केन्द्र में राजनीतिक सत्ता परिवर्तन का संकेत तो नहीं स्वर्ण आयात में उछाल

दक्षिणपंथी भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) या उसके प्रमुख विपक्ष 26-दलीय इंडिया राजनीतिक गठबंधन, किसी के पक्ष में लहर के अभाव वाले इस बार के संसदीय चुनाव के संभावित परिणाम की कोई भी भविष्यवाणी कठिन होती जा रही है। ‘इंडिया’ गठबंधन का प्रतिनिधित्व सात राज्यों के मुख्यमंत्रियों और पिछली संसद के 142 सदस्यों द्वारा किया जा रहा है जो भाजपा नेतृत्व वाले एनडीए को कठिन चुनौती दे रहा है। 
इस बार चुनाव के पहले तीन चरणों में गिरता मतदान प्रतिशत एनडीए और इंडिया गठबंधन दोनों के लिए चिंता का एक और कारण बन गया है। कुल मिलाकर पांच से छह प्रतिशत मतदान प्रतिशत का एनडीए या इंडिया खेमे के संख्या के खेल पर गंभीर प्रभाव पड़ना संभव है। सार्वजनिक रूप से, दोनों समूह 300 सदस्यों की अंतिम ताकत की आकांक्षा रखते हैं, हालांकि केवल 543 संसदीय निर्वाचन क्षेत्र हैं। अगली सरकार बनाने के लिए एक राजनीतिक गठबंधन को कम से कम 272 सीटें जीतने की आवश्यकता होगी। सरकार अधिक स्थिर दिखेगी यदि उसके लोकसभा सांसदों की संख्या 300 से अधिक हो जाये।
फिलहाल, एनडीए और इंडिया गठबंधन दोनों के चुनाव प्रचारक जनता की उदासीन प्रतिक्रिया से कुछ हद तक परेशान दिख रहे हैं। चुनाव प्रचारक इतने घबड़ाये हुए हैं कि बहुत कम लोग अपने चुनावी घोषणा-पत्रों के बारे में बात करते हैं और यह भी उतने उत्साह से नहीं बताते हैं कि सत्ता में लौटने पर वे लोगों की किस तरह सेवा करना चाहते हैं। समूह के अधिकांश नेताओं के पास मतदाताओं के साथ संवाद करने के लिए एक-दूसरे के खिलाफ मौखिक आरोप लगाने, झूठ और अधिक झूठ बोलने, तथ्यों को तोड़ने-मरोड़ने और अक्सर कटाक्ष या यहां तक कि व्यक्तिगत हमलों का उपयोग करने के अलावा बहुत कुछ नहीं है। चुनावी घोषणा पत्र व्यावहारिक रूप से पीछे छूट गये हैं। 
इन चुनाव अभियानों में जनता की भागीदारी दिन पर दिन निराशाजनक रूप से कम होती जा रही है। लगातार चल रही लू भी एक वजह हो सकती है। व्यवसाय और उद्योग, जो आम तौर पर संभावित विजेताओं का समर्थन करते हैं, भी भ्रमित हैं। वे इस बारे में निश्चित नहीं हैं कि रोटी के किस तरफ मक्खन लगाना है। माना जाता है कि बड़े व्यवसाय, औद्योगिक घराने और व्यापार दोनों पक्षों को खुश रखने के लिए गुप्त रूप से धन की पेशकश कर रहे हैं। एनडीए के स्टार प्रचारक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पहली बार उद्योगपतियों अंबानी और अडानी पर कांग्रेस को कथित अवैध धन भेजने का आरोप लगाया है और दावा किया है कि यही कारण है कि कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने उनके खिलाफ बोलना बंद कर दिया है।
विडंबना यह है कि नरेन्द्र मोदी के लगातार कांग्रेस विरोधी, गांधी परिवार विरोधी बयानों ने कांग्रेस पार्टी को दैनिक समाचारों में एक बहुत ज़रूरी स्थान प्रदान किया है और परोक्ष रूप से जनता के समर्थन में मदद की है या कांग्रेस के लिए स्वतंत्र मतदाता कल्पना को मज़बूत किया है, जो लोकसभा में 100 से अधिक सीटें हासिल करने की उम्मीद करती है।  
पिछले पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी एक भी सीट नहीं जीत पायी थी। मोदी का कांग्रेस-फोबिया स्पष्ट रूप से देश की सबसे पुरानी राष्ट्रीय पार्टी (जीओपी) के लाभ के लिए काम कर रहा है। ओडिशा के कंधमाल ज़िले में एक चुनावी रैली में बोलते हुए नरेंद्र मोदी ने कहा,वे कांग्रेस यह कहकर भारतीयों के मन में डर पैदा करते हैं कि पाकिस्तान एक परमाणु शक्ति है। कांग्रेस की कमजोर मानसिकता के कारण जम्मू-कश्मीर के लोगों ने दशकों तक संघर्ष किया है। पश्चिम बंगाल की तरह, कांग्रेस पार्टी की आज ओडिशा की राजनीति में बहुत कम प्रासंगिकता है। 2019 के लोकसभा चुनाव में, ओडिशा ने कोरापुट (एससी) निर्वाचन क्षेत्र से एक अकेला कांग्रेस सांसद भेजा।
यह ध्यान दिया जा सकता है कि 2013 के बाद पहली बार, विदेशी पोर्टफोलियो निवेशक (एफपीआई) चुनावी घबड़ाहट के कारण बाज़ार से लगातार निकासी कर रहे हैं। चल रहे राष्ट्रीय चुनावों में भाजपा के पहले के अनुमान से कम सीटें जीतने की अटकलों के बीचए एफपीआई चुनिंदा स्टॉक बेच रहे हैं। सत्तारूढ़ एनडीए के लिए यह शायद ही कोई अच्छा संकेत है। भारत में 2014 और 2019 के संसदीय चुनावों से पहले भाजपा के नेतृत्व वाले दक्षिणपंथी राजनीतिक गठबंधन को एफपीआई और वैश्विक अमरीकी बहुराष्ट्रीय निवेश बैंकों और गोल्डमैनसैक्स, जेपीमॉर्गन, वेल्सफार्गो और मॉर्गनस्टेनली जैसी वित्तीय सेवा कंपनियों का भारी समर्थन प्राप्त था। गोल्डमैनसैक्स ने इस बार भी कम मुखरता से मोदी का समर्थन जारी रखा है। हालांकि 4 जून को देश के संसदीय चुनाव के नतीजों से पहले एफपीआई भारतीय बाजार में सुरक्षित खेल रहे हैं। अकेले चालू माह के दौरान, एफपीआई ने मई के मध्य तक 22,000 करोड़ रुपये से अधिक के शेयर बेचे हैं। अप्रैल में 21,524 करोड़ रुपये की उन्होंने निकासी की थी। 31 मार्च, 2024 तक पांच प्रतिशत से अधिक एफपीआई हिस्सेदारी वाले 100 से अधिक शेयरों में 10 प्रतिशत से 30 प्रतिशत तक की गिरावट देखी गयी, जबकि निफ्टी सूचकांक में केवल 1.7 प्रतिशत की गिरावट देखी गयी। संसदीय चुनाव के नतीजे बाजार के लिए एक प्रमुख ट्रिगर होंगे।
पिछले तीन लोकसभा चुनावों के दौरान एफपीआई शुद्ध खरीदार थे। खासकर चुनाव से पहले दो महीने और चुनाव की अवधि के दौरान भी। भारत जैसे अत्यधिक आबादी वाले, बहुसांस्कृतिक और बहुभाषी लोकतंत्र में किसी भी चुनाव के साथ आने वाली अनिश्चितताओं के बावजूद। 2009 के लोकसभा चुनाव की प्रक्त्रिया के दौरान, जिसे मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) ने बड़े आराम से जीता था, एफपीआई 20,117 करोड़ रुपये के शेयरों के शुद्ध खरीदार थे। राष्ट्रीय चुनावों के दौरान देश के द्वितीयक बाजार में विदेशी निवेश का वह रिकॉर्ड प्रवाह था। पिछले तीन संसदीय चुनावों के दौरान शेयर बाजार में सामान्य अस्थिरता ज्यादा नहीं देखी गयी थी। 
क्या विदेशी निवेशक इस बार देश की राष्ट्रीय सरकार और बाज़ार की स्थिरता को लेकर एक अलग राजनीतिक गंध महसूस कर रहे हैं? अमीर भारतीय अपनी नकदी की सुरक्षा के लिए पहले की तरह सोना खरीद रहे हैं। आधिकारिक रिकॉर्ड बताते हैं कि पिछले महीने सोने का आयात एक साल पहले की समान अवधि के 1 अरब डॉलर से तीन गुना बढ़कर 3.1 अरब डॉलर हो गया। सोने की कीमतें लगभग हर सप्ताह बढ़ रही हैं। इस समय राजनीतिक स्थिति शेयर बाज़ार जितनी ही अस्थिर है, हालांकि बड़ी संख्या में लोगों को अभी भी लगता है कि एनडीए तुलनात्मक रूप से कम बहुमत के साथ सत्ता में लौट सकता है। सात चरणों का लम्बा चुनाव सभी के लिए तनाव और पीड़ा का कारण बन रहा है। (संवाद)