आज़ादी के 77 वर्षों में कितने बदले लोकतंत्र के हालात ?

प्रत्येक भारतवासी के लिए 15 अगस्त का दिन गौरवका दिन है क्योंकि इसी दिन भारत को अंग्रेजों की दासता से मुक्ति मिली थी। हालांकि स्वतंत्रता दिवस को लेकर आज भी देश के प्रत्येक नागरिक के दिलोदिमाग में वही जज्बा और उत्साह समाहित है लेकिन जब हर वर्ष स्वतंत्रता के प्रतीक तिरंगे के नीचे खड़े होकर बहुत सारे ऐसे जनप्रतिनिधियों को देश की रक्षा व प्रगति का संकल्प लेते देखते हैं, जो वर्षभर सरेआम लोकतंत्र की धज्जियां उड़ाते देखे जाते हैं तो मन में यही सवाल उठता है कि आखिर ऐसी संकल्प अदायगी से देश को हासिल क्या होता है? देश को आज़ाद हुए सात दशक से अधिक हो चुके हैं लेकिन आज़ादी के इन 77 वर्षों में लोकतंत्र के पवित्र स्थल संसद और विधानसभाओं के हालात किस कदर बदले हैं, वह किसी से छिपा नहीं है, जहां अभद्रता की सीमा पार करते जनप्रतिनिधि गाली-गलौच, उठापटक से लेकर कुर्ता-फाड़ राजनीति तक उतर आते हैं। विधानसभाओं की तो क्या बात करें, जब संसद की कार्यवाही ही कभी विपक्ष और कभी स्वयं सत्ता पक्ष द्वारा ही कई-कई दिनों तक लगातार नहीं चलने दी जाए तो राष्ट्र के लिए इससे ज्यादा चिंतनीय स्थिति और क्या हो सकती है? संसद में होने वाले ऐसे हंगामों के कारण प्रति मिनट आम आदमी के करीब ढ़ाई लाख रुपये बर्बाद होते हैं यानी हर एक घंटे में करीब डेढ़ करोड़ रुपये खर्च होते हैं। अब चूंकि संसद की कार्यवाही प्रतिदिन 6 घंटे चलनी होती है, ऐसे में संसद के दोनों सदनों में दोनों पक्षों के विरोध, हो-हल्ले और शोर के कारण जनता के खून-पसीने की कमाई के प्रतिदिन करीब 9 करोड़ रुपये बर्बाद हो जाते हैं।
गंभीर चिंतन का विषय है कि वर्षों की गुलामी के बाद मिली आज़ादी को आज हम जिस रूप में संजोकर रख पाए हैं, वह 77 वर्षों में ही कितना विकृत हो चुका है। आज़ादी के दीवानों ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि जिस देश को आज़ाद कराने के लिए वे इतनी कुर्बानियां दे रहे हैं, वहां कुछ दशकों में ही आज़ादी की तस्वीर ऐसी हो जाएगी। हालांकि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश ने विकास के मार्ग पर तेजी से कदम बढ़ाए और विकास के अनेक सोपान तय किए हैं। तकनीकी कौशल हासिल करते हुए देश अंतरिक्ष तक जा पहुंचा है और चांद पर भी तिरंगा लहरा दिया है। लेकिन महिलाओं से दुर्व्यवहार की लगातार बढ़ती घटनाएं और समाज में अपराधों की बढ़ती सीमा को देख बुजुर्ग तो अब कहने लगे हैं कि गुलामी के दिन तो आज की आज़ादी से कहीं बेहतर थे, जहां अपराधों को लेकर मन में भय तो व्याप्त रहता था किन्तु कड़े कानून बना दिए जाने के बावजूद अपराधियों के मन में अब किसी तरह का भय नहीं दिखता। ‘सैयां भये कोतवाल तो डर काहे का’ कहावत हर कहीं चरितार्थ हो चली है। देश के कोने-कोने से सामने आते अबोध बच्चियों और महिलाओं के साथ हो रहे अपराधों के बढ़ते मामले आज़ादी की बेहद शर्मनाक तस्वीर पेश कर रहे हैं। कोलकाता में महिला डॉक्टर के साथ जिस तरह की दरिंदगी की गई है, ऐसे मामलों को देखते हुए और क्या कहा जाए? देश में महंगाई सुरसा की तरह बढ़ रही है, आतंकवाद की घटनाएं पग पसार रही हैं, आरक्षण की आग रह-रहकर देश को जलाती रहती है। इस तरह के हालात निश्चित तौर पर देश के विकास के मार्ग में बाधक बनते हैं। हर कोई सत्ता के इर्द-गिर्द राजनीतिक रोटियां सेंकता नज़र आ रहा है, कोई सत्ता बचाने में लगा है तो कोई गिराने में। संसद और विधानसभाओं में हंगामे आए दिन की बात हो गई है।
आज़ादी के बाद सामाजिक और आर्थिक पहलू पर देश में कमजोर तबके का स्तर सुधारने की नीयत से लागू आरक्षण के राजनीतिक रूप ने देश को आज उस चौराहे पर लाकर खड़ा कर दिया है, जहां समूचा देश रह-रहकर जातीय संघर्ष के बीच उलझता दिखाई देता है। स्वार्थपूर्ण राजनीति ने माहौल को इस कदर विकृत कर दिया है, जहां से निकल पाना संभव ही नहीं दिखता। राजस्थान हो या उत्तर प्रदेश, हरियाणा हो या गुजरात अथवा महाराष्ट्र, आरक्षण के नाम पर उठते विध्वंसक आन्दोलनों की आग में से जब-तब बुरी तरह झुलसते रहे हैं और हर कोई इस तरह के परिवेश का राजनीतिक लाभ लेने की कवायद में जुटा नज़र आता है। आज़ादी के बाद के इन करीब साढ़े सात दशकों में भ्रष्टाचार और अपराध इस कदर बढ़ गए हैं कि आम आदमी का जीना दूभर हो गया है। बगैर लेन-देन के प्राय: कोई कार्य सम्पन्न नहीं होता। बड़े नेता की तो कौन कहे, छुटभैया नेताओं की भी चांदी हो चली है। आज़ादी के बाद लोकतंत्र के इस बदलते स्वरूप ने आज़ादी की मूल भावना को बुरी तरह तहस-नहस कर डाला है। यह आजादी का एक शर्मनाक पहलू ही है कि गिने-चुने मामलों को छोड़कर हत्या, भ्रष्टाचार, बलात्कार जैसे संगीन अपराधों से विभूषित जनप्रतिनिधि अक्सर सम्मानित जिंदगी जीते रहते हैं। देश के ये बदले हालात आज़ादी के कौन से स्वरूप को उजागर कर रहे हैं, विचारणीय है।
ऐसे बदरंग हालातों में यह सवाल रह-रहकर सिर उठाने लगता है कि आखिर कैसी है ये आज़ादी? आखिर आजादी का अर्थ क्या है? इस प्रश्न का उत्तर तब तक नहीं दिया जा सकता, जब तक कि यह न जान लिया जाए कि स्वतंत्र होना आखिर कहते किसे हैं? देश को? व्यक्ति को? समाज को? यह जानना भी ज़रूरी है कि क्या कुछ बुनियादी मानवाधिकारों से वंचित व्यक्ति, समाज या देश को स्वतंत्र कहा जा सकता है? क्या भोजन, कपड़ा और रहने की व्यवस्था, बीमारी से बचाव, भय-आतंक, शोषण व असुरक्षा से छुटकारा, साक्षर एवं शिक्षित होने के पर्याप्त अवसर मिलना और अन्य ऐसी ही कई बातें मानव के बुनियादी अधिकार नहीं हैं? क्या शोषण और उत्पीड़न से मुक्ति के संघर्ष को मानव का बुनियादी अधिकार नहीं माना जाना चाहिए? लोकतंत्र के हाशिये पर खड़ी देश की जनता को इस दिशा में फिर से मंथन करना आवश्यक हो गया है कि वह किस तरह की आजादी की पक्षधर है? आज की आज़ादी, जहां तन के साथ-साथ मन भी आज़ाद है, सब कुछ करने के लिए, चाहे वह वतन के लिए अहितकारी ही क्यों न हो, या उस तरह की आज़ादी, जहां वतन के लिए अहितकारी हर कदम पर बंदिश हो। आज की आज़ादी, जहां स्वहित राष्ट्रहित से सर्वोपरि होकर देशप्रेम की भावना को लीलता जा रहा है, या वह आज़ादी, जहां राष्ट्रहित की भावना सर्वोपरि स्वरूप धारण करते हुए देश को आज़ाद कराने में गुमनाम लाखों शहीदों के मन में उपजे देशप्रेम का जज्बा सभी में फिर से जागृत कर सके। इस तरह के परिवेश पर सभी देशवासियों को आज़ादी के इस पावन पर्व पर सच्चे मन से मंथन कर सही दिशा में संकल्प लेने की भावना जागृत करनी होगी, तभी आज़ादी के वास्तविक स्वरूप को परिलक्षित किया जा सकेगा।

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