मानववादी सिनेमा के पैरोकारवी. शांताराम

उदाहरण के तौर पर जब उन्होंने ‘दो आंखें बारह हाथ’ फिल्म बनाई तो इसके विषय को लेकर लोग आश्चर्यचकित हो गए थे। इसमें उन्होंने जेल में सजा काट रहे कैदियों को मानववादी दृष्टिकोण के साथ बदलने की सलाह दी थी। जब यह विषय गीतकार भगत व्यास ने सुना तो उनको इस रचना में गीतों का कोई भी स्थान नज़र नहीं आया था। लेकिन वी. शांताराम ने अपने ढंग के साथ जब उनको कहानी सुनाई तो परिणाम आश्चर्यजनक निकले थे। इसी फिल्म का एक गीत ‘ए मालिक तेरे बंदे हम’ तो बाकायदा देश के कई स्कूलों में रोज़ाना प्रार्थना के समय विद्यार्थियों के द्वारा गाया जाने लगा था। इसी तरह ‘कौन हो तुम कौन हो’ (स्त्री), गीत गाया पत्थरों ने (गीत गाया पत्थरों ने), जा रहे नटखट (नवरंग) और ‘पंख होते तो उड़ आती रे’ (सेहरा) आदि फिल्मों के गीत पटकथाओं में प्रासंगिक होने के अलावा संगीतक तौर पर मधुरता से भी भरपूर थे।इन गीतों का फिल्मांकन भी जिस कल्पनाशील ढंग से उन्होंने किया उससे सिनेमा के विद्यार्थी शिक्षा ले सकते हैं। ‘नवरंग’ का गीत ‘आधा है चंद्रमा, रात आधी और गीत गाया पत्थरों ने का टाइटल गीत और ‘मंडले तल गरीब’ वाला गीत उनकी शिल्पकला को बाखूबी प्रतिबिंबित करते हैं। यह जानकर और भी खुशी होती है कि वी. शांताराम के समय के बहुत से स्टूडियो बंद हो चुके हैं, लेकिन राजमकल अभी भी फिल्म निर्माण का केन्द्र है। नहीं तो फेम्स स्टूडियो, रूपतारा स्टूडियो, श्री साऊंड स्टूडियो, आशा स्टूडियो और रणजीत स्टूडियो आदि के तो नामो-निशान ही मिट गए हैं। राजकमल को समय के अनुसार प्रासंगिक बनाने के पीछे वी. शांताराम की सिनेमा प्रति निष्ठा ही थी। उन्होंने अपने स्टूडियो के पहले फ्लोर पर ही अपना आराम करने और सोने का कमरा बनाया हुआ था। कहने का भाव यह है कि उनका सारा ही समय राजकमल में ही व्यतीत होता था। वैसे उनका मैनवल के नज़दीक पन्हाला में अपना अलग शानदार बंगला था। लेकिन वह वहां बहुत कम रहते थे। आजकल इस बंगले को उनकी बेटी सरोज ने ‘होटल वैली व्यू’ में बदल दिया है। वी. शांताराम के आखिरी दिन बहुत ही एकांत में बीते थे। उनको एहसास हो गया था कि उनके दिन कम रह गए हैं। इसलिए उन्होंने अपनी ज़िम्मेदारियां अपने बेटे किरण को सौंप दी थीं।