आपसी एकता के बिना किसान आन्दोलन को सफलता मिलना सम्भव नहीं

रात को रात ही इस 
बार कहा है हम ने,
हम ने इस बार भी
तौहीन-ए-अदालत नहीं की।
सलीम कौसर का यह शे’अर मैं नीचे लिखे जा रहे सत्य के बारे लिख रहा हूं। लोकसभा चुनाव सिर पर हैं और किसान आन्दोलन जिस पड़ाव में से गुज़र रहा है, वह यह प्रभाव दे रहा है कि किसान संगठनों में एकता किए बिना किसानों के कुछ संगठनों की ओर से मोर्चा लगा देना किसानों तथा पंजाब का कुछ संवार नहीं रहा, अपितु पहले मोर्चे की सफलता में प्राप्त की गई शान व सामर्थ्य पर भी प्रश्न-चिन्ह खड़े करने का अवसर दे रहा है। चाहे जिन किसान संगठनों ने मोर्चा लगाया है, उनकी नीयक पर सवाल खड़े करना तो ठीक नहीं, परन्तु यह ज़रूर है कि आप जब कोई संघर्ष या मोर्च शुरू करते हैं, तो सबसे पहले आपको अपनी पूरी ताकत तथा साधन इकट्ठा करने चाहिएं। फिर आपको अपनी ताकत का मूल्यांकन करना चाहिए और अपनी ताकत के मुकाबले विरोधी की ताकत तथा संभावित रणनीतियों का भी लगभग ठीक तथा सटीक अनुमान लगा कर ही कोई रणनीति बनानी चाहिए, परन्तु इस मामले में इस बार मोर्चा लगाने वाला पक्ष चूका ही नहीं अपितु उसने अपनी ताकत का अनुमान भी नहीं लगाया और पूरी ताकत को इकट्ठा करने की कोई बड़ी कोशिश भी नहीं की प्रतीत होती। चलो, जो हुआ सो हुआ। विचारणीय बात है कि अब किया क्या जाए ताकि पंजाबियों तथा किसानों की शान बहाल रखी जा सके। 
हम समझते हैं कि अधिक ज़िम्मेदारी मोर्चा लगाने वाले पक्ष की है। कोई भी लड़ाई चाहे वह जन मोर्चा हो या युद्ध का मैदान, कभी भी सीधे आगे बढ़ कर जीत नहीं प्राप्त की जा सकती। प्रत्येक लड़ाई में सिद्धांत होता है कि दो कदम आगे, एक कदम पीछे। हम समझते हैं कि इस समय एक कदम पीछे हटने का समय है। शीघ्र ही लागू होने वाली चुनाव आचार संहिता पीछे हटने का बड़ा कराण हो सकती है, परन्तु यहां नोट करने वाली बात यह है कि दिल्ली कूच वाले पक्ष को मोर्चे से अलग तौर पर विचरण कर रहे संयुक्त किसान मोर्चा तथा बी.के.यू. एकता उग्राहां के काडर को आवाज़ें के स्थान पर इन संगठनों के नेताओं को मोर्चे में शामिल होने के लिए तथा हालात पर विचार-विमर्श करने के लिए निमंत्रण देना चाहिए और एक संयुक्त नेतृत्व का निर्माण करना चाहिए। इसमें ही उनका भला है और पंजाबियों  व किसानों का भी भला है। आगामी कुछ दिनों में चुनाव आचार संहिता लागू हो जाएगी तो सरकार के हाथ में मांग मानने की ताकत नहीं रहेगी। तब मोर्चा का स्वरूप क्या होगा, इसलिए यह अवसर है कि अपनी ताकत व्यर्थ गंवाने तथा आपसी मुकाबलेबाज़ी में पड़ने से बच कर आपसी साझ पर कम से कम न्यूनतम साझा कार्यक्रम बनाने की ओर ध्यान दिया जाए न कि एक-दूसरे पक्ष की गलतियों को उछाला जाए। किसान आन्दोलन की सफलता के लिए पिछली बार की तरह पंजाब तथा देश के अन्य गैर-कृषि वर्गों से संबंधित लोगों का भी साथ लिया जाए, नहीं तो सफलता मिलना सम्भव नहीं है। नौशाद अली के शब्दों में : 
ना ऐसी मंज़िलें होतीं 
ना ऐसा रास्ता होता,
संभल कर हम ज़रा चलते 
तो आलम ज़ेर-ए-पा होता।
(ज़ेर-ए-पा = पैरों के नीचे)
अकाली दल-भाजपा समझौता अभी अधर में 
हालांकि यह स्पष्ट है कि लोकसभा चुनावों में अकाली दल तथा भाजपा दोनों की नैया अपसी समझौते के बिना पार लगना कठिन है। पंजाब का भाजपा नेतृत्व यह समझ भी गया है। इसीलिए वह हाईकमान को समझौता करने के लिए भी कह रहा है, परन्तु जहां एक ओर समझौते के अनुमान लग रहे हैं, और कहा जा रहा है कि समझौता तो बस हो चुका है। सिर्फ एक सीट पर बात अटकी हुई है और साथ ही यह भी कहा जा रहा है कि सुखदेव सिंह ढींडसा की अकाली दल में वापसी भी भाजपा की इच्छा से हुई है, क्योंकि भाजपा से समझौते की बात सफल हो चुकी है, परन्तु हमारी जानकारी के अनुसार चाहे निम्न स्तर पर समझौते की कोई बात चल रही हो, परन्तु अभी तक अकाली दल के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल तथा गृह मंत्री अमित शाह या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बीच इस समझौते के लिए कोई भी बातचीत प्रत्यक्ष रूप में नहीं हुई जबकि समझौता तो उस समय ही सम्मपन होगा जब दोनों पक्षों के शीर्ष नेतृत्व के बीच सीधी बातचीत होगी। हमारी जानकारी के अनुसार भाजपा द्वारा 7 सीटों पर लड़ने की बात बिल्कुल ही अतिकथनी है। हां, भाजपा 6 सीटें मांग रही है और वह 5 पर समझौता करना चाहेगी जबकि अकाली दल 4 सीटें देने के लिए तैयार है। 
शाम तक सुबह की
 नज़रों से उतर जाते हैं,
इतने समझौतों पे जीते 
हैं कि मर जाते हैं।
(वसीम बरेलवी)
देश की राजनीति में सिखों की स्थिति 
देश की राजनीति में सिखों की स्थिति खराब तथा कमज़ोर होती जा रही है। इस बार भाजपा ने अभी तक किसी भी राज्य में किसी भी सिख को लोकसभा की टिकट नहीं दी जबकि ऐसा प्रतीत होता है कि पंजाब के अतिरिक्त किसी अन्य राज्य में अन्य पार्टियों की ओर से भी किसी सिख को उम्मीदवार बनाये जाने के आसार भी कम हैं। कांग्रेस शायद पंजाब से बाहर सिर्फ सिरसा सीट से एक सिख उम्मीदवार खड़ा करे जबकि पहले सिखों को बंगाल तथा अन्य राज्यों में राष्ट्रीय पार्टियां उम्मीदवार बनाती थीं और वे जीतते भी रहे हैं। इसलिए सिख नेतृत्व, शेष पार्टियों में मौजूद सिख नेताओं, हमारे धार्मिक रहनुमाओं तथा  बुद्धिजीवियों को अवश्य सोचना चाहिए कि सिखों को पंजाब से बाहर राजभाग में हिस्सेदार कैसे बनाया जाये और देश भर में सिखों की पहले जैसी शान कैसे बहाल की जा सकती है। 
पंजाब में अफीम की कृषि की बात
पंजाब विधानसभा में प्रदेश में अफीम की कृषि की वकालत की गई है और इसके पक्ष में आवाज़ उठाई गई है। हम समझते हैं कि किसी भी चीज़ के बारे में अधूरी जानकारी हानिकारक होती है। पंजाब सरकार इस बारे में सभी स्तर से जांच करने के लिए उच्चस्तरीय समिति बनाए जिसमें सिर्फ किसान ही नहीं अपितु सामाजिक, डाक्टरी व्यवसाय के विशेषज्ञ, आर्थिक विशेषज्ञ तथा अर्थशास्त्री भी शामिल किये जाएं। मुझे याद है कि मेरे बचपन के समय चीन में अफीम की कृषि खुली होती थी। चीन को अफीमचियों का देश कहा जाता था और चीन की आर्थिक हालत दयनीय थी। अब अफगानिस्तन का हाल हमारे सामने है। 
फिर 6 वर्ष पहले एक हिन्दी समाचार पत्र में प्रकाशित एक रिपोर्ट मेरे सामने है जो सिद्ध करती है कि अफीम की कृषि बहुत लाभदायक नहीं अपितु यदि सरकारी कानूनों के अनुसार की जाती है तो कई बार घाटे का सौदा भी बनती है। खैर, नोट करें, अफीम की कृषि सरकार के नियंत्रण में होने वाली कृषि है। जहां अफीम की कृषि होगी, वहां एक पुलिस चौकी भी बनेगी, जिससे मिलीभुगत से अफीम चोरी करके खुले बाज़ार में बेची जाएगी तो किसान कभी भी कानून का गुनहगार बन जाएगा और मुकद्दमों में फंस जाएगा, नहीं करेगा तो घाटे में ही जाएगा। सिर्फ सुनी-सुनाई बातों के आधार पर अफीम की कृषि जैसी बातें न की जाएं अपितु पहले इसके सभी पक्षों पर विचार-विमर्श किया जाये। जितना मैंने पढ़ा है, उसके अनुसार तो अफीम की कृषि पंजाब का संवारेगी कम, और बिगाड़ेगी अधिक। 
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