थोड़ी-सी छांव
(क्रम जोड़ने के लिए पिछला रविवारीय अंक देखें)
छुट्टी वाले दिन रखी गोष्ठी में वह सहज रहती थी लेकिन उसके शांत से चेहरे के पीछे इतने तूफान उमड़ते रहते होंगे, यह भेद आज ही खुला। मन की गुफाओं में हर आदमी कितना कुछ छिपाये रखता है! फिर मैंने सृष्टि की कविताओं के विषयों पर ध्यान दिया तो और भी हैरान हो गया! सृष्टि की कविताओं में असल में यही तीन पन्नों वाली बात बार-बार आ रही थी। किसी बच्ची के साथ जन्म के बाद से ही भेदभाव समाज में, परिवार में और फिर यह भेदभाव शादी ब्याह के बाद भी बढ़ते चले जाना! चाहे मायका हो या ससुराल नारी के मन की बात कोई सुनने को, मानने को तैयार नहीं! न उसकी रुचियों का सम्मान और न ही उसकी भावनाओं की कद्र! करे तो क्या करे? जाये तो जाये कहां? सृष्टि सचमुच घुट-घुट कर जी रही थी, पल-पल मर रही थी लेकिन बेटों से प्यार उसे जीने के लिए एक रास्ता, एक खूबसूरत बहाना बना हुआ था! ये कवितायें उसके करवाचौथ वाले दिन लिखे तीन पन्नों की देखा जाये तो काव्यमयी अभिव्यक्ति कही जा सकती हैं। एक नन्ही बच्ची प्यार का थोड़ा सा आंचल मांग रही है, एक नारी अपने मन का करने की आज़ादी मांग रही है और किसी ऐसे अनदेखे संसार की कल्पना में खोई हुई है, जहां उसे अपने मन का करने की आज़ादी होगी! ये कवितायें सृष्टि की छिपी हुई, आधी अधूरी चाहतें कही जा सकती हैं! नारी संघर्ष करे तो कैसे? जैसे जीने की एक राह तलाश रही थी सृष्टि!
आखिर मैंने डायरी में लिखी सभी कवितायें पढ़ लीं और सृष्टि को बता दिया कि कवितायें पढ़ ली हैं और फुटनोट दे दिये हैं, किसी भी दिन आकर ले जाओ अपनी डायरी! सृष्टि ने कहा कि सर, किसी छुट्टी वाले दिन आ जाऊंगी और वह एक दिन फोन करके आ भी गयी!
थोड़े से जलपान के बाद मैंने उसकी डायरी के वे पन्ने खोलकर सृष्टि के सामने रख दिये!
सृष्टि को पन्ने देखते ही जैसे कुछ याद आया, जैसे उसकी चोरी पकड़ी गयी हो और उसके चेहरे पर भी संकोच और लाज के रंग दिखने लगे! कुछ देर बाद संयत होकर बोली-सर! बस, उस दिन मैंने अपने मन का गुबार अपनी सखी डायरी को सुना दिया पर आपको डायरी देते इन पन्नों की ओर ध्यान न गया मेरा! माफ कीजिये!
-पर ऐसा लिखना ही क्यों पड़ा सृष्टि?
मेरे अंदर का पत्रकार जाने कहां से निकल आया बाहर एकदम से!
-सर! ये बात मेरे बचपन से जुड़ी है।
-कैसे?
-मैं नौवीं में पढ़ती थी और एक रात जब हम भाई बहन खा पीकर सो गये लेकिन मैं अधसोई सी थी। तब मेरे बाबा मां को कहने लगे कि बेटियां बड़ी हो गयी हैं, अब इनकी शादी करेंगे नहीं तो क्या पता क्या दिन दिखायें! मैंने मन ही मन प्रण कर लिया कि मैं अपने बाबा का सिर कभी नीचा न होने दूंगी और फिर दसवीं पढ़ते पढ़ते मेरी और बड़ी बहन की एक ही घर में शादी हो गयी, ये दोनों सगे भाई थे। मैं पढ़ना चाहती थी लेकिन शादी कर एक तरह से मेरी राहें बंद करने की कोशिश की बाबा ने।
-फिर? बचपन की शादी कैसी लगी?
-बिल्कुल वैसी ही जैसी महात्मा गांधी ने लिखा कस्तूरबा के बारे में कि अच्छे अच्छे कपड़े मिलेंगे और खेलने के लिए एक साथी!
-तो मिला फिर साथी?
-नहीं न! ये प्लस टू पढ़े थे और दिन भर दोस्तों के बीच बिताकर आते थके हारे! नयी नवेली दुल्हन का चाव नहीं मन में! फिर इनकी नौकरी लग गयी फौज में! कभी लम्बी छुट्टी आते पर साथ आती मेरी सौतन शराब!
-फिर आगे कैसे पढ़ी सृष्टि?
-मैंने मना लिया ससुराल वालों को और कॉलेज में एडमिशन ले लिया। इससे मैं सासू की झिड़कियों से भी बच गयी। सासू यहां तक कहती कि इसे तो झाड़ू लगाना भी नहीं आता और घूंघट भी ढंग से नहीं निकालती! ये आते तो कॉलेज थोड़ा मिस होता। बाकी मैं ग्रेजुएशन ही नहीं, बी.एड. भी कर गयी और प्राइवेट एम.ए. भी! बीच में दो प्यारे प्यारे बेटे भी सौगात की तरह आये!
-कभी साथ नहीं गयी सृष्टि?
-गयी! एक बार जिद्द करके गयी कि हमें भी अपने साथ ले चलो और कुछ समय रही पर बच्चों की पढ़ाई एक जगह टिक कर करवाने के लिए यहीं लौट आई और देखो बच्चे बन भी गये, अच्छी जॉब पर भी लग गये हैं!
-अब क्या फिक्र है सृष्टि?
-मेरी वही सौतन शराब इनके साथ लौट आई है रिटायरमेंट के बाद! ये मेरे पास होते हुए भी जैसे मेरे पास नहीं होते! ऊपर से शक का कीड़ा बढ़ता ही जा रहा है और बस, मैं तंग आ गयी इस सबसे और लिख डाले ये पन्ने, कह डाला डायरी सखी को अपना सारा दुख दर्द! एक बार तो मन हल्का कर लिया, सर पर आज...
-शक कैसा?
-बहुत शक्की हैं मेरे हसबैंड, सर! अब स्कूल में जॉब कर रही हूं तो किसी क्लीग का दफ्तर के काम से फोन आयेगा और ये ढेरों सवाल करने लग जायेंगे! अब गोष्ठियों में आऊं तो सवाल कौन हैं तेरे वहां? दूसरे दिन का अखबार दिखाती हूं कि ये थे मेरे वहां! फिर सृष्टि की आवाज़ लड़खड़ाने लगी और फिर उसकी आंखें में आंसुओं की धारा बहने लगी! मैंने उसे रोका नहीं लेकिन मेरा पत्रकार शर्मिंदा होकर रह गया, शायद वह लक्ष्मण रेखा लांघ गया था! सृष्टि के जीवन में इस तरह झांकने का मेरा कोई अधिकार नहीं था। इसलिए भाग गया और मैं एक संवेदनशील व्यक्ति बन कर लौटा और सृष्टि के कंधे थपथपाते पूछा-अब क्या सृष्टि?
-बस, सर थोड़ी सी छांव चाहिए, पूरा जीवन धूप में नंगे पांव चलते चलते काट दिया! पांवों पर तो नहीं मन पर न जाने कितने बोझ बढ़ते गये! उफ्फ !
मैं कुछ कह न सका और सृष्टि आंसुओं को समेटती, डायरी उठाकर चल दी! (समाप्त)
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