चुनावों पर मंडरा रहा कृत्रिम बुद्धिमत्ता का काला साया

भाजपा द्वारा 18वीं लोकसभा चुनावों के लिए जारी 195 उम्मीदवारों की पहली सूची में से उत्तर प्रदेश की बाराबंकी सीट के उम्मीदवार उपेंद्र रावत ने चुनाव लड़ने से इन्कार कर दिया है। दरअसल रावत को दोबारा टिकट मिलने के 24 घंटे के भीतर ही कई अश्लील वीडियो वायरल हुए और उनमें विदेशी महिलाओं के साथ अश्लील हरकतें कर रहे व्यक्ति को उपेंद्र रावत बताया गया। रावत ने इससे न सिर्फ साफ इन्कार किया है बल्कि उनके मुताबिक यह एडिटेड वीडियो कृत्रिम बुद्धिमत्ता (ए.आई.) तकनीक द्वारा उनके राजनीतिक कॅरियर को खत्म करने की साज़िश के तहत बनाया गया है। दरअसल यह अकेले भारतीय राजनेताओं का ही सिरदर्द नहीं है, अपितु अगले कुछ महीनों में होने जा रहे दुनिया के दर्जनों देशों में चुनावों के मद्देनजर यह समस्या सिर उठा रही है और हर जगह इसके लिए कृत्रिम बुद्धिमत्ता तकनीक पर ही अंगुलियां उठ रही हैं।, 
पिछले साल 30 नवम्बर, 2023 को तेलंगना में विधानसभा चुनावों के मतदान शुरू ही हुए थे कि एक वीडियो वायरल हुआ। सात सैकेंड के उस वीडियो में सत्तारूढ़ दल भारत राष्ट्र समिति पार्टी के मुखिया के.टी. रामाराव मुख्य विपक्षी कांग्रेस पार्टी को वोट देने की बात कह रहे थे। यह वीडियो कांग्रेस ने ही अपने एक अनधिकृत स्रोत से प्रसारित किया था। असली लगने वाला यह नकली डीपफेक वायरल वीडियो 5 लाख से ज्यादा बार देखा गया। मतदान आरंभ हो जाने के बाद भारत राष्ट्र समिति के पास वीडियो से होने वाले नुकसान का बचाव करने की संभावनाएं सीमित थीं जबकि तेलंगाना में भारत राष्ट्र समिति के साथ कांटे की टक्कर के बावजूद कांग्रेस आसानी से चुनाव जीत गई। 
 विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में भी मतदान होना है। ऐसे में डीपफेक्स किताब की लेखिका नीना शिक जो जनरेटिव आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की विशेषज्ञा भी हैं, उनका यह कहना महत्वपूर्ण है, ‘इस बार चुनावों में प्रचार का तरीका ही नहीं बल्कि उसके संदेश भी बदल जाएंगे। कृत्रिम बुद्धिमत्ता के इस्तेमाल के बिना जनमत को व्यापक तौर पर प्रभावित करने वाला चुनाव अभियान मुश्किल होगा।’ कृत्रिम बुद्धिमत्ता की सहायता से सबके लिए अलग और व्यक्तिगत संदेश। लाखों मतदाताओं तक उनकी जाति, धर्म, शैक्षिक योग्यता, आयु और आयवर्ग तथा राजनीतिक, वैचारिक रुझानों और अन्य प्राथमिकताओं के आधार पर तय प्रोफाइल के अनुसार पर्सनल मैसेज। सही के साथ गलत और फर्जी सूचना संदेश। 
 विशेषज्ञों का आंकलन है कि भारत के आम चुनावों में कृत्रिम बुद्धिमत्ता से उपजे उपायों का इस्तेमाल दूसरे देशों से कहीं ज्यादा हो सकता है। भारत में कृत्रिम बुद्धिमत्ता की प्रगति भी प्रशंसनीय है। इंटरनेट और मोबाइल की पैठ आमजन तक गहरी है, राजनीतिक प्रचारकों के नैतिकताविहीन नीति के साथ ही उनके पास ढेरों अवैध धन और ऐसे स्रोत तथा मंच बहुतायत हैं, जहां दायित्वविहीन भ्रष्टाचार बहुविधि प्रचलित है। आम और बहुसंख्य मतदाता के पास भी तर्कशीलता का अभाव और सत्यान्वेषण के लिए समय तथा ऐसे रुझान की कमी है। सवाल और शंका की बजाए यहां मान लेने और अकर्मण्य आस्था की संस्कृति है। इसके अलावा भ्रम भंजन की भरोसेमंद व्यवस्थाएं भी बहुत कम हैं। 
तेज़ी से बदलते इस तकनीकी तरीके और परिदृश्य का चुनावी लाभ सभी उठाना चाहते हैं। इसकी मारक क्षमता का इस्तेमाल चुनावी प्रचारों में करने के लिए सरकार, संगठन और विपक्ष सभी समान रूप से इच्छुक हैं। पर्सनलाइज्ड, डीपफेक दृश्य श्रव्य संदेश बनाने और किसी विषय या मुद्दे पर जनमत बनाने के लिए उसे मिनटों में लाखों लक्षित प्रोफाइल वाले लोगों तक पहुंचाने की क्षमता इसे लोकतंत्र के लिए और घातक बनाती है। भले ही ओपन ए.आई., चुनाव आयोग और संबंधित आई.टी. मंत्रालय इस मामले में बयान देते रहें कि वे आम चुनावों में कृत्रिम बुद्धिमत्ता के दुरुपयोग से बचाने की भरपूर कोशिश करेंगे, परन्तु इसके बावजूद जैसे-जैसे हम आम चुनावों के करीब पहुंच रहे हैं, इस बाबत चिंता और चर्चा तेज़ होती जा रही है कि कृत्रिम बुद्धिमर्त्ता सियासी मुद्दों और जनता के रुझान को गलत तरीके प्रभावित कर इस लोकतंत्र के उत्सव में बड़ा खेल करने की आशंका कितनी है और क्या इससे बचा जा सकता है? 
राजनीतिक दल, डिजिटल तकनीक और कृत्रिम बुद्धिमत्ता का सकारात्मक प्रयोग भी कर सकते हैं। मतदाता का फोन घर दफ्तर हर जगह ऑन रहता है। अपने समर्थकों और संभावित मतदाताओं तक व्यापक और तेज़ पहुंच का यह बेहतर ज़रिया बन सकता है। भ्रमित या पहली बार मत देने वालों को अपनी विशेष सामग्री से उन्हें अपने पक्ष में प्रभावित कर, आकर्षित कर सकती हैं। पक्के समर्थकों की सूची बनाकर भारी चंदा उगाही कर सकती हैं। प्रचार में तकनीक का समावेश करने से जहां चुनावी खर्च बचेगा वहीं संभव है कि राजनीति में और ज्यादा लोग उतरें। इस तरह से डिजिडटल तकनीक, कृत्रिम बुद्धिमत्ता में चुनावी प्रक्रिया में अधिक समानता लाने और उसे समान अवसर वाले लोकतांत्रिक व्यवस्था बनाने की क्षमता भी है। ओबामा ने 2007 में चुनावों से पहले डिजिटल तकनीक के इस्तेमाल से कम खर्च, अल्प समय में अधिकतम मतदाताओं तक पहुंचने में सफल रहे थे, 2012 में उनकी जीत में भी इसके व्यापक प्रयोग का सकारात्मक हाथ था, लेकिन विगत डेढ़ दशकों के दौरान चुनावी अभियान में टेक्नोलॉजी की भूमिका बहुत बदल गई है। 
पाठ और चित्रों से सुसज्जित ऐसी सामग्री के बारे में मतदातओं के लिए यह पता लगाना मुश्किल होगा कि वह असली है या नकली। फेक कंटेंट से मतदाताओं को बचाने का कोई तरीका नहीं है। इससे मतदाता तो गुमराह होंगे ही, लोकतांत्रिक प्रक्रिया भी क्षतिग्रस्त होगी। किसी उम्मीदवार को उसकी छवि बिगाड़ने के फैलाई लिए गलत सूचनाएं रोकने में सोशल मीडिया मंचों के प्रयासों की असफलता देखते हुए कृत्रिम बुद्धिमत्ता के दुरपयोग के दीर्घकालीन दुष्प्रभावों की बात तो दूर फिलहाल ‘भ्रामक सूचना’ के तात्कालिक खतरों पर निगाह रखनी होगा। गूगल के पूर्व सीईओ एरिक श्मिट की बात को ध्यान में रखना चाहिए कि चुनावों के दौरान भ्रामक समाचारों, झूठी जानकारियों की बाढ़ आएगी। इसे रोकना कठिन है लेकिन ईमानदार कोशिश करनी होगी। कृत्रिम बुद्धिमत्ता के हमले से कृत्रिम बुद्धिमत्ता ही बचा सकती है।

-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर