हरियाणा तथा पंजाब की कृषि, पराली और प्रदूषण
संयुक्त किसान मोर्चा एवं किसान मज़दूर संघर्ष कमेटी तथा सरकार के बीच गत 9 माह से चले आ रहे तनाव को सेवामुक्त जस्टिस नवाब सिंह के नेतृत्व वाली कमेटी भी किसी किनारे नहीं लगा सकी। इसके बेनतीजा रहने का मुख्य कारण किसानों की मांगों को सरकार द्वारा अस्वीकार करना है। धरना भी पहले की तरह जारी रहेगा और सरकार द्वारा अपनी ज़िद पर अड़े रहने की स्थिति में किसान नेता जगजीत सिंह डल्लेवाल शम्भू या खनौरी में भूख हड़ताल पर भी बैठ सकते हैं।
दिल्ली तथा इसके निकटवर्ती क्षेत्रों में विशेषकर हरियाणा तथा पंजाब राज्यों में पराली जलाने तथा पटाखों के इस्तेमाल के कारण पैदा हुए प्रदूषण ने भी सुप्रीम कोर्ट का ध्यान आकर्षित किया है। यहां तक कि शीर्ष न्यायालय को सरकार तथा सरकारी अधिकारियों की मिलीभगत पर फटकार लगानी पड़ी है। यह कह कर कि शुद्ध जलवायु की प्राप्ति प्रत्येक मानव का मूलभूत अधिकार है। अदालत द्वारा संबंधित राज्यों, इनके नागरिकों तथा अधिकारियों से आवश्यक जवाब मांगना इस मामले को हल करने की ओर एक बड़ा कदम है।
सुप्रीम कोर्ट की ताज़ा फटकार तथा सख्ती ने यह तथ्य भी उजागर किया है कि पराली जलाने का विकल्प ढूंढना भी इतना आसान नहीं। इसे सरकारी तथा गैर-सरकारी संगठनों का अपेक्षित तालमेल ही अच्छे नतीजे दे सकता है। इसलिए सरकारों तथा उनके अधिकारियों को चाहिए कि किसान संगठनों को आवश्यक राशि जारी करते समय अपने पांव पीछे न खींचें। यह मामला मानवता के अस्तित्व एवं स्थायीपन से जुड़ा हुआ है। आशा है कि सुप्रीम कोर्ट, सरकारें एवं किसान संगठन आवश्यक कार्रवाई की ओर तुरंत ध्यान देंगे और अगले उत्सव तक प्रतीक्षा नहीं कर सकेंगे।
शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले
पंजाब का इतिहास शहीदों की अद्वितीय कुर्बानियों से भरा पड़ा है। उन्हें प्रत्येक वर्ष नये से नये अंदाज़ में याद भी किया जाता है। शहीद-ए-आज़म भगत सिंह की कुर्बानी इनका सिरताज मानी जाती है। यदि बस्तीवादी गोरी सरकार उन्हें गुनाहगार मानती थी तो वह डेढ़ करोड़ भारतीयों में मन में बसते थे। उनकी याद ऐसे प्रकाश पुंज की भांति है जो वर्षों तक लोगों का मार्गदर्शक बना रहेगा।
2024 के सितम्बर माह से इसका रूप हरीश जैन के नाटक ‘गुनाहगार’ का रूप धारण करके सामने आया है। केवल धालीवाल के निर्देशन में तैयार हुए इस नाटक की पेशकारी रंग-मंच नामक थिएटर ग्रुप द्वारा की जा रही है। नाटक नाटक की शुरुआत 8 अप्रैल, 1929 को दिल्ली असैम्बली में बम फटने से शुरू होती है। बम फैंकने वालों की इस घोषणा से कि बम का इस्तेमाल इसलिए किया गया कि बहरों के कान खोलने के लिए बड़े धमाके की ज़रूरत होती है। उनके इन शब्दों से कि यह असैम्बली जो कानून बना रही है, वे देश के हक में नहीं हैं। यह भी कि बम धमाके ने देश के सो रहे जनमानस को झिंझोड़ा तथा ‘इन्कलाब ज़िन्दाबाद’ का नारा गली-गली गूंजने लगा। इस औचक ‘एक्शन’ ने सरकार को हिला दिया, परन्तु उन्होंने अपनी जब्री कार्रवाइयों को अंजाम देने के लिए देर न लगाई। दिल्ली के सैशन जज ने 12 जून, 1929 को बामुशक्कत उम्र कैद तथा काला पानी की सज़ा सुना दी। इस फैसले के खिलाफ भगत सिंह तथा बी.के. दत्त ने लाहौर हाईकोर्ट में अपील दायर की जिसकी सुनवाई 8 जनवरी, 1930 को जस्टिस सीसिल फोर्ड तथा जस्टिस एंडीसन की दोहरी पीठ ने की। एडवोकेट आसिफ अली बी.के. दत्त की तरफ से पेश हुए और भगत सिंह ने अपनी पैरवी स्वयं की। सरकार तथा अदालत के लिए यह सामान्य अमन-कानून का मामला था जिसमें उन्हें बम फैंकने जैसे गम्भीर दोष के अधीन कानून के अनुसार बनती सज़ा दी गई थी, परन्तु भगत सिंह तथा दत्त की ओर से ये विचारधाराओं का आपसी टकराव था। आज़ादी के लिए लड़ना प्रत्येक मनुष्य का प्राकृतिक अधिकार था। कोई कानून तथा अदालत इसे छीन नहीं सकती। बहस तीन दिन लगातार चली। आसिफ अली की ओर से यह ऐतिहासिक मुकद्दमा था। भगत सिंह ने अपना पक्ष रखते हुए कहा कि अदालत के इस धमाके के पीछे काम करती सभी भावनाओं पर विचार करना चाहिए। भगत सिंह ने कहा कि कानून साधन मात्र है, उद्देश्य नहीं। उद्देश्य तो न्याय है। अदालत को कानून से अधिक न्याय की ओर ध्यान देना चाहिए। फैसला तो सरकार की इच्छा के अनुसार ही होना था। उनकी सज़ा बरकरार रही, परन्तु उनके लिए तो लड़ाई का उद्देश्य अपनी विचारधारा को लोगों तक ले जाना था। हरीश जैन का यह नाटक ‘गुनाहगार’ उनकी जद्दोजहद की तर्जमानी करता है। विदेशी अदालत की कुल बाधाओं के बावजूद भगत सिंह ने अपने विचार निरन्तर पेश किए। भारत के स्वतंत्रता संग्राम की यह अद्वितीय एवं बेमिसाल कहानी है जिस पर अब तक कोई ध्यान नहीं दिया गया। इस केस में लोगों तथा सरकार की इतनी दिलचस्पी थी कि हाईकोर्ट के पांच जजों की पत्नियां बहस सुनने आईं तथा अदालत में पूरा दिन उपस्थित रहीं। हरीश जैन का लिखा तथा केवल धालीवाल द्वारा निर्देशित यह नाटक उन यादगारी तीन दिनों की दास्तान हूबहू पेश करता है और दर्शकों को महसूस होता है कि जैसे वह लाहौर हाईकोर्ट के कमरे में ही बैठे हों। यह नाटक अमृतसर के विरसा विहार भवन तथा गुरबख्श सिंह प्रीत लड़ी के प्रीत नगर एवं चंडीगढ़ में एम.एस. रंधावा द्वारा स्थापित पंजाब कला भवन में खेला जा चुका है। नाटक की कहानी, निर्देशन, अदाकारी, संगीत तथा रौशनी दर्शकों पर एक गहरा प्रभाव डालते हैं और दर्शक न चाहते हुए भी भगत सिंह के साथ ‘इन्कलाब ज़िन्दाबाद’ के नारे के साथ जुड़ जाते हैं। यह नारा जितना अपने समय में अर्थ भरपूर था और साम्राज्य को चुनौती देता था, आज भी उतना ही अर्थ भरपूर है।
जिस दिन यह नाटक पंजाब कला भवन में खेला गया, दर्शकों में दास भी उपस्थित था। गुनाहगार भगत सिंह तथा एडवोकेट आसिफ अली के शब्दों में जान थी और गोरे जज की अदाकारी सबको मात देती थी। कचहरी में जिरह सुनने आईं जजों की पत्नियों की घटना ने ही हरीश जैन को यह नाटक लिखने के लिए उत्साहित किया। निर्देशक धालीवाल ने समय तथा स्थान की सीमाओं के दृष्टिगत दो जजों के स्थान पर केवल एक जज दिखाया है और जजों की पत्नियां भी पांच के स्थान पर दो ही दिखाई हैं।
अंतिका
—हरदम मान—
अजे तां बहुत कुझ रहिदां है तैअ करना ज़मीन उत्ते
करांगे फेर कोई गल्ल दिसदे तों अगाहां दी
असाडे रस्तियां ’चों खुद पहाड़ां ने परे होना
जदों वी जुड़ गई शक्ति इन्हां सेजोड़ बातां दी।