सामाजिक और धार्मिक समीकरण बनाने में माहिर है भाजपा

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करिश्मे और पार्टी के पूर्व अध्यक्ष अमित शाह की प्रबंधन-क्षमता में अगाध विश्वास करने वाले भाजपा प्रवक्ताओं और उनके सहोदरों की भांति टीवी-मंच पर पेश होने वाली समीक्षक-मंडली का विचार है कि मौजूदा सूरत में मोदी की तीसरी जीत को रोका नहीं जा सकता। इस दावेदारी में कितना भी एकतरफापन क्यों न हो, आज की तारीख में आकलन करने पर इसे कमोबेश ठीक माना जा सकता है। वज़ह यह है कि विपक्ष की प्रभावी एकता ़गैर-मौजूदगी में फिलहाल मोदी का पलड़ा भारी लग रहा है। 
विपक्ष की एकता अगर हो गई होती तो वह मोदी को रोक सकता था, पर वह एकता तो अभी आधी-अधूरी है और उसमें कई किंतु-परंतु हैं। ऊपर से कुछ मीडिया हाउसों द्वारा ऑनलाइन कराये गये ‘मेगा पोल’ भी हैं, जिनके आंकड़ों पर विश्वास किया जाए तो करीब आधे मतदाता मोदी के पक्ष में झुके दिखते हैं। परिस्थिति के इस विन्यास पर यकीन करते ही उमर अब्दुल्ला का वह कथन याद आ जाता है, जो उन्होंने 2017 में उत्तर प्रदेश चुनाव के परिणाम आने की प्रतिक्रियास्वरूप कहा था। उमर का कहना था कि अब विपक्ष को 2019 भूल जाना चाहिए और 2024 की तैयारी करना चाहिए। आज स्थिति ऐसी बन गई है कि विपक्ष को 2024 भूल जाना चाहिए और 2029 की तैयारी करनी चाहिए। 
सर्वेक्षणों में भाजपा को आमतौर से समाज के हर तबके के कुछ न कुछ वोट मिलते हुए दिखते हैं। मसलन, भाजपा की मुसलमान विरोधी छवि के बावजूद उसे 2014 और फिर 2019 में आठ प्रतिशत के आसपास मुस्लिम वोट मिले थे। इनमें से ज्यादातर शिया और बरेलवी सम्प्रदाय के वोट थे, जो मुसलमान राजनीति की सुन्नी मुख्य धार के मुकाबले सताया हुआ महसूस करते हैं। इसलिए नतीजों की प्रकृति की जांच करने के लिए ज़रूरी यह है कि भाजपा की रणनीतिक प्रवृत्तियों को परखा जाए। क्या विजेता पार्टी भाजपा अपनी चुनावी रणनीति में जाति-धर्म का सहारा नहीं लेती? अगर सम्भावित जीत के भव्य आंकड़ों को थोड़ा अलग रख कर देखा जाए तो पहली नज़र में ही स्पष्ट हो जाता है कि भाजपा अलग-अलग राज्यों में विभिन्न रणनीतियां अजमाती है। हर जगह वह अपनी तरफ झुकी जातियों और समुदायों का अपनी राजनीति में टिकट वितरण के ज़रिये समावेशन करती है और समाज के जो हिस्से उसके साथ नहीं हैं, उनको बाहर करती है। हरियाणा में भाजपा खुले तौर पर जाट-विरोधी और ़गैर-जाटों की पार्टी बन कर उभरी है, महाराष्ट्र में उसने कई जगहों पर मराठा विरोधी चुनावी गोलबंदी की है और कर्नाटक में वह मुख्य तौर पर लिंगायतों की पार्टी के तौर पर चुनाव लड़ती है। उत्तर प्रदेश में भाजपा ने यादव-जाटव-मुसलमान के त्रिकोण को न केवल अपनी चुनावी राजनीति से दूर रखा है, बल्कि इन तीनों समुदायों के विरोध के आधार पर उसने अपने समर्थन की मुहिम चलाई है। बिहार में भाजपा ने यादवों को बाहर किया हुआ है। 
अशोका युनिवर्सिटी के त्रिवेदी शोध केन्द्र के आंकड़ों के मुताब़िक पिछले चुनावों में उत्तर प्रदेश में भाजपा ने अपने 45 प्रतिशत से ज्यादा टिकट ऊंची जाति के उम्मीदवारों को दिये, क्योंकि भाजपा जानती थी कि ये जातियां उसकी सर्वाधिक निष्ठावान समर्थक हैं। पार्टी हारे जीते या ये जातियां चुनाव-दर-चुनाव भाजपा को 60-70 प्रतिशत के के आस-पास वोट करती रही हैं। इसमें भी भाजपा ने स्पष्ट रूप से ब्राह्मणों को 15 टिकट दिये और 13 ठाकुरों को उम्मीदवार बनाया। भाजपा ने केवल एक यादव को टिकट दिया, क्योंकि उसे पता था कि यह समुदाय इस बार समाजवादी पार्टी को जम कर समर्थन देगा। चूंकि भाजपा को पता था कि ़गैर-यादव पिछड़ी जातियां उसके पक्ष में वोट करती रही हैं, इसलिए उसने दस पिछड़ी जातियों के बीच में 19 टिकट बांटे। इसी तरह बसपा के समर्थक समझे जाने वाले जाटवों को भाजपा के केवल चार टिकट दिये और ब़ाकी 17 टिकट ़गैर-जाटव दलित जातियों में वितरित किये। जहां तक मुसलमानों का सवाल है, उत्तर प्रदेश में मुसलमानों की आबादी 20 प्रतिशत के लगभग है लेकिन भाजपा ने उसमें से एक भी मुसलमान को टिकट नहीं दिया। 
अगर मोटे तौर पर मान लिया जाए कि उत्तर प्रदेश में 10 प्रतिशत यादव हैं, 10 प्रतिशत जाटव हैं और 20 प्रतिशत मुसलमान हैं, तो प्रदेश की इस 40 प्रतिशत जनता को भाजपा ने अपनी चुनावी रणनीति से तकरीबन बहिष्कृत रखा। यह विश्लेषण भाजपा के ऊपर कोई आरोप नहीं है। उसे भी अपनी चुनावी रणनीति बनाने का पूरा हक है। आखिरकार समाजवादी पार्टी अपने ज्यादातर टिकट केवल यादव उम्मीदवारों को देना ही पसंद करती है। मायावती भी सबसे ज्यादा टिकट जाटवों को देती हैं, हालांकि यह कहना उचित होगा कि बसपा समाज के अन्य तबकों का भी ध्यान रखती है और उसका टिकट वितरण सामाजिक दृष्टि से सर्वाधिक प्रातिनिधिक प्रतीत होता है। 
अगर ठोस रूप से देखें तो इस कथन में जाति का मतलब है कुछ ऐसी पिछड़ी और दलित जातियां (जैसे यादव और जाटव) जिन्होंने अब तक भाजपाई राजनीति की अधीनता स्वीकार नहीं की है, और धर्म का मतलब है मुख्य रूप से मुसलमानों की भाजपा विरोधी राजनीतिक गोलबंदी। यह तथ्यात्मक रूप से सही है कि 2019 में उत्तर प्रदेश और बिहार में इन जातियों और मुसलमानों की नुमाइंदगी करने वाले राजनीतिक दलों की ज़बरदस्त हार हुई है। अगर आपस में उनके वोटों को जोड़ भी दिया जाए (उत्तर प्रदेश में महागठबंधन के ज़रिये ऐसी कोशिश भी की गई) तो भी भाजपा को उससे ज्यादा वोट मिलते नज़र आते हैं। अगर 2022 के विधानसभा चुनाव को भी जोड़ लिया जाए तो अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी और मायावती की बहुजन समाज पार्टी की यह लगातार चौथी हार है और बिहार के राष्ट्रीय जनता दल को तीसरी हार का सामना करना पड़ा है। चूंकि ये सभी पार्टियां मुख्य रूप से किसी न किसी एक जाति और उसके साथ मुसलमानों के समर्थन के आधार पर टिकी हुई हैं, इसलिए इनकी पराजय को जाति-धर्म की पराजय के रूप में दिखाया जा रहा है। आंकड़ों के लिहाज़ से ठीक होने के बावजूद यह दावा कुछ और जांच-पड़ताल की मांग करता है। 
स्पष्ट रूप से उत्तर भारत में भाजपा ऊंची जातियों, ़गैर-यादव पिछड़ों और ़गैर-जाटव दलितों की पार्टी के तौर पर उभरी है। यह आधे से अधिक हिंदू समाज की भाजपा समर्थक हिंदू एकता का नज़ारा है। इस हिंदू एकता का एक म़कसद है सामाजिक न्याय की तथाकथित ब्राह्मण विरोधी राजनीति को हाशिये पर धकेल देना और दूसरा मकसद है मुसलमान को वोटों की प्रभावकारिता को समाप्त कर देना। पिछले पांच साल से उत्तर भारत में मुसलमान मतदाता निष्ठापूर्वक भाजपा विरोधी मतदान करने के बावजूद चुनाव परिणाम पर कोई प्रभाव डालने में नाकाम रहे हैं। लोकतंत्र बहुमत का खेल है और देश में हिंदुओं का विशाल बहुमत है। मुसलमान वोटर किसी बड़े हिंदू समुदाय के साथ जुड़ कर ही चुनाव को प्रभावित कर सकते हैं। उत्तर भारत में मुसलमान मतदाता आम तौर पर पिछड़ी और दलित जातियों की नुमाइंदगी करने वाली पार्टियों को समर्थन देते रहे हैं। ब़ाकी जगहों पर वे कांग्रेस के निष्ठावान वोटर हैं। दिक्कत यह है कि कथित रूप से सेकुलर राजनीति करने वाली इन पार्टियों को हिंदू मतदाताओं के एक बड़े हिस्से ने त्याग दिया है। हिंदू राजनीतिक एकता के तहत 42 से 50 प्रतिशत के आस-पास हिंदू वोट एक जगह जमा हो जाते हैं। 2017 के उत्तर प्रदेश चुनाव में भी यही हुआ था और इस चुनाव में भी यही हुआ है। 
अगर इलेक्ट्रोल इम्पेक्ट फेक्टर (ई.आई.एफ.) के इंडेक्स पर नज़र डाली जाए तो साफ हो जाता है कि उत्तर भारत में जैसे ही चुनावी होड़ में आज तक अदृश्य रहे जातिगत समुदाय ऊंची जातियों और लोधी-काछी जैसे ़गैर-यादव पिछड़े मतों के साथ जुड़ते हैं, वैसे ही यह इम्पेक्ट फेक्टर भाजपा के पक्ष में झुक जाता है और मुसलमान वोटों के लिए इसका नतीजा शून्य में बदल जाता है। हिंदुत्ववादी शक्तियां ठीक यही तो चाहती थीं कि वे इतने हिंदू वोट गोलबंद कर लें कि मुसलमान मतदाताओं की भाजपा विरोधी वोटिंग चुनाव परिणाम पर कोई असर न डाल सके। इस विश्लेषण से ज़ाहिर है कि लोकसभा के चुनाव परिणामों को हमें भाजपा की जीत से आक्रांत मीडिया मंचों की निगाह से न देख कर चालाकी से खेली गई समावेशन और बहिर्वेशन की रणनीति के आईने में देखा चाहिए। हां, भाजपा को यह श्रेय ज़रूर दिया जा सकता है कि इस जटिल रणनीति को उसने बड़ी खूबी से लागू करके दिखाया है। 

लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।