आगामी दिनों में गर्मा जाएगा पंजाब का चुनाव मैदान 

प्रसिद्ध शायर साहिर लुधियानवी का एक शे’अर है जिसके अर्थ हैं कि मुहब्बत के तलिस्म (जादू) का वायदा कुछ इस प्रकार टूटा है कि किसी नई चाहत की शमा भी रौशन नहीं कर सके। 
टूटा है तलिस्म-ए-अहद-ए-मुहब्बत कुछ इस तरह,
फिर आरज़ू की शमां रौशन ना कर सके।
बिल्कुल यही हाल इस समय पंजाब का है। पंजाब के सपने, मांगें, उमंगें तथा भविष्य का तलिस्म कुछ इस तरह टूट गया है कि कोई उम्मीद शेष दिखाई नहीं दे रही। लोकसभा चुनावों के लिए पंजाब में मतदान अंतिम दौर में हो रहा है। लगभग एक सप्ताह शेष है। नि:संदेह यह भी महत्वपूर्ण है कि कौन जीतेगा और कौन हारेगा, परन्तु इस प्रकार प्रतीत होता है कि चाहे कोई जीते या कोई हारे, पंजाब तो हार ही गया है। पंजाब के मामले एवं मुद्दे चुनावी बहस का हिस्सा नहीं हैं। चाहे अकाली दल ने इन में से कुछ मुद्दों की ओर मोड़ काटा है, परन्तु पंजाब के चुनावों में पंजाब के मुद्दे चुनावों की केन्द्रीय स्टेज पर नहीं हैं। मतदान करने वाले लोगों के लिए भी शायद ये मुद्दे हवा हो गए हैं। हालांकि इस बार इन चुनावों में देश के बहुत-से भागों में स्थानीय अस्मिता या गौरव का मुद्दा बन कर उभरा है। महाराष्ट्र में महाराष्ट्रीयन तथा गुजराती पहचान का मुद्दा साफ नज़र आता है। बंगाल में बंगाली गौरव तथा हिन्दू, हिन्दी, हिन्दुस्तान की विचारधारा का मुद्दा उभर कर सामने आया है। दक्षिण भारत में तमिल, मलयालम तथा तेलुगू भाषाओं को आगे बढ़ाने का मुद्दा अभी भी चल रहा है, परन्तु पंजाब में पंजाब, पंजाबी तथा पंजाबियत के लिए कहीं कोई उत्साह नहीं। सिर्फ कुछ बुद्धिजीवियों में चर्चा है। चलो, पंजाबी सभ्याचर तथा भाषा के लिए मरता उत्साह तो एक ओर रहा, इन चुनावों में पंजाब की रसातल की ओर अग्रसर आर्थिक स्थिति एवं यहां बिगड़ रहे वातावरण के संतुलन के लिए भी कोई चिन्ता, कोई बहस दिखाई नहीं दे रही। चाहिए तो यह था कि लोकसभा चुनावों में केन्द्रीय पार्टियां भी पंजाब के मामलों की बात करने के लिए मजबूर होतीं, परन्तु पंजाबियों की अपनी बेरुखी देख कर उन्हें इसकी ज़रूरत ही नहीं प्रतीत हुई। 
पंजाब आगामी दो-तीन दशकों में रेगिस्तान में परिवर्तित होने की ओर बढ़ रहा है। पंजाब के पानी की लगातार 70 वर्षों से लूट हो रही है। यदि पंजाब को उसके पानी का अधिकार मिल जाए तो पंजाब की आर्थिकता फिर शीर्ष पर जा सकती है। पंजाबी भाषी क्षेत्रों का कहीं ज़िक्र नहीं। चंडीगढ़ पंजाब को कैसे मिलेगा, इस बात की कहीं कोई चर्चा नहीं। पंजाब के उद्योग पिछड़ते जा रहे हैं या पंजाब से बाहर जो रहे हैं। पंजाब हौज़री में दुनिया के नक्शे पर नहीं रहा, लोहे के उत्पादन में भी पिछड़ गया है। सबसे बड़ी ज़रूरत है पंजाब की हुसैनीवाला तथा अटारी सीमाओं के रास्ते पाकिस्तान, मध्य पूर्व,  तथा यूरोप के साथ सड़क रास्ते से व्यापार खोलने की, परन्तु यह इस चुनाव का मुद्दा तक नहीं। पंजाब की जनसंख्या का बदलता स्वरूप सिखों के लिए ही नहीं, समूचे पंजाबियों के लिए चिन्ता का कारण होना चाहिए। सुखपाल सिंह खैहरा के बयान चाहे कैसे भी लिया जाए, परन्तु है तो सच ही, कि हिमाचल, गुजरात तथा देश के कई अन्य राज्यों में बाहर से आए लोगों को वहां सीधे ज़मीन खरीदने का अधिकार नहीं मिलता। यदि कहा जाये कि पंजाबियों को भी विदेशों में स्थायी रूप में रहने के लिए नागरिकता मिली हुई है तो समझने की बात है कि इसके लिए उन्हें उन देशों की शर्तें तथा नियम पूरे करने के बाद ही यह अनुमति मिलती है। हम देश के किसी भी प्रदेश के किसी भी व्यक्ति को पंजाब में बसने के विरोधी नहीं, परन्तु या तो पंजाब में इसके लिए ज़रूरी कानून बनाया जाए या फिर हिमाचल, गुजरात, पूर्वी तथा उत्तरी भारत के अन्य प्रदेशों में बसने तथा ज़मीन खरीदने पर लगी पाबंदियां भी हटाई जाएं। हमारे सामने है कि चंडीगढ़ विशुद्ध पंजाबी गांवों को उजाड़ कर बनाया गया था। किसी समय यह 100 प्रतिशत पंजाबी भाषी क्षेत्र था, परन्तु आज यहां 67.76 प्रतिशत लोगों की मातृ-भाषा हिन्दी है और पंजाबी बोलने वाले लोग सिर्फ 22 प्रतिशत ही हैं। लोकसभा चुनावों में न तो केन्द्र की कारगुज़ारी कहीं चर्चा चर्चा में है और न ही पंजाब सरकार की। सिर्फ गैर संजीदा चुनाव प्रचार ही हावी है। लोकसभा चुनावों में संघीय ढांचे का विषय भी मुख्य मुद्दा होना चाहिए था। इन चुनावों में बेअदबियों तथा अन्य भी अनेक मामले जिनमें रेत माफिया, शराब माफिया आदि भी शामिल हैं, मुद्दे नहीं बन सके। वास्तव में इन चुनावों में तो पंजाब ही मनफी दिखाई दे रहा है। मिज़र्ा ़गालिब के शब्दों में :
कोई उम्मीद बर नहीं आती ,
कोई सूरत नज़र नहीं आती।
अब गर्माएगा पंजाब का चुनाव मैदान 
अब तक तो पंजाब का चुनाव मैदान ठंडा तथा चुनाव प्रचार धीमी चाल चल रहा था। हम समझते हैं कि अब जो चुनावों के अंतिम दो चरण ही रह गए हैं तो पंजाब का चुनाव मौदान अवश्य गर्माएगा। विशेषकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की चुनावी रैलियों के बाद पंजाब में सभी पक्ष चुनाव प्रचार तेज़ करेंगे। चाहे अभी तक यह स्पष्ट नहीं कि कौन कितनी सीटों पर जीत प्राप्त करेगा, फिर भी जो संकेत अभी तक दिखाई दे रहे हैं, उनके अनुसार पंजाब में अभी भी कांग्रेस की स्थिति सबसे मज़बूत प्रतीत होती है। भाजपा क्योंकि पहली बार तीन की बजाय 13 सीटों पर चुनाव लड़ रही है, इसलिए उसके वोट प्रतिशत में भारी वृद्धि सुनिश्चित है, परन्तु यह सीटों के मामले में कहां खड़ी होती है, अभी कोई पता नहीं। फिर भी कुछेक सीटों पर चार कोणीय मुकाबलों में दिखाई देगी। जहां तक सत्तासीन आम आदमी पार्टी की बात है, तो यह निश्चित है कि 2022 के विधानसभा चुनावों के मुकाबले ‘आप’ का वोट प्रतिशत काफी कम होगा। इसकी ओर से प्राप्त की जाने वाली सीटों के मामले में भी अभी कोई स्पष्ट अनुमान नहीं लगाया जा सकता। यह आम आदमी पार्टी की हताशा का ही परिणाम प्रतीत होता है कि चुनाव के सिर्फ एक सप्ताह भर पहले ही पंजाबी के सबसे अधिक प्रकाशित होने वाले समाचार पत्र ‘अजीत’ के सम्पादक डा. बरजिन्दर सिंह हमदर्द के खिलाफ केस दर्ज कर दिया गया है। यह सबको पता है कि चाहे मामला जंग-ए-आज़ादी यादगार को लेकर दर्ज किया गया है, परन्तु ‘आप’ के साथ ‘अजीत’ की लड़ाई सरकार के खिलाफ आलोचनात्मक समाचार प्रकाशित होने से ही शुरू हुई थी। चाहे कुछ लोग यह कहते हैं कि यह केस दर्ज करके पंजाब के मुख्यमंत्री यह संदेश देना चाहते हैं कि उनकी सरकार भ्रष्टाचार खत्म करने के लिए बड़े से बड़े व्यक्ति पर हाथ डालने से नहीं डरती, परन्तु सब के सामने है कि ‘आप’ के जिन अपने लोगों के खिलाफ केस दर्ज हुए थे, उनकी क्या स्थिति है? राज्य में रेत-बजरी माफिया तथा भिन्न-भिन्न सरकारी विभागों में फैले भ्रष्टाचार की क्या हालत है, यह अब परिणाम ही बताएंगे कि चुनावों से बिल्कुल पहले उठाए गए इस कदम का ‘आप’ को कितना नुकसान या लाभ होता है? अकाली दल बेशक पंजाब के मुद्दों तथा सिख राजनीति  की ओर मुड़ा है, परन्तु उसका अभी तक यह स्पष्ट न करना कि चुनाव परिणाम के बाद वह भाजपा के साथ चुनाव समझौता करेगा या नहीं, लोगों में कई सवाल खड़े कर रहा है, परन्तु हमारा प्रभाव यह है कि अकाली दल कितनी सीटों पर विजय प्राप्त करता है। चाहे यह अभी स्पष्ट नहीं, परन्तु अकाली दल के वोट का प्रतिशत भी हर हाल में 2022 के विधानसभा चुनावों के मुकाबले काफी सुधरेगा। 
इसके अतिरिक्त कुछ सीटों पर जिनमें खडूर साहिब से भाई अमृतपाल सिंह भी शामिल हैं, और कुछ उग्र विचारधारा वाले समझे जाते उम्मीदवारों के प्रति भी लोगों में काफी दिलचस्पी दिखाई दे रही है, परन्तु जीत-हार के संबंध में अभी कोई भविष्यवाणी करना समय से बहुत पहले की बात है। इन चुनावों का परिणाम (अंजाम) वही होगा जो होना है। कलीम आजिज़ के शब्दों में मामूली फेरबदल के साथ : 
वही होगा जो हुआ है जो हुआ करता है,
मैंने इस चोण का अंजाम तो सोचा ही नहीं।
तख्त श्री हज़ूर साहिब के चुनाव का मामला  
एक ओर भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी लगातार सिखों को यह एहसास करवाने की कोशिश में लगे हुए हैं कि सिखों के साथ हमारे विशेष संबंध हैं। वह इन चुनावों में भी 1984 के सिख कत्लेआम के कारण कांग्रेस पर आक्रामक हो रहे हैं। दूसरी ओर भाजपा समर्थक कई सरकारें भिन्न-भिन्न राज्यों में सिख संस्थाओं पर कब्ज़ा करने की सफल-असफल कोशिशें भी लगातार कर रही हैं। इस समय दक्षिण के सिख भाजपा की साझ वाली महाराष्ट्र सरकार की ओर से तख्त श्री अबचल नगर हज़ूर साहिब के प्रबंध को कब्ज़े में लेने की कोशिशों से काफी नाराज़ हैं। भाजपा की हिस्सेदारी वाली सरकार अदालत के आदेशों को लगातार दृष्टिविगत कर रही है। बम्बे हाईकोर्ट की ओर से तख्त श्री हज़ूर साहिब बोर्ड का चुनाव करवाने के आदेश को बार-बार बहानेबाज़ी से लटकाया जा रहा है।
 वैसे यह अकेली भाजपा की स्थानीय सरकार ही ऐसा नहीं कर रही, ऐसा 1956 से जारी है और कांग्रेस की सरकारें भी इसके लिए ज़िम्मेदार रही हैं। अब भी दक्षिण के तथा श्री हज़ूर साहिब बोर्ड से संबंधित सिख भाजपा के एक पूर्व मुख्यमंत्री तथा कांग्रेस से भाजपा में आए एक पूर्व मुख्यमंत्री तथा एक सांसद की तिक्कड़ी से इस मामले में बहुत नाराज़ बताए जाते हैं कि इस पूरे खेल के पीछे इन तीनों का ही हाथ है। सिख समुदाय चाहता है कि मौजूदा कानून के तहत ही हज़ूर साहिब बोर्ड का चुनाव तुरंत हो। वह यह भी चाहता है कि भाजपा इस मामले में ‘जस्टिस जगमोहन सिंह भाटिया कमेटी’ के आधार पर नया कानून लागू करने से पहले इसे सार्वजनिक करे तथा इसकी धाराओं के बारे दक्षिण के सिखों को विश्वास में लेकर ही इसमें यदि आवश्यक हो, तो कोई संशोधन करके इसे लागू किया जाए। हम समझते हैं कि स्थानीय सिखों की यह मांग पूरी तरह उचित है और यदि कोई अन्याय किया जाता है तो देश भर के सिखों में इस कारण भाजपा के प्रति अच्छा प्रभाव नहीं बन पाएगा। 
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