पति की मौत के बाद घर चलाने के लिए फिल्मों में आईं - दुर्गा खोटे

फिल्म ‘मुगले-आज़म’ में सिंदूर व संतान की जंग में फंसी जोधा बाई की भूमिका में दुर्गा खोटे थीं। उन्होंने अपने सशक्त अभिनय से सिने प्रेमियों को इतना अधिक प्रभावित किया था कि आज भी जब कभी जोधा बाई का कहीं नाम आता है तो आंखों के सामने दुर्गा खोटे की ही तस्वीर आ जाती है। लेकिन इस सफलता को हासिल करने तक का सफर उनके लिए आसान न था। 
दुर्गा खोटे का जन्म 14 जनवरी, 1905 को एक इज्ज़तदार घराने में हुआ था। जब वह मात्र 18 साल की थीं तो उनकी शादी एक बेहद अमीर खानदान में कर दी गई। मैकेनिकल इंजीनियर विश्वनाथ खोटे के साथ दुर्गा का विवाहित जीवन बहुत अच्छा चल रहा था। हर तरफ खुशियां ही खुशियां थीं। कहीं कुछ कमी न थी। उनके घर में एक के बाद एक दो बेटों ने जन्म लिया तो घर में रौनक व खुशियां दोगुनी हो गईं। लेकिन न जाने क्यों अच्छा समय अधिक दिनों तक टिकता नहीं है, दिन के बाद काली रात आ ही जाती है। दुर्गा के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। अभी उनकी शादी को कुछ ही समय हुआ था कि मात्र 26 वर्ष की आयु में वह विधवा हो गईं। उन पर जैसे मुसीबतों का पहाड़ टूट गया हो। विधवाओं की स्थिति तो आज भी कुछ खास अच्छी नहीं रहती, 1925 में तो हालात बद से बदतर ही कहे जा सकते थे। फिर दुर्गा के सामने आर्थिक तंगी भी बड़ी समस्या बनकर खड़ी हो गई थी। 
अपमान के घूंट पीते हुए दुर्गा कुछ वक्त तक तो अपने दोनों बेटों के साथ अपनी सुसराल में रहीं, लेकिन ‘इतनी मनहूस है कि आते ही हमारे बेटे को खा गई’, ‘कहीं मरती भी नहीं कि हमारे टुकड़ों पर पल रही है’, जैसे ताने कोई सुबह शाम कैसे सुन सकता है, कैसे बर्दाश्त कर सकता है? ऐसे में दुर्गा ने फैसला किया कि अपने सामाजिक व आर्थिक हालात उन्हें ही बेहतर करने होंगे। उस समय एक विधवा के लिए यह बहुत बड़ा फैसला था। दुर्गा पढ़ी-लिखी थीं। वह बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने लगीं ताकि कुछ आमदनी का सिलसिला आरंभ हो। फिर एक दिन उन्हें फिल्म ‘फरेबी जाल’ में काम करने का ऑफर मिला। यह वह दौर था जब बॉलीवुड में अभिनेत्रियों के लिए कोई स्थान नहीं था। महिलाओं का किरदार भी पुरुष ही निभाया करते थे। अच्छे घरों की महिलाएं तो क्या, कोठे की तवायफें भी फिल्मों में काम करना पसंद नहीं करती थीं। तब बोलती फिल्मों की भी शुरुआत हो रही थी।
चूंकि ट्यूशन पढ़ाने से भी कुछ खास आमदनी नहीं हो रही थी क्योंकि उन दिनों शिक्षा को लेकर अधिक गंभीरता न थी और प्राइवेट टीचर को पैसा देना फिजूल समझा जाता था, अधिकतर परिवार गरीबी के कारण पैसा देने की स्थिति में भी न थे, इसलिए आर्थिक तंगी की मजबूरी के चलते दुर्गा ने फिल्म में भूमिका को कबूल कर लिया। ‘फरेबी जाल’ फरेबी ही निकली। दुर्गा की भूमिका मात्र दस मिनट की थी, जो संभवत: उन्होंने इसलिए भी स्वीकार कर ली थी कि उन्हें फिल्मों की कोई जानकारी न थी। फिल्म का कंटेंट इतना खराब था कि रिलीज़ होते ही बॉक्स ऑफिस पर बुरी तरह से फ्लॉप हो गई। दुर्गा को सामाजिक आलोचना का अतिरिक्त सामना करना पड़ा।
आलोचनाओं के कारण फिल्मोद्योग में कदम रखते ही दुर्गा के पैर लड़खड़ा गये। उन्होंने फिल्मों से दूरी बना ली। लेकिन किस्मत को तो कुछ और ही मंज़ूर था। संयोग से ‘फरेबी जाल’ निर्देशक वी शांताराम ने देख ली और उनकी नज़र दुर्गा पर पड़ी। उन्हें दुर्गा में प्रतिभा नज़र आयी, जिसे वह निखारकर दुनिया के सामने ला सकते थे। उन्होंने अपनी फिल्म ‘अयोध्येचा राजा’ में मुख्य पात्र तारामती का किरदार निभाने का ऑफर दुर्गा को दिया। इस फिल्म को प्रभात स्टूडियो दोनों हिंदी व मराठी भाषाओं में बना रहा था। दुर्गा ने प्रस्ताव मिलते ही अपने पिछले कटु अनुभव के कारण उसे ठुकरा दिया। शांताराम के समझाने पर दुर्गा खुद को दूसरा अवसर देने के लिए तैयार हो गईं। इस फिल्म के रिलीज़ होने से पहले दुर्गा को ज़बरदस्त डर व घबराहट थी, उन्हें लग रहा था कि सामाजिक आलोचनाओं के बाण फिर से उन्हें छलनी करेंगे। लेकिन फिल्म जब पर्दे पर आयी तो दुर्गा की भूमिका व अदाकारी को बहुत पसंद किया गया। सफलता हालात बदल देती है, आलोचनाओं पर भी विराम लग जाता है और विरोधी भी तारीफ के पुल बांधने लगते हैं। इसके बाद तो दुर्गा ने प्रभात स्टूडियो की दूसरी फिल्म ‘माया मच्छिन्द्र’ भी की, जिसमें वह एक ऐसी रानी की भूमिका में थीं जिसका पालतू जानवर चीता था। इस फिल्म की कामयाबी ने दुर्गा को बतौर हीरोइन स्थापित कर दिया था। दुर्गा ने बॉलीवुड में महिलाओं के लिए नये द्वार खोल दिए।  
दुर्गा ने हिंदी व मराठी फिल्मों के अतिरिक्त बंगाली फिल्मों में भी काम किया। फिल्मों में काम करते हुए ही दुर्गा के दोनों बेटों हरिन व बकुल में से हरिन का निधन हो गया था। इससे उन्हें गहरा सदमा लगा और मां व दादी की भूमिकाओं में जो करुणा वह व्यक्त करती थीं, उसकी पृष्ठभूमि में यह हादसा भी था। दुर्गा ने ख़ुद को अभिनय तक सीमित न रखा बल्कि फिल्म निर्माण में भी हाथ आज़माया। उन्होंने अपने दूसरे पति राशिद खान के साथ मिलकर ‘फैक्ट फिल्म्स प्रोडक्शन हाउस की स्थापना की और अनेक शोर्ट फिल्मों का निर्माण किया, जिन्हें बहुत पसंद किया गया। दुर्गा हमेशा अंतर्राष्ट्रीय फिल्म उत्सवों में हिस्सा लेती थीं, जिससे उनमें अच्छी फिल्म निर्माण की समझ आ गई। अपने पांच दशक से अधिक के फिल्मी करियर में दुर्गा ने 200 से ज्यादा फिल्मों में काम किया। उनकी अंतिम फिल्म ‘कज़र्’ थी जो 1980 में आयी थी। इसके बाद दादा साहेब फाल्के अवार्ड विजेता दुर्गा खोटे ने बिगड़ते स्वास्थ्य के कारण फिल्मों को अलविदा कह दिया। 22 सितम्बर, 1991 को 86 वर्ष की आयु में उनका मुंबई में निधन हो गया।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर 

#पति की मौत के बाद घर चलाने के लिए फिल्मों में आईं - दुर्गा खोटे