भ्रष्टाचार पर विराम इसी तरह से लग सकता है कि एक राष्ट्रीय चुनावी कोष का गठन किया जाये, जिसमें सभी दान कर सकते हैं। इस फंड को सभी राजनीतिक दलों में उन्हें मिलने वाले वोटो के अनुपात में वितरित कर देना चाहिए। इससे दानकर्ताओं की पहचान भी सुरक्षित रहेगी और राजनीतिक चंदे में काले धन पर भी विराम लगेगा।
लेकिन अनेक अध्ययनों में यह बात सामने आयी है कि भारत में चुनावों की सार्वजनिक फंडिंग बहुत बड़ी चुनौती है। समस्या हमारे राजनीतिक दलों और हमारी राजनीतिक व्यवस्था में है। चूंकि अधिकतर दलों में अंतर-दलीय लोकतंत्र है ही नहीं या दिखावे का है, इसलिए राज्य के फंड्स पार्टी नेतृत्व के नियंत्रण में रहेंगे, बजाय इसके कि प्रत्याशी के स्तर तक पहुंचें। फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट (सर्वाधिक मत प्राप्त व्यक्ति की विजय) प्रणाली में चुनाव, विशेषकर लोकसभा के, अत्यधिक केंद्रित हो जाते हैं। ऐसे में मत हिस्सेदारी आधार पर फंड्स का आवंटन न्यायपूर्ण न हो सकेगा और बड़ी राष्ट्रीय पार्टियों को अधिक फंड मिल जायेगा। अपने मत को ‘प्रभावी’ बनाने के लिए मतदाता उसे पार्टी के पक्ष में मतप्रयोग कर बैठते हैं जिसको वह जीता हुआ अनुमानित कर लेते हैं, भले ही उनका वास्तविक समर्थन किसी छोटी क्षेत्रीय पार्टी के लिए हो। फिर सबसे ज्यादा नुकसान आज़ाद उम्मीदवारों का होता है कि राज्य या राष्ट्रीय स्तर पर उनके पास इतना वोट नहीं होता कि स्टेट फंड्स हासिल कर सकें। इसके अतिरिक्त स्टेट फंड्स कॉर्पोरेट से अवैध दान की समस्या का भी समाधान नहीं कर सकते।
अमरीका में फेडरल इनकम टैक्स फॉर्म के जरिये करदाताओं से मालूम किया जाता है कि क्या वह अपने कर में से 3 डॉलर राष्ट्रपति चुनाव अभियान फंड में देना चाहेंगे? अगर करदाता ‘हां’ पर टिक कर देता है तो 3 डॉलर फंड में चले जाते हैं। यह पब्लिक फंडिंग प्रोग्राम का एकमात्र स्रोत है, लेकिन बामुश्किल 4 प्रतिशत करदाता ही ‘हां’ पर टिक करते हैं। प्रत्याशियों की भी इस फंड में कोई खास दिलचस्पी नहीं होती है क्योंकि उन्हें अन्य स्रोतों से बहुत मोटा पैसा मिलता है। गौरतलब है कि 2010 में सिटीजन्स यूनाइटेड बनाम फेडरल इलेक्शन कमीशन मामले में ऐतिहासिक व विवादित अदालती फैसला आया था जिसके तहत अब सरकार कॉर्पोरेट द्वारा चुनावी फंडिंग पर पाबंदियां लगाने के लिए नियम नहीं बना सकती। इस वजह से अब प्रत्याशियों के पास फंड्स के अनेक स्रोत हैं जैसे पोलिटिकल एक्शन कमेटी (पीएसी), सुपर-पीएसी, समाज कल्याण गुट, राष्ट्रीय, राज्य व स्थानीय पार्टी कमेटियां, लॉबिस्टस, व्यक्तिगत दान आदि। इनसे बहुत मोटा पैसा मिलता है, इसलिए स्टेट फंड्स की ओर खास ध्यान नहीं दिया जाता है।
बहरहाल, जर्मनी में जो स्टेट फंडिंग का मॉडल अपनाया गया है उसे फिलहाल सबसे अच्छा व उचित समझा जा रहा है। इस मॉडल में पार्टी की आय का केवल 50 प्रतिशत तक ‘मैचिंग ग्रांट’ राज्य से आता है। पार्टी का अंतिम चुनाव (यूरोपियन, राष्ट्रीय व क्षेत्रीय) में वोट शेयर कितना रहा के हिसाब से स्टेट फण्ड दिया जाता है। वोट शेयर बढ़ने के साथ दर भी बढ़ा दिया जाता है, लेकिन इसकी एक ऊपरी सीमा है, जिससे आगे नहीं बढ़ा जा सकता। प्राइवेट व कॉर्पोरेट दान पर कोई सीमा नहीं है, लेकिन पब्लिक फण्ड प्राइवेट फण्ड से अधिक नहीं हो सकता, जिसे पार्टी खुद हासिल करती है। हाई वैल्यू फण्ड को तुरंत रिपोर्ट करना होता है। 
स्टेट फण्ड एक चुनाव से दूसरे चुनाव तक किस्तों में दिया जाता है जो दोनों पार्टी प्रबंधन व चुनाव के लिए प्रयोग किया जा सकता है। अगर किसी छोटी पार्टी को पिछले चुनाव में 5 प्रतिशत वोट मिले हैं तो उसे भी स्टेट फण्ड मिलता है। लेकिन जनवरी में उच्चतम न्यायालय ने एक अति दक्षिणपंथी पार्टी को इसलिए स्टेट फण्ड से रोक दिया कि वह जर्मन लोकतंत्र को नुकसान पहुंचा रही थी। जर्मनी का मॉडल इस लिहाज से अच्छा है कि इससे पार्टियों की कॉर्पोरेट दानकर्ताओं पर निर्भरता कम हो जाती है। लेकिन लाख टके का सवाल यह है कि क्या यह मॉडल अपने देश में काम कर सकेगा, जहां मतदाताओं को अपने वोट के बदले में त्वरित लाभ की चाहत रहती है?

 -इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर