संविधान एवं नागरिकता संशोधन कानून की भावना

लोकसभा चुनावों से पूर्व नागरिकता संशोधन कानून 2019 को लागू करने की सरकारी घोषणा के बाद दिल्ली, असम एवं बंगाल आदि प्रदेशों से विद्यार्थियों एवं कुछ अन्य संगठनों की ओर से विरोध किये जाने के कुछ समाचार प्राप्त हुए हैं, परन्तु यह विरोध उस तरह का नहीं है, जिस तरह का विरोध देश के ज्यादातर भागों में उक्त कानून बनने के दौरान हुआ था। चार वर्ष पूर्व जब संसद में यह कानून पारित किया गया था, उस समय तो देश भर में स्थान-स्थान पर भारी रोष प्रदर्शन के समाचार आये थे। इसे लेकर फैली गड़बड़ में लगभग 100 व्यक्ति मारे भी गये थे। नि:संदेह यह कानून भारतीय संविधान की भावना पर सही नहीं उतरता, क्योंकि इसमें धर्म को आधार बनाया गया है, जबकि भारतीय संविधान देश में धर्म-निरपेक्ष लोकतंत्र की स्थापना की गवाही भरता है।
देश की आज़ादी एवं इसके साथ ही हुये विभाजन से अल्प-संख्यकों की असुरक्षा संबंधी पैदा हुआ यह मामला बेहद जटिल है, जिसकी जटिलताओं को ठीक करते हुए दशकों व्यतीत हो चुके हैं। 1955 के नागरिकता नियमों के तहत भारत का नागिरक बनने के लिए इस देश में 11 वर्ष व्यतीत किये होने की शर्त होती थी, लेकिन नये संशोधित कानून में यहां की नागरिकता लेने के लिए यह समय अवधि छ: वर्ष कर दी गई है। इसमें 31 दिसम्बर, 2014 तक पड़ोसी मुस्लिम देशों जैसे अ़फगानिस्तान, पाकिस्तान एवं बंगलादेश से आये ़गैर-मुस्लिम शरणार्थियों को भारत की नागरिकता देने की व्यवस्था की गई है। जिस बात पर आपत्ति दर्ज होती रही है, वह यह है कि कानून मुस्लिम धर्म के लोगों को अन्यों से अलग करता है। यह कानून इन तीनों पड़ोसी देशों से आये हिन्दू, सिख, जैन, बौद्ध, पारसी एवं ईसाई समुदाय के उन लोगों पर लागू होता है, जिन्हें धर्म के आधार पर इन देशों से निकाल दिया गया था, या वे डर एवं सहम के कारण भारत में शरणार्थियों के रूप में आकर बस गये थे। इसी कारण इसका केरल, असम एवं पश्चिम बंगाल में मुख्य रूप  से भारी विरोध हुआ था, परन्तु असम में इसलिए विरोधी स्वर उठ रहे हैं, क्योंकि विगत अवधि में लाखों की संख्या में हिन्दू बंगला देशी भी यहां आकर बसे हुये हैं जिन्होंने जनसंख्या का संतुलन बिगाड़ दिया है, परन्तु यह कानून इस संबंध में स्पष्ट ज़रूर है कि देश के किसी भी नागरिक से उसकी नागरिकता को छीना नहीं जा सकेगा, अपितु यह बाहर से आये शरणार्थियों को नागरिकता देने का कानून है। वह भी इस कारण कि मज़हबी आधार पर इन शरणार्थियों के साथ अ़फगानिस्तान, पाकिस्तान एवं बंगलादेश में न केवल भेदभाव होता रहा, अपितु उन्हें उत्पीड़न एवं अत्याचार का भी सामना करना पड़ा था तथा उनमें से ज्यादातर को उपरोक्त देश छोड़ने के लिए भी विवश कर दिया गया था।
त्रिपुरा, मेघालय आदि राज्यों में भी इस कानून से कई बिरादरियों एवं समुदायों को अपने अल्प-संख्यक  हो जाने की आशंका है, परन्तु इसका मानवीय पहलू यह है कि दशकों से अनिश्चितता की हालत में लटकते आ रहे लाखों ही उन व्यक्तियों को देश के नागरिक होने का अवसर मिलेगा जो अल्प-संख्यकों के आधार पर पहले देशों से बाहर निकाल दिये गये थे। आगामी समय में क्रियात्मक रूप में इसका किस तरह का प्रभाव बनता है, उसके आधार पर ही इसे जांचा जाएगा। मौजूदा समय में तो इस घोषणा ने लाखों ही शरणार्थियों को राहत पहुंचाने का काम ज़रूर किया है। 
—बरजिन्दर सिंह हमदर्द