मानववादी सिनेमा के पैरोकार वी. शांताराम

मुम्बई के सैंट्रल रेलवे स्टेशन  के बिल्कुल ही साथ लगती परेल की एक सड़क पर भी शांताराम का राज कमल स्टूडियो स्थित है। यह स्टूडियो फिल्म निर्माण से संबंधित हर तरह की सुविधाएं (डबिंग, रिकार्डिंग, प्रोसैसिंग, लैबोरेटरी, स्टीरियोफोनिक साऊंड आदि) प्रदान करता है। ‘शोले’ जैसी सुपरहिट फिल्म का साऊंड ट्रैक इन सुविधाओं के सहयोग के साथ ही तैयार किया गया था।इस चर्चित निर्माण केन्द्र को बनाने वाले शांताराम राजाराम वन्कुदरे की जीवन गाथा भी उनकी फिल्मों की तरह ही दिलचस्पी और गम्भीरता का मिश्रण प्रदान करती है। इनका जन्म 18 नवम्बर, 1901 को कोहलापुर में जैन मराठी पिता और हिन्दू माता के घर में हुआ था। वी. शांताराम का झुकाव शुरू से ही सिनेमा की ओर था। इसलिए उन्होंने कोहलापुर में स्थित बाऊ राव पेंटर की महाराष्ट्र फिल्म कम्पनी में नौकरी कर ली थी। कई तरह के फुटकल काम करने के बाद उनको बतौर अभिनेता ‘सुरेखा हरन’ नामक एक धार्मिक फिल्म में काम करने का अवसर दिया गया। इसके बाद उन्होंने अनेकों ही धार्मिक रंगत वाली फिल्मों में काम किया था। क्योंकि धार्मिक फिल्में बनाने का उस समय ज़ोर था, इसलिए शांताराम को भी यह परम्परा मजबूरीवश निभानी पड़ी थी। अगर उनके योगदान का सही से विश्लेषण किया जाए तो पता लगता है कि मूक मूवीज़ के जनक दादा साहिब फाल्के और टाकीज़ को अस्तित्व में लाने वाले आरदेशीर ईरानी के बाद शांताराम का ही नम्बर आता है। उन्होंने सिनेमा को जनता के उद्देश्य पूर्ण मकसद के लिए प्रयोग किया। अपनी इस सोच को साकार करने के लिए उन्होंने चार साथियों (कुलकर्णी, दामले, फत्तेलाल, घायेकर) के साथ मिल कर प्रभात फिल्म कम्पनी की पूना में स्थापना की। सामाजिक और सुधारवादी फिल्में बनाने की पहल इस कम्पनी ने ही की थी। प्रभात कम्पनी का इस समाजहित और देश हित जुनून का अंदाज़ा इस बात से भी लगता है कि इन्होंने धार्मिक फिल्मों में भी राष्ट्रीय चेतना पैदा करने की कोशिश की थी और सिनेमा को उस समय के राजनीतिक, आर्थिक हालात का प्रतिनिधि बनाने की कोशिश की थी। यह भी बात बिल्कुल ठीक है कि इस कम्पनी ने बहुत सारी फिल्में मराठी भाषा में बनाई थीं। 
लेकिन हिन्दी सिनेमा के लिए भी इन्होंने ‘दुनिया न माने’ )1937, ‘आदमी’ (1939) और ‘पड़ोसी’ (1941) जैसी देशों को कई दिशा देने वाली फिल्मों का निर्माण किया था। इन फिल्मों के आधार पर ही हिन्दी सिनेमा देश की जड़ों से जुड़ा था। इनमें ‘पड़ोसी’ फिल्म का अधिक ज़िक्र इसलिए आता है क्योंकि इसमें हिन्दू मुस्लिम एकता को प्रचारित किया गया था। इसमें दो नायक थे, लेकिन खूबसूरत बात यह थी कि मुसलमान किरदार को एक हिन्दू ने और हिन्दू पात्र को एक मुस्लिम ने रजतपट पर पेश किया था।
प्रभात में शांताराम की ‘पड़ोसी’ अंतिम फिल्म थी। दरअसल 1940 में ‘संत ज्ञानेश्वर’ के निर्माण के समय उनका अपने भाइयों से झगड़ा हो गया था। दामले और फत्ते लाल उनसे अलग हो गए। फिर जब दामले की मौत हो गई तो सभी हिस्सेदार अलग हो गए थे। गाने बनाने वाली एक कम्पनी ने इसी स्थान पर एफ.टी.आई.आई. (फिल्म ट्रेनिंग इंस्टीच्यूट ऑफ इंडिया) की स्थापना की थी। फिल्म निर्माण से संबंधित विभिन्न विषयों को सरकारी स्तर पर शिक्षा प्रदान करने वाली इस संस्था ने बॉलीवुड को अनेकों ही अच्छे कलाकार और टैक्नीशियन दिए हैं।
प्रभात से अलग हो कर वी. शांताराम मुम्बई आ गए, यहां उन्होंने राज कमल कला मंदिर की स्थापना की। शांताराम ने हमेशा ही कोई न कोई संदेश अपनी कला के ज़रिए देने की कोशिश की। उन्होंने खुद भी कई फिल्मों में काम किया और अपनी पत्नियों के (संध्या, जयश्री) के अलावा अपनी बेटी (राजश्री) को भी फिल्मों में काम करने की प्रेरणा दी। राजकमल के बैनर अधीन बनने वाली पहली फिल्म ‘शकुंतला’ (1949) थी। हालांकि यह एक मिथिहासिक फिल्म थी, लेकिन इसके माध्यम से शांताराम ने देश की नारी के साथ हो रहे अलग-अलग तरह के शोषण संबंधी गम्भीर मुद्दे उठाए थे। बाद में इसी विषय को लेकर उन्होंने ‘स्त्री’ (1961) फिल्म बनाई थी। इसके नायक वह खुद थे जबकि नायिका उनकी पत्नी ही थी। शांताराम की विशेषता यह थी कि वह सिर्फ प्रचारक ही नहीं थे बल्कि उनको सिनेमा की सभी विधियों (कलाओं) का सम्पूर्ण ज्ञान था। इसलिए उनकी फिल्मों का तकनीकी और सृजनात्मक पक्ष बहुत ही शक्तिशाली हुआ करता था। इस संबंधी उनकी 1955 में आई फिल्म ‘झनक-झनक बाजे पायल’ की उदाहरण भी दी जा सकती है। इस फिल्म में नृत्य की सृजृना संबंधी की जाने वाली तपस्या का वृत्तांत उन्होंने विषय पक्ष के रूप में लिया। फिल्म के नायक प्रसिद्ध नृतक गोपी कृष्ण थे।