सन्तुष्ट और प्रसन्न लोगों का लेखा-जोखा

सिर मुंडाते ही ओले पड़े। सोचा था आजकल देश के बारे में बड़े गर्वीले बेनकाब करते हुए सर्वेक्षण आ रहे हैं। उनमें एक तो अपने देश के लोगों का खुश और सन्तुष्ट रहने वाला सर्वेक्षण है। यह बता रहा है कि अपने देश के लोग खुश रहते हैं, सन्तुष्ट रहते हैं। किसी बात की चिन्ता नहीं करते। किसी समस्या का समाधान न हो तो अपने अन्तस का साक्षात्कार कर लेते हैं। साक्षात्कार को करते हुए वे आध्यात्मिक हो जाते हैं। सांस प्रक्रिया को अपना लेते हैं। इसके बारे में पता लगा है कि कपालभाति करने से सब दुख दूर हो जाते हैं। अपने पेट को अन्दर की ओर ले जाना बहुत कठिन नहीं होता, क्योंकि अब पेट में केवल रियायती अनाज ही पड़ा है। इसकी सहायता से ज़िन्दा रहने की गारण्टी है। यूं कुपोषण हो गया तो क्या? बच्चों से लेकर बूढ़ों तक हो गया तो भी अलग से क्या? बच्चे नाटे पैदा होने लगे, और नौजवान असमय बूढ़े तो क्या? कुपोषण से यह सब तो होगा ही। 
लोगों के पेट में गरिष्ठ बलिष्ठ भोजन नहीं। जेब में दाम नहीं, हाथ में काम नहीं। अब यही सब तो होगा। बस इससे अलग हटने के लिए अपनी सांस को दोनों नथुनों से बाहर फेंकिये, अपने आप आपकी सब समस्याएं, सब चिन्ताएं बाहर फिंक जाएंगी। बस आपके सामने खुल जायेगा अलभ्य फूलों का विस्तार, जो हर तरह के पर्यावरण प्रदूषण से बच निकला है। ग्लोबल वार्मिंग को ठण्डा कर गया है। प्रदूषण की यह आंख मिचौली, मौसमों की एक नई पहचान में बदल रही है। इसे बदल लेने दीजिये। वे दिन गये, जब सर्दी के बाद बसन्त आता था और फिर गर्मी खरामा खरामा चलती हुई आपके परिवेश में आ पधारती। अब सर्दी पड़ी तो हड्डियों को जमा देने वाली पड़ी, फिर खुशनुमा बासन्ती हवाओं ने आपका स्वागत नहीं किया, उसके स्थान पर लू के थपेड़े चले आये हैं। अब तो शोले का गब्बर सिंह भी नहीं पूछता, होली कब है? अब होली किस मौसम में खेलें? एक दम गर्मी पड़ी तो पानी की किल्लत तो हो ही जाएगी। इसीलिए कहते हैं इस बार पानी से कीचड़ होली नहीं खेलिये, उसकी जगह फूलों की होली खेलिये। और बीच के असाधारण समय को अपने नथुनों से अन्दर की हवा को बाहर फेंकिये। आपके बेचारे मन को शान्ति मिलेगी।
जनाब कई बार बताया, हमारी कठिनाई ही यह है कि हम अपनी समस्याओं के समाधान के लिए अपने अतीत की ओर नहीं झांकते। नहीं तो झट से सब समस्याओं के गुंजलक खुलने लगें। ये सर्वेक्षण यूं ही नहीं कहते कि हम बहुत सन्तुष्ट और खुश रहने वाले लोग हैं। जिन खोजा तिन पाइया। जिन्होंने अपने अतीत में लुप्त हो रही इस धनी विरासत को प्राप्त कर लिया, वहीं सन्तुष्ट हो गये हैं, लेकिन ऐसा उद्यम करने वाले  बहुत कम लोग हैं, इसलिए प्रसन्नता के पैमाने पर हम दुनिया की सबसे नीचे की एक सौ चौंतीस, एक सौ पैंतीसवीं पायदान पर हैं। वैसे एक ही जगह ठिठके रह कर सुस्ताते रहना, हमारी आदत है। इसलिए देख लो दस साल हो गये, हम सब देशों में 131वें से 135वें पायदान पर ही सुस्ता रहे हैं।
जो लोग सुस्ता नहीं चाहते, वे भगौड़े हो लेते हैं। बड़े-बड़े शिक्षा परिसरों को नकार आइलेट अकादमियों के आगे भीड़ जमाते हैं। डॉलर देशों की चमक से चुंधियाते हैं, और फिर एजेंटों की कृपा से ‘डंकी’ बन कर खाली देशों में गुलामी की नियति भोगते हैं। जो लोग जंगल पार कर के इन समृद्ध देशों की ड्योढ़ी तक पहुंच भी गये, वे वहां नम्बर दो हो जाने की नियति को स्वीकार लेते हैं। हम कभी इस नियति से परेशान नहीं होते, क्योंकि अपने देश में भी तो अनुकम्पा घोषणाओं का इंतज़ार हमें यही भाग्य दे रहा है। नौकरी दिलाऊ रोज़गार खिड़कियों के बाहर बरसों से एड़ियां रगड़ने से अच्छा कि रेवड़ियां बांटने वाले केन्द्रों के बाहर धूनी रमा लें। बन्धु, अब तो यह भी आवश्यक नहीं रहा क्योंकि हमारी ओर से रियायती राशन बांटने का विश्व रिकार्ड बनाने के बाद अब यह राशन आपके घर तक पहुंचने की घोषणा हो गई है। अब मोहल्ले के मीर मुंशियों ने घरेलू बंटवारे के नाम पर ये कतारें अपने घरों के बाहर लगवा ली हैं और ‘कौन अपना कौन पराया’ के तटस्थ सूत्र वाक्य का नाम ले ‘मेरे अपने’ की भैरवी गा रहे हैं।
देखते ही देखते ‘मेरे अपनों’ के भाई-भतीजावाद का यह रिवाज़ शार्टकट संस्कृति बन गया है। आजकल देश लुप्त संस्कृतियों की खोज में लगा है, और सबसे पहले इसी संस्कृति का वर्चुअल उद्घाटन कर रहा है। युग वर्चुअल का है, इंटरनेट से बने सोशल मीडिया की ताकत का है, इसलिये हर क्षेत्र में अपने लिये अधिक से अधिक लाइक बटोरते हैं, और कूड़े के नाबदानों पर अपने-अपने पहाड़ खड़े कर लेते हैं।
इन पहाड़ों पर आजकल कोई लालटेन नहीं जलती, केवल कुर्सियां पक्के पांव जमाती हैं, और परिवारवाद को गाली देते हुए अपने नाती-पोतों के लिए विरासती हो जाती हैं। बदलती हुई ज़िन्दगी की यह तस्वीर केवल राजनीति अथवा सामाजिक प्रतिष्ठा की भाग दौड़ तक ही नहीं आयी, इसने पुस्तक संस्कृति को भी दकियानूस करार दे दिया है। अपने-अपने आसमान में अपनी चिन्दी लगाने का नया रिवाज़ पैदा कर दिया है पर यहां ‘पैसा फेंको तमाशा देखो’ वाली बात है। पेशेवर लोगों से अपनी किताब छपवाओ और उन्हीं से कोई स्मृति पुरस्कार लेकर सन्तुष्ट हो जाओ।