पचास साल का हुआ आपात्काल

प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का नाम जब भी सामने आता है और कुछ याद आये न आये, आपात्काल ज़रूर याद आएगा। इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं, जब 25 जून, 1975 को देश के भीतर ‘आंतरिक अशांति’ के नाम पर आपात्काल घोषित कर दिया गया। घटना के गुज़रे पचास साल हो गए हैं लेकिन आपात्काल का इतिहास बोलता है। देश की ‘आंतरिक अशांति’  तो दृष्टिगत हुई नहीं, जो कुछ तथ्यपरक था, वह यह कि आपात्काल की घोषणा उन्हें अपनी कुर्सी बचाने के लिए करनी पड़ी। तिस पर हुआ यह कि 1977 में ही उन्होंने स्वयं ही आपात्काल हटा दिया और चुनाव की घोषणा कर दी। पत्रकार, देश के नागरिक, राजनीतिज्ञ सभी के लिए हैरान रह जाने वाला अवसर  था।
आज भी कांग्रेस पार्टी के विपक्षी नेता किसी भी बात पर आपात्काल लगाने पर कटाक्ष करते हैं और कांग्रेस के पास इसका कोई माकूल जवाब नहीं होता। बात शुरू होती है 12 जून, 1975 के दिन से। सुबह के लगभग दस बजे के समाचार बुलेटिन में यह समाचार दिया गया कि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी को चुनावों में अनुचित आचरण का दोषी पाकर उनकी संसद सदस्यता समाप्त कर दी है। उसी दिन की शाम कांग्रेस पार्टी के लिए बुरा समाचार लेकर आई कि गुजरात में उनकी पार्टी को चुनाव में पराजय का सामना करना पड़ा। इंदिरा जी ने तब गुजरात में सक्रियता के साथ चुनाव प्रचार किया था, लेकिन युवा पीढ़ी के नव-निर्माण आंदोलन ने उनकी उम्मीद पर पानी फेर दिया। बांग्लादेश विभाजन में जो नाम कमाया था, वह धूमिल पड़ रहा था। उन्होंने इस बात पर ज़रूर सोचा होगा कि वह उच्चतम न्यायालय से दोष मुक्त घोषित होने तक त्याग-पत्र पेश करे और अपने किसी आत्मीय, विश्वसनीय, मुनासिब शख्स को प्रधानमंत्री बना दें, लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। 24 जून के दिन उच्च न्यायालय ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के निर्णय पर स्टे देने से इन्कार कर दिया। इतना ही नहीं यह आदेश भी दिया कि इंदिरा जी लोकसभा की कार्यवाही में हिस्सा नहीं ले पाएंगी न ही मतदान कर पाएंगी। 25 जून यानी अगले दिन रात के समय अपने मंत्रिमंडल के साथ कोई संवाद किये बिना आपात्काल की घोषणा कर दी गई। 25 जून को बहुत कुछ घटा। उस समय के बड़े नेता जय प्रकाश नारायण सहित अनेक विपक्ष के नेताओं ने दिल्ली के रामलीला मैदान में सभा की। इसी सभा में जे.पी. ने उद्घोष कर दिया -‘सिंहासन खाली करो जनता आती है’ इस सभा के बाद जे.पी. दिल्ली के ही गांधी शांति प्रतिष्ठान में ठहरे थे। तड़के तीन बजे वहीं पुलिस उन्हें गिरफ्तार करने चली आई। इतना ही नहीं अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण अडवाणी, मोरारजी देसाई, चरण सिंह, चन्द्रशेखर सभी को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। अन्य अनेक विपक्षी नेता, संघ कार्यकर्ता तथा जिस भी शख्स पर ज़रा-सा भी संदेह होता था, सभी की धरपकड़ शुरू हो गई। इंदिरा जी का विरोध भारी पड़ रहा था। लगभग तीन चार महीने तक ऐसे लोगों के परिवारों को भी सूचना नहीं थी कि वे कहां हैं, किस हालत में हैं। यहां से लेकर लगातार इक्कीस महीने तक मैडम ने मौलिक अधिकार समाप्त कर दिए।
प्रत्येक घटना अपनी सीख छोड़ कर जाती है। कांग्रेस पार्टी के लिए यह अभिशाप बना रहा। तीन-चार साल पहले राहुल गांधी को स्वीकार करना पड़ा कि आपात्काल एक बड़ी गलती थी। विपक्ष के कुछ लोग वर्तमान शासन को भी अघोषित आपात्काल का नाम देते हैं। यह सबक तो ज़रूर मिला कि जनता के मौलिक अधिकारों से खेलना आग से खेलने जैसा है।

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