महंगे होते नए ज़माने के विवाह

इन दिनों पूरी दुनिया में मुकेश अंबानी के दूसरे बेटे अनंत की शादी की चर्चा है। चर्चा का मुख्य विषय है शादी में हैरान करने वाला खर्च। अभी शादी नहीं हुई, सिर्फ शादी के पहले होने वाला प्री वेडिंग सेलिब्रेशनभर हुआ है और सेलिब्रेशन में जो पूरी दुनिया की मीडिया में में चर्चा हुई। बात अंबानी परिवार के विवाह की ही नहीं देश भर में अन्य लोगों द्वारा भी रिज़ार्टों में बहुत महंगे विवाहा किए जाते हैं। 
पिछले कई सालों से देश के कई समाज सुधारक यह कहने लगे हैं कि रिसोर्ट में शादियां नये जमाने की कुरीति है। विवाह शादी पर बुलाए गये लोगों द्वारा होते खुले खर्च की तरफ देखकर मध्यम लोग भी उनकी तरह करने लगते हैं। देखते ही देखते वह कज़र् के जाल में फंस जाते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि भारत में ज्यादा खर्च हमेशा से एक सामाजिक कुरीति के दायरे में रहा है। आजादी के बाद जब भारत में इस कदर गरीबी थी कि 30 से 40 प्रतिशत तक लोग नियमित रूप से भरपेट भोजन नहीं पाते थे, तब उन दिनों सिख धार्मिक नेताओं और पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान में प्रभावशाली खाप पंचायतें समाज सुधार के नाम पर सबसे पहले जिस गतिविधि को फिजूलखर्ची बताया करती थीं, वे कुछ और नहीं ये शादियां ही हुआ करती थीं। साल 1965 के बाद जब भारत को पाकिस्तान से एक और युद्ध लड़ना पड़ा और देश बड़े पैमाने पर अनाज संकट का शिकार था, उन दिनों शादियों के लिए सरकार की तरफ से गाइड लाइन बनायी गई थी, जिसके मुताबिक किसी भी शादी में 25 से ज्यादा मेहमान नहीं शामिल हो सकते थे। बाद में जैसे जैसे हमारी खेती की पैदावार और दूसरे क्षेत्रों में आर्थिक वृद्धि होने लगी, वैसे वैसे ये सामाजिक नियम अर्थहीन होता गया। 
भारत में शादियों का वार्षिक बाजार करीब 3 लाख 80 हजार करोड़ रुपये का है। वैसे अर्थव्यवस्था में कोई भी खर्च कभी भी नुकसानदायक नहीं होता, उससे कई लोगों को आर्थिक फायदे होते हैं और समाज में आर्थिक गतिविधियां बढ़ती हैं। मसलन शादियों में 30 प्रतिशत से ज्यादा खर्चा खानपान में होता है और इस खानपान की व्यवस्था में जितना कुछ खाया जाता है, उससे ज्यादा बर्बाद किया जाता है। इसलिए इस बर्बादी का फायदा किसी को नहीं होता। इसी तरह शादियों में 20 प्रतिशत खर्चा गिफ्ट आदि में होता है। यह खर्च भी अर्थव्यवस्था में क्योंकि ढेर सारे मिले गिफ्ट डंप हो जाते हैं, जिनका कोई उपयोग नहीं होता और सबसे बड़ी बात यह है कि शानोशौकत से भरी ऐसी शादियां देखकर दूसरे लोग भी इसी राह पर चलने को मजबूर हो जाते हैं। चाहे इसे उनकी अपनी सामाजिक हैसियत बनाये रखने की क्षमता कहें या कुछ और। लेकिन सच्चाई यही है कि ऐशो इश्रत से बनी ये शादियां उन लोगों के लिए गले का फंदा बन जाती हैं, जो इनको देखकर खुद भी ऐसा करने की सोचते हैं। 
भारतीय फिल्मों में होने वाली आलीशान शादियां इसी भारत, इस देश के मध्यवर्ग पर जबरदस्त दबाव और तनाव बढ़ाती हैं, क्योंकि इस वर्ग की नई पीढ़ी खुद भी ऐसी शादियां करना चाहती हैं, जिसका बोझ मां-बाप के साथ उन्हें भी लंबे समय तक उठाना पड़ता है। यह अकारण नहीं है। भारत में लिए जाने वाले सभी तरह के कर्जों में 80 प्रतिशत कर्ज अकेले शादियों के लिए जाते हैं। लोग अपनी जिंदगीभर की कमाई का 20 प्रतिशत से भी ज्यादा इन शादियों में खर्च कर देते हैं, जिनके पास ठीक ठाक आय होती है, उनको इसका काफी दबाव झेलना पड़ता है। भारतीय शादियों का सबसे ज्यादा असर सिर्फ  शहरों में ही नहीं, गांवों पर भी पड़ता है। जब शहरों में आम शादियां 4 से 5 लाख में हो जाती थीं, तब गांव में ऐसी शादियां 50 हजार से 1 लाख रुपये के बीच निपट जाती थीं। 
आज शहरी मध्यवर्ग को अपनी शादियों में औसतन 20 लाख रुपये खर्च करने पड़ते हैं जिस कारण गांव में होने वाली शादियों का खर्च भी औसतन 4 से 7 लाख तक हो गया है। अगर इस पैसे की सहजता से सबको व्यवस्था हो जाए तो भला महंगी शादियां क्यों कर नुकसानदायक हों? लेकिन हकीकत यह है कि तमाम जद्दोजहद करने के बाद भी 75 से 80 प्रतिशत लोग शादियों के लिए लोन लेते हैं, उधार लेते हैं और फिर जिंदगी का एक बड़ा हिस्सा इस लिए गए लोन को उतारने में लगा देते हैं। 
जिस तरह से आजकल शादी के पहले की महज एक रस्म में लाखों रुपये पानी की तरह बहाए गए हैं, उसे देखकर लगता है कि औसत आय वाले लोगों के लिए यह बहुत मुश्किल है।
 इसलिए निश्चित रूप से शादियों पर खर्च करने के ईमानदार और शासकीय दिशा निर्देश होने चाहिए ताकि न तो किसी की इच्छा में कोई कसक रह जाए और न ही मनमानी खर्च हो। इसलिए जरूरी है कि ऐसी शादियों के समागमों पर खर्च संबंधी कोई उचित पहुंच बनाई जाए और गरीब लोगों को भी विवाह पर खर्च करने के लिए फांसी न लेनी पड़े।                   

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