महिला की आज़ादी के खिलाफ नहीं है हमारी परम्परा

महिला दिवस सभी लोग मनाते हैं। जो स्वयं को नारीवाद का समर्थक नहीं कहते या जो महिलाएं नारीवाद से परहेज़ करती हैं— महिला दिवस वे भी मनाती हैं। इस मौके पर कुछ इस किस्म की बात होती है कि श्रमशक्ति में स्त्रियों की भागीदारी का प्रतिशत पुरुष के मुकाबले कैसे दुरुस्त किया जाए या किसी कम्पनी के बोर्ड रूम में स्त्रियों की नेतृत्वकारी भूमिका को कैसे निखारा जाए। हर बार की तरह इस बार भी स्त्रियों के सशक्तीकरण की बातें हुईं। इसके कुछ नये रूप भी सामने आये। जिनके तहत सरकार की तरफ से गैस सिलेंडर सस्ता करने से लेकर एक प्रतिष्ठित समाज-सेविका के राज्यसभा में नामांकन को विशेष प्रमुखता से पेश किया गया। लेकिन इन चर्चाओं में जो बात रह गई, वह औरतों की आज़ादी से जुड़े हुए विमर्श की है। ध्यान रहे कि जो लोग नारीवाद को नापसंद करते हैं, वे भी स्त्री-समर्थक चर्चाएं करते हुए ऐसी बहुत सी बातें करते हैं, जो नारीवादी विमर्श के ज़रिये प्रचलित हुई हैं। कुल मिला कर नारीवाद के विरोधी हों या समर्थक— उनके मानस पर इसी विमर्श की थोड़ी या पूरी छाप रहती है। 
आम तौर पर भारत में चलने वाले स्त्री-विमर्श पर भी पितृसत्ता की अवधारणा, न्यूकलियर फेमिली (लघु परिवार) और जेंडर की थियरी हावी रहती है। ये तीनों विमर्शी पहलू पश्चिमी नारीवाद की देन हैं। इनका सूत्रीकरण पश्चिमी विद्वानों ने युरोपीय समाजों के अनुभव की रोशनी में किया है। यही विमर्श आगे बढ़ कर अपना विस्तार सारे देश में परिवार, विवाह और उत्तराधिकार के लिए एक ही कानून (समान नागरिक संहिता) के आग्रह में करता है। चूंकि इस तरह की संहिता का वायदा संविधान में भी दर्ज है, इसलिए कुल मिलाकर ये सब बातें एक ऐसे विचार-चक्र का निर्माण कर देती हैं, जिसकी आलोचना पर आधुनिकता विरोध, दकियानूसीपन और पितृसत्ता के समर्थन की मुहर आसानी से लग जाती है। इन सवालों के इर्द-गिर्द होने वाली बहसों में स्त्रियों के साथ होने वाले अन्यायों का ठीकरा परम्परा और संयुक्त परिवार की भारतीय संरचना के दरवाज़े पर फोड़ दिया जाता है। निश्चित रूप से जीवन के हर क्षेत्र में स्त्री और पुरुष की बराबरी एक ऐसा आदर्श है जिसे लाज़िमी तौर पर हर समाज को हासिल करना चाहिए। लेकिन क्या पश्चिम से मिला यह विमर्श भारतीय समाज को इस उपलब्धि की तरफ ले जाने में सक्षम है?
हकीकत यह है कि परिवार, समाज और रिश्तों की जेंडर आधारित विचार-प्रणाली युरोपीय उपनिवेशवाद के साथ-साथ ही पनपी है। इसके केंद्र में जो लघु परिवार (कमाने वाले पति की सत्ता, उसकी मातहती में गृहस्थी संभालने वाली पत्नी और बच्चे) है वह उसे औद्यौगिक क्रांति के दौरान युरोप में उदीयमान पूंजीवाद द्वारा प्रोत्साहित किया गया था। लघु परिवार पर आधारित इस विमर्श के लिए स्त्री का मुख्य प्रारूप पत्नी, और पुरुष का मुख्य प्रारूप पति बन जाता है। इस लिहाज़ से पश्चिम की पितृसत्ता का मुख्य रूप पति-सत्ता है। इस परिवार में मां-बेटी-बहन बनाम पिता-भाई-बेटे के दो जेंडर हर समय एक-दूसरे के खिलाफ प्रतियोगिता करते दिखाए जाते हैं। परिणामस्वरूप पश्चिमी नारीवाद मान लेता है कि विवाह की संस्था ने स्त्रियों और पुरुषों को हमेशा-हमेशा के लिए शत्रुतापूर्ण अंतर्विरोध के लिए अभिशप्त कर दिया है। चूंकि युरो-अमरीकी न्यूक्लियर फेमिली की स्त्री को दब्बू, दुर्बल, नाज़ुक, अपनी देह और सेक्चुअलिटी पर अधिकार से वंचित, देखभाल और लालन-पालन में अपना जीवन गुज़ारने के लिए मज़बूर माना जाता है, इसलिए पश्चिमी नारीवाद की तरफ से इस पत्नी-स्त्री को पुरुष-पति की अधीनस्थता के मुख्त कराने को पहली प्राथमिकता दी जाती है। परिवार और समाज का यह प्रारूप पहले तो नारीवाद के लिए नस्ल और वर्ग जैसी श्रेणियों को अदृश्य कर देता है। इसके बाद वह सांस्कृतिक भिन्नता एवं भौगोलिक-ऐतिहासिक कारकों को नज़रअंदाज़ करते हुए युरो-अमरीकी श्वेत चमडी वाले दमित-उत्पीड़ित पत्नी-स्त्री के आईने में दुनिया की सभी औरतों को देखने में जुट जाता है।
इस विमर्श का रुतबा उपनिवेशित समाजों के विद्वानों पर इस कदर ़गालिब है कि वे जेंडर और पितृसत्ता की अवधारणाओं को प्रश्नांकित करने से परहेज़ करते हैं। वे एकदम शुरुआती किस्म का यह सवाल भी नहीं पूछना चाहते कि अगर जेंडर एक सामाजिक निर्मित है, तो हर समाज के लिए एक ही किस्म के जेंडर की निर्मित वैध कैसे हो सकती है? 
इसी तरह उसके आधार पर निर्मित स्त्री की श्रेणी सार्वभौम या युनिवर्सल कैसे हो सकती है? उसके उत्पीड़न के रूप सार्वभौम कैसे हो सकते हैं और उसकी समानता के लिए किया जाने वाले संघर्ष का मुख्य प्रारूप सार्वभौम कैसे हो सकता है? वे यह भी नहीं पूछना चाहते कि स्त्री के संदर्भ में जेंडर को ही एकमात्र श्रेणी की तरह क्यों ग्रहण किया जाना चाहिए? 
अब समय आ गया है कि हम जेंडर की इस वैचारिक कैद से निकल कर भारतीय समाज में घर-गृहस्थी के सहस्रों वर्ष पुराने अनुभवों और उनके आधार पर सूत्रबद्ध किये गये शास्त्रोक्त ज्ञान पर नज़र डालें। हमारे यहां एक सम्पूर्ण गृहस्थ वही माना गया है, जिसके भीतर तीन हस्तियां (गृहस्थ स्वयं, उसकी पत्नी या गृहस्थिन और उसकी संतान) एक साथ एकताबद्ध हों। यह विचार इशारा करता है कि प्राचीन भारत में घर-गृहस्थी का मतलब केवल पत्नी नहीं था, बल्कि पति और बच्चे भी उसमें विधेयक भूमिका निभाते थे। उपनिषदों और अन्य धर्मशास्त्रों ने गृहस्थी और जीवन के गृहस्थाश्रम नामक चरण को सर्वाधिक महत्वपूर्ण और केंद्रीय माना है। शास्त्र ब्रह्मचर्य और वानप्रस्थ को ग्रहस्थाश्रम के ऊपर प्राथमिकता नहीं देते। इसी तरह हमारे स्मृतिकार आठ अलग-अलग तरह के विवाहों की सिफारिश करते हैं। इनमें गंधर्व विवाह के लिए तो परिवार, पुरोहित और कर्मकांडों की मौजूदगी तक ज़रूरी नहीं है। यह विवाह आज के ज़माने के सहजीवन (लिव इन रिलेशनशिप) जैसा ही है।
 पश्चिम ने जिस पितृसत्ता के विचार को हम पर थोपा है, उसके कुछ रूप संख्यात्मक लिहाज़ से बहुत छोटे द्विज समाज में तो मिलते हैं, लेकिन ़गैर-द्विज और बहुसंख्यक समुदायों के घर-परिवारों में इस तरह की स्थिति नहीं देखी गई है। स्त्री के पत्नी-रूप पर अत्यधिक ज़ोर विमर्श के क्षेत्र में उसके मातृत्व वाले पहलू को उपेक्षित कर देता है। इसी तरह पुरुष के पति-रूप पर दिये जाने वाले ज़ोर के कारण पिता के रूप में उसकी भूमिका विमर्श से बाहर हो जाती है। इस तरह स्त्री-विमर्श में मातृत्व और पितृत्व पर पर्याप्त विचार किये बिना ही पितृसत्ता पर चर्चा चलती रहती है।
जोआना लिडिल और रमा जोशी ने अपने अध्ययन में दिखाया है कि कानून की हिंदू समझ ब्रिटिश समझ के मुताबिक नहीं थी। ब्राह्मणों के लिए तैयार की गई संहिताओं के अलावा जितने भी रिवाज़ी कानून थे— वे समय, संस्कृति, क्षेत्र और जातिगत सीमाओं के हिसाब से बदलते रहते थे। इसके विपरीत पश्चिमी कानून लिखित और संसद द्वारा सभी पर समान रूप से लागू होने वाला था। नतीजतन, पहले ईस्ट इंडिया कम्पनी और बाद में रानी विक्टोरिया का शासन ऊपर से तो यह कहता रहा कि वह हिंदू कानून में हस्तक्षेप नहीं करना चाहता, लेकिन व्यवहार में वारेन हेस्टिंग्ज़ ने 1772 में ही सभी हिंदुओं के लिए ब्राह्मणों पर लागू होने वाला कानून बाध्यकारी कर दिया। इससे हुआ यह कि कमज़ोर जाति की स्त्रियों पर भी वही बंदिशें लागू हो गईं, जो ऊंची जातियों की स्त्रियों पर लागू होती थीं। उनके समाज में भी तलाक पर रोक लग गई, शिशु विधवाओं तक के विवाह की मनाही हो गई, भूमि का स्वामित्व औरतों से छीन लिया गया। 1864 में उपनिवेशवादियों ने पंडितों से कानून की व्याख्या का अधिकार छीन कर उसका बचा-खुचा लचीलापन भी समाप्त कर दिया। इसके बाद पश्चिमी शिक्षा प्राप्त जजों को इस व्याख्या का अधिकार दे दिया गया, जो उदाहरणों के आधार पर कानून की समझ बनाने लगे। नतीजा यह निकला कि हिंदू कानून और भी अधिक सख्ती से अतीत के साथ बांध दिया गया। भारतीय स्त्री को सशक्त बनाने और परिवार के एक बेहतर रूप की खोज के लिए पश्चिमी विमर्श की जकड़ से बाहर निकलना और भारतीय परम्परा के नये सिरे से अध्ययन की आवश्यकता है।  
  
लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।