पंजाब की माटी के ऋषि स्वरूप सपूत पंडित श्रद्धाराम फिल्लौरी
आज पुण्यतिथि पर विशेष
भारत वर्ष की सांस्कृतिक, धार्मिक और सामाजिक की चेतना में कई ऐसे महापुरुष हुए जिन्होंने कलम, भक्ति व क्रांति से देश को नई दिशा दी। ऐसी ही विभूतियों में पंजाब की पुण्य धरा पर जन्मे पंडित श्रद्धाराम फिल्लौरी का नाम बड़े सम्मान और श्रद्धा के साथ लिया जाता है। वह न केवल एक प्रखर साहित्यकार और समाज-सुधारक थे, बल्कि सनातन धर्म की जनभावनाओं के संवाहक और देश के स्वतंत्रता संग्राम के संवेदनशील सिपाही भी थे।
पंडित श्रद्धाराम का जन्म 1837 में पंजाब के जालंधर ज़िले के फिल्लौर कस्बे में हुआ। अत्यंत कम आयु में ही वह संस्कृत, वेद, ज्योतिष और हिंदी साहित्य में पारंगत हो गए थे। उनका झुकाव धर्म और संस्कृति की सेवा की ओर रहा। उन्होंने अपने लेखन और प्रवचनों से समाज को जागरूक किया। उनका जीवन एक मिशन था जहां साहित्य, अध्यात्म और समाजसेवा एक-दूसरे से पूरक बन कर साथ चले।
भारत के स्वतंत्रता संग्राम की पृष्ठभूमि में पंडित श्रद्धाराम फिल्लौरी का योगदान साहित्य के माध्यम से था। वह मानते थे कि जनमानस को मानसिक गुलामी से मुक्त किए बिना राजनीतिक आज़ादी अधूरी रहेगी। इसी उद्देश्य से उन्होंने देश के पहली कतार प्रमुख हिंदी सामाजिक उपन्यासों में से एक ‘भाग्यवती’ की रचना की, जिसमें स्त्री शिक्षा, विधवा विवाह और सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार किया गया। वह महिलाओं को समान अधिकार और सम्मान देने के पक्षधर थे। उस युग में ऐसा दृष्टिकोण अत्यंत क्रांतिकारी था।
लेकिन जो रचना उन्हें अमर बना गई, वह है उनके द्वारा लिखित और गाई गई आरती- ‘ओम जय जगदीश हरे’। यह आरती आज भी देश के कोने-कोने में मंदिरों, घरों और धार्मिक आयोजनों में गूंजती है। इसकी सरल भाषा, भक्तिपूर्ण भाव व लयबद्ध प्रस्तुति ने इसे जन-जन के हृदय में प्रतिष्ठित कर दिया है। यह आरती केवल एक स्तुति नहीं, बल्कि सनातन धर्म की लोकशक्ति का प्रतीक बन गई है।
पंडित श्रद्धाराम फिल्लौरी धर्म को कर्मकांड से ऊपर मानते थे। उनका मानना था कि धर्म वह है जो मनुष्य को जोड़ता है, सिखाता है और भीतर से जागरूक करता है। उन्होंने आर्य समाज और सनातन परम्परा के बीच सामंजस्य का मार्ग प्रशस्त किया। अंग्रेज सरकार उन्हें एक ‘खतरनाक सुधारक’ मानती थी, क्योंकि वह धर्म की भाषा में स्वतंत्रता का संदेश देते थे। वह भजन-कीर्तन और प्रवचनों के माध्यम से लोगों को आत्म-गौरव और स्वराज्य के लिए प्रेरित करते रहे।
1881 में उनका निधन हुआ, परन्तु उनका लिखा हर शब्द आज भी जीवित है। उनके विचार, रचनाएं और आरती भारतीय जनमानस की चेतना में आज भी बसते हैं। वह उस भारत के प्रतीक हैं, जहां साहित्यकार धर्मप्राण भी होता है और राष्ट्रभक्त भी। उनकी अमर आरती, जो अब भारत के प्रत्येक घर और मंदिर में आराधना का अभिन्न अंग बन चुकी है, यह सुख के क्षणों में समृद्धि का प्रतीक बनती है व दुख में ढाढस बंधाने वाला संबल प्रदान करती है।
पंडित श्रद्धाराम फिल्लौरी केवल इतिहास की पुस्तक में दर्ज एक नाम नहीं हैं, वह भारत की आत्मा की आवाज़ हैं। उनकी लेखनी, उनकी आराधना और उनका दृष्टिकोण, आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने उस युग में थे। ऐसे युग-प्रवर्त्तक महापुरुष को कोटिश: नमन। पंडित श्रद्धाराम फिल्लौरी जी की स्मृति में देश-विदेश में विभिन्न स्थानों पर समारोह आयोजित करके उन्हें श्रद्धांजलियां अर्पित की जाती हैं व देश में इनकी विचारधारा व विरासत को आगे बढ़ाया जाता रहेगा।
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