शुभ या अशुभ कुछ नहीं होता सही या गलत निर्णय जीवन पर असर डालते हैं

कहते हैं कि वर्तमान युग आधुनिक है, विज्ञान और टेक्नोलॉजी पर आधारित है। इसमें पारम्परिक कुरीतियां, अंधविश्वास, टोने-टोटके, ताबीज़जैसी चीज़ों का कोई स्थान नहीं है। कोई मजबूरी भी नहीं है, परन्तु क्या वास्तव में हमारी सोच बदली है, यह प्रश्न परेशान करता है और प्रासंगिक हो जाता है जब कोई कहे कि आखिर इतने समय से यह सब चल ही रहा है तो इन्हें न मान कर क्यों किसी तरह का जोखिम उठाया जाये। नहीं माना और कुछ हो गया तो नुकसान हमें ही तो उठाना पड़ेगा।
बेबुनियाद संभावनाएं
एक युवा मित्र हैं जी मुम्बई में रहते हैं, काफी पढ़े लिखे समझदार हैं और अपने प्रोफेशन में नई ऊंचाइयां छूने की कोशिश में लगे रहते हैं। हुआ यह कि पिछले महीने मार्च में उन्हें नौकरी बदलनी थी और कम्पनी का फ्लैट, गाड़ी वापिस कर नई जगह शिफ्ट होना था। नया फ्लैट ले लिया और दिल्ली में अपने घर सूचित कर दिया। अब होता यह है कि इन दिनों खरमास या मलमास था जो पंद्रह अप्रैल तक चलेगा। इस अवधि में कोई भी शुभ काम नहीं कर सकते, गृह प्रवेश तो एकदम वर्जित है, अशुभ घड़ी में किया तो संकट आना निश्चित है। दुविधा में पड़ गये। घर ले लिया लेकिन उसमें जा नहीं सकते। कहां रहें, इसके लिए कुछ दिन होटल में काट लिये, कुछ दोस्तों के यहां किसी बहाने रुक गये और इंतज़ार करने लगे कि कब यह घड़ी समाप्त हो। एक अप्रैल को नई नौकरी पर जाना था, उसे टालना अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना हो जाता, इसलिए जॉइनिंग कर ली। एक दिन मिलने आ गये और अपनी परेशानी का ज़िक्र किया। 
यह सुनकर झटका लगा कि आज का युवा क्या ऐसी दकियानूसी सोच रख सकता है, मज़े की बात यह कि नौकरी पर चले गये क्योंकि भविष्य डगमगा सकता था। पूछा कि भाई यदि घर में इन दिनों किसी शिशु का जन्म होता है तो क्या पति या पत्नी उसे देखने, अपनी गोद में लेने और उसके आने की खुशी टाल देंगे। बहुत असमंजस हो गया, अंत में तय कर ही लिया कि इधर-उधर भटकने से अच्छा है कि घर का जो सामान गोदाम में रखवा दिया था, उसे नये फ्लैट में लाया जाये और इसमें रहना शुरू किया जाये। 
ईश्वर का अस्तित्व 
जो आस्तिक हैं उनके लिए ईश्वर और जो नास्तिक हैं, उनके लिए प्रकृति। जो कल था, वह आज है और आगे भी रहेगा, उसमें कुछ बदलने वाला नहीं। इसी तरह सच हो या झूठ, वह समय के अनुसार नहीं बदलता, हमेशा वही रहता है।  सृष्टि की कोई रचना अज्ञान के कारण नहीं हुई है। मानव, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, पर्वत, नदियां समुद्र और आकाश, इन सब का अस्तित्व इसलिए है क्योंकि इनसे जीवन जीने योग्य बनता है। आपने रेगिस्तान, आकाश में बादलों और पर्वतों पर बर्फ गिरने से अनेक आकृतियां बनती देखी होंगी जिन्हें देखकर डर लग सकता है और खुशी भी हो सकती है। वास्तविकता यह है कि यह हमारा मन या सोच है जो अपनी प्रतिक्रिया देता है, उसके अतिरिक्त कुछ नहीं। अंधविश्वास का विरोध जिसे स्वार्थी लोग ईश्वर विरोध कहते हैं, जातियों में विरोध बढ़ाता है। 
इसके घेरे में जनेऊ, यज्ञोपवीत से लेकर जन्म और मृत्यु तक के संस्कार आ जाते हैं, यहां तक कि छूआछूत, विधवा विवाह, कन्या जन्म को अशुभ मानना, मन्नत को पूरा करने के लिए नर या पशु की बलि देना, कोई न कोई डर दिखा कर यौन शोषण के लिए सहमत कर लेना शामिल है। भूत-प्रेत पिशाच की काल्पनिक घटनाओं को वास्तविक रूप देने के लिए और अपनी वासनाओं की पूर्ति के लिए महिलाओं को डायन बताना और दिमागी तौर से बीमार व्यक्तियों को चिकित्सा के बजाय झाड़-फूंक और तन्त्र-मन्त्र से ठीक करने के दावे यही बताते हैं कि चाहे जो हो जाए लोग सुधरने वाले नहीं। कुछ लोगों की सोच पर जो पहरा लगा है, वह हटाने के लिए न तो तैयार हैं और यदि कोई आईना दिखाए तो वह दुश्मन लगता है।  एक उदाहरण काफी होगा। दिल्ली में एक पाखंडी और पढ़े लिखे व्यक्ति ने एक धाम के नाम से और अपने को दाती महाराज कह कर ऐसा तानाबाना तैयार किया जिसमें लोगों को विश्वास हो जाये। यह जगह गैर-कानूनी कब्ज़े का उदाहरण थी लेकिन नेताओं और पैसे वालों की दबंगई के कारण एक ओर धार्मिक भावनाओं के शोषण का अड्डा बन गई और दूसरी ओर उनकी काम वासनाओं की पूर्ति का साधन, क्योंकि इसे धर्म और देवता के प्रकोप से जोड़ दिया गया, तो सामान्य लोगों के लिए श्रद्धा और प्रभु के आगे समर्पण करने का स्थान बन गई। उक्त व्यक्ति को गिरफ्तार किया गया, अदालती कार्यवाही भी लम्बी खिंचने लगी। यह जगह लोगों को अपने अंदर ईश्वरीय शक्ति का एहसास दिलाने के नाम पर व्यभिचार का अड्डा बन गई। 
धार्मिकता से निकटता
असल में धर्म और अंध विश्वास के बीच बहुत ही महीन अंतर है जो अक्सर नज़र नहीं आता। इसे समझने के लिए एक जगह चलते हैं। पूना-सतारा रोड पर, पूना से लगभग तीस किलोमीटर दूर एक मोड़ पर खेड़ शिवपुर गांव है। यहां कमर अली बाबा की दरगाह है। इसके सामने दो पत्थर रखे हैं, एक लगभग नब्बे और दूसरा साठ किलो का है। अब न जाने कब यह प्रथा बन गई कि यह तो चमत्कारी स्थान है। बड़े पत्थर को उठाने के लिए ग्यारह लोग अपनी एक एक उंगली और छोटे पत्थर को उठाने में नौ लोग अपनी एक एक उंगली लगायें तो पत्थर अपनी जगह से हिलाए जा सकते हैं, वरना नहीं। उठाते समय कमर अली दरवेश की जय बोलना ज़रूरी है। दरगाह में महिलाएं नहीं जा सकतीं और न ही पत्थर को हाथ लगा सकती हैं। इसे एक चमत्कार घोषित कर दिया गया, चढ़ावा चढ़ने लगा और जिनकी भी यह योजना थी, वे पैसा कमाने लगे। 
कुछ लोग इसकी हकीकत जानने पहुंच गये। जैसा कि मान्यता थी, उतने ही लोग और उंगलियों का इस्तेमाल हुआ तो पत्थर उठ गयाए संख्या कम करने पर वह टस से मस नहीं हुआ। इसलिए संख्या वही रखी लेकिन उसमें आसपास घूमने आई महिलाओं को शामिल कर लिया और साईं बाबा और दूसरे लोगों की जय का घोष किया। सही दबाव पड़ने पर पत्थर अपनी जगह से हिल गये और कंधों तक उठ गये। सच यह था कि यह कोई चमत्कार नहीं बल्कि मामूली सा ज्ञान था कि सही मात्रा में उंगलियों का ज़ोर लगने पर पूरे बाजू पर बोझ पड़ा और तब यह आसानी से उठ गये। उन्हें उतना ही ज़ोर चाहिए था जितना उंगलियों को स्थिर रखने के लिए आवश्यक था। अब स्त्री हो या पुरुष या नारा कोई भी लगायें, कुछ अंतर नहीं है। यह ठीक वैसा ही है जैसे कि पुरुष और स्त्री मज़दूर कोई सामान उठाते हुए ज़ोर लगा के हाईसा बोलते हैं। ये दोनों प्रक्रियाएं एक जैसी हैं, परन्तु एक को चमत्कार कह कर प्रचारित कर दिया और कुछ लोग अपना स्वार्थ सिद्ध करने में सफल हो गये। 
हमारे इतिहास में अनेक ऐसी घटनाएं हैं जिनमें किसी राजा की पराजय केवल इस कारण हुई कि राज ज्योतिषी ने शत्रु पर आक्रमण के लिये कई दिन बाद का शुभ मुहूर्त निकाला था। शत्रु कम संख्या और बुरी तरह घायल होने के कारण जान बचाकर भाग रहा था लेकिन जब उसने देखा कि राजा साहिब हमला करने के बजाय मुहूर्त की प्रतीक्षा कर रहे हैं तो उसने उनकी ऐसी घेराबंदी की कि विजयी हो गया।  अंधविश्वास हों या पारम्परिक सोच, यह सब पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाले ऐसे रोग हैं जिनका हमारे अहंकार, भयभीत रहने और बुरा होने की आशंका से ग्रस्त रहने के अतिरिक्त कोई अस्तित्व नहीं है। अफसोस तब होता है जब शिक्षित युवा इन बातों की अहमीयत अपने जीवन में स्वीकार कर लेते हैं। 
निष्कर्ष यही है कि अंधविश्वास और कुछ नहीं बस एक तर्कहीन क्रिया है जिसे हम अपनी सोच पर हावी होने देते हैं और अक्सर अपने दिमाग को वह सब करने देते हैं जिसका कोई अस्तित्व नहीं होता। इसमें शिक्षित होने या न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। महिलाओं पर इसका प्रभाव अधिक पड़ता है क्योंकि वे बहुत भावुक होती हैं और अपने परिवार को किसी भी हालत में सुरक्षित देखना चाहती हैं। आम तौर से न चाहते हुए भी पुरुष उनकी बातों से सहमत हो जाते हैं और वे सब करते हैं जो उन्हें खुश रख सके। इसी की फायदा  ढोंगी, पाखंडी लोग उठाते हैं। यह दुष्चक्र केवल तब रुक सकता है जब ईश्वर के नाम पर लोगों को डराने वालों पर कड़ी कार्यवाही हो।