महाराष्ट्र में क्यों बढ़ रहा है दलितों और मराठों का संघर्ष ?

जिन दबंग समुदायों की बगावत और उनके कारण पैदा होने वाले सामाजिक संघर्षों के अंदेशे की पिछले अंक में मैंने चर्चा की थी, वह देखते ही देखते महाराष्ट्र की ज़मीन पर घटित होते हुए दिखाई देने लगा है। वहां बात ज़रूर पेशवाशाही (इसका मतलब हुआ ब्राह्मणों का राज, क्योंकि पेशवा ब्राह्मण होते थे) बनाम दलित की हो रही है, पर वास्तव में पूरा नज़ारा दलित बनाम मराठों का है। यानी संघर्ष कमज़ोर समुदाय और दबंग समुदाय के बीच है। महाराष्ट्र की राजनीति में ब्राह्मण प्रभुत्व अब कल्पना की बात भी नहीं रह गई है। स्वयं ब्राह्मणों ने भी लम्बे अरसे से राजनीति से हाथ खींच रखा है। फड़णवीस के मुख्यमंत्री बनने के कारण महाराष्ट्र के ब्राह्मणों में कुछ राजनीतिक उछाल ज़रूर आया है, लेकिन कुल मिला कर वे ऐसी सामाजिक शक्ति नहीं हैं कि दलितों से लोहा ले सकें। चूंकि सड़कों पर हिंसा हो रही है, और इसके रुक-रुक कर होते रहने का खतरा हमारी आंखों के सामने है, इसलिए ज़रूरी है कि वायदे के मुताबिक आर्थिक प्रश्न के अन्य पहलुओं पर गौर करने से पहले हम इसके सामाजिक आयामों पर एक गहरी नज़र डालें। कारण यह है कि विकास कहें या आर्थिक वृद्धि, दोनों ही सूरतों में उसके वितरण का प्रश्न केंद्रीय है। इंडियन ह्यूमन डिवैल्पमैंट सर्वे की रिपोर्ट हम सबके लिए उपलब्ध है, और उसके आंकड़े आंखें खोल देने वाले हैं। इससे यह पता लग जाएगा कि महाराष्ट्र में जो हो रहा है उसके कारणों का सुराग कैसे लगाया जा सकता है। 2004 से 2012 के बीच महाराष्ट्र में सबसे ज़्यादा स्नातक ब्राह्मणों के बीच थे। करीब 26 फीसदी। 2004 में रोज़गार के बाज़ार पर इनकी हुकूमत थी, क्योंकि इनमें से अधिकतर अंग्रेज़ी  स्कूलों से निकले थे। उस समय दलित समाज में केवल 1.9 फीसदी, पिछड़े समुदायों में केवल 3.5 फीसदी और मराठा समुदाय में केवल 4.6 फीसदी स्नातक ही थे। ज़ाहिर है कि इन समुदायों का रोज़गार के बाज़ार में दावा बहुत कमज़ोर था, और वे ब्राह्मणों को टक्कर देने की स्थिति में नहीं थे। लेकिन अगले सात सालों में नज़ारा बदला और इन तीनों ़गैर-ब्राह्मण समुदायों में ज़बरदस्त सामाजिक प्रतियोगिता हुई। इसके कारण 2012 आते-आते ये आंकड़े क्रमश: 5.1, 7.6 और 4.6 हो गए। स़ाफ है कि ये समुदाय अभी भी ब्राह्मणों से प्रतियोगिता नहीं कर सकते थे, क्योंकि प्रतिशत में वे बहुत पीछे थे और उनकी शिक्षा का माध्यम अंग्रेज़ी यदाकदा ही था। नतीजा यह निकला कि वे आपस में एक-दूसरे की प्रगति को देख कर ईर्ष्या महसूस करने लगे। आंकड़े बताते हैं कि सबसे ज़्यादा प्रगति ओबीसी समुदायों ने की, उसके बाद दलितों का नंबर है और सबसे कम प्रगति मराठों की है जो महाराष्ट्र में दबंग जाति की आत्म-छवि रखते हैं। साथ ही वे चुनावी राजनीति में सबसे बड़े मतदाता मंडल का निर्माण भी करते हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था की रोज़गार देने की क्षमता विभिन्न कारणों से इतनी ज़्यादा घट गई है कि इम्प्लॉयमैंट इलास्टिसिटी का प्रतिशत शून्य से नीचे चला गया है। निजी क्षेत्र में जो कुछ बेहतर रोज़गार के अवसर हैं, वे अंग्रेज़ी पढ़े-लिखे ब्राह्मणों और अन्य दिग्गजों के खाते में चले जाते हैं। कमज़ोर जातियों के युवकों को बाज़ार कुछ खास नहीं दे पाता। नतीजा निकलता है आरक्षण के लिए आंदोलनों, प्रदर्शनों और धरनों में। मराठों ने पिछले तीन साल में भारत के इतिहास में सबसे अधिक मौन लेकिन कर्णभेदी रैलियां निकाली हैं। उनकी मुद्रा दलितों के विरोध में है। दलितों की शिकायत यह है कि मराठा लड़की के दुष्कर्म के आरोपी दलित युवक के साथ जो सुलूक हुआ वह दलित लड़की के दुष्कर्म के आरोपी मराठा युवक के साथ हुए सुलूक से भिन्न था। जिस तत्परता से पहले मामले में कानून ने कार्रवाई की और सज़ा दी, उसी तत्परता से दूसरे मामले में आरोपी को छुड़वाने की भूमिका निभाई गई। दलितों को यह भी एहसास है कि नामांतर आंदोलन और रमाबाई नगर में चली गोली के बाद दलित आंदोलन का ग्राफ लगातार गिरता रहा है। मराठों के जुलूसों को दलित समुदाय अंदेशों के साथ देखता रहा है। इसलिए जैसे ही दो सौ साल पुराने भीमा-कोरेगांव प्रकरण की जयंती मनाने का मौका आया, लाखों लाख दलित अपनी राजनीतिक अस्मिता की दावेदारी करने के लिए मौके पर जमा हो गए। फड़णवीस के मुख्यमंत्री बनने के बाद सक्रिय हुए कुछ वर्णवादी तत्वों और मराठा-शक्ति के लिए आम तौर पर झंडा उठाते रहने वालों ने उन्हें सबक सिखाने की ठानी और सामाजिक उत्पात शुरू हो गया।इस पूरे प्रकरण में भाजपा सरकार की भूमिका काबिले-गौर है। बजाय इसके कि वह हिंसा के अंदेशों को पहले से पढ़ कर पक्का बंदोबस्त करती, उसने एक चालाकीपूर्ण रवैया अपनाया। उसकी पुलिस ने न तो आक्रामक मराठों को रोका, और न ही प्रतिरक्षा में आक्रामक हुए दलितों को। इसका परिणाम जाति-युद्ध में निकलना ही था। भाजपा द्वारा किये गए जातीय राजनीति के इस प्रयोग को आज हम सब अंदेशों के साथ देख रहे हैं, क्योंकि ऐसे प्रयोग हरियाणा, गुजरात, राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी हो सकते हैं। भाजपा को उम्मीद है कि हर जगह उसे इसका राजनीतिक लाभ मिलेगा। राजनीतिक ़फायदा उठाने की इस प्रवृत्ति का नतीजा यह निकला है कि सरकारी और विपक्षी दलों ने दबंग समुदायों की बगावत से उठने वाली आग में घी डाल दिया है। एक तरह से पूरा का पूरा लोकतंत्र समुदायों का बंधक बन गया है। अगर एक समुदाय सड़क पर निकल आता है, तो फिर किसी राजनीतिक दल में इतनी हिम्मत नहीं होती कि उसकी गलत और सही मांगों के बीच अंतर करके दिखाए, और एक बारगी हिम्मत से कहे कि वह अनुचित मांगों का साथ नहीं देगा। हालांकि मैं यह बात कई बार कह चुका हूं, लेकिन आज की परिस्थिति में यह बात एक बार फिर से कहे जाने की ज़रूरत है कि दबंग समुदायों को आरक्षण दे कर इस समस्या को पैदा करने की ज़िम्मेदारी भी भाजपा की ही है। राजस्थान में नब्बे के दशक में कांग्रेस से उसका जनाधार छीनने के लिए अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में जाटों को आरक्षण दिया गया था। उसी के बाद से यह सिलसिला शुरू हुआ जो आज तक थमा नहीं है। महाराष्ट्र के इस ताज़ा प्रकरण में दलित अस्मिता और हिंदू एकता में फूट डालने के प्रयासों का ज़िक्र जिस तरह किया जा रहा है, वे सब ऊपरी बातें हैं। उनका महत्व तभी तक है जब तक इस समग्र प्रकरण का कोई चुनावी समाहार नहीं हो जाता। इस राजनीति का इतिहास से भी कुछ लेना-देना नहीं है। दो सौ साल पहले भीमा नदी के किनारे जो जंग हुई थी, उसमें दोनों में से किसी पक्ष को विश्वास नहीं हुआ था कि उन्होंने यह जंग जीत ली है। महार सिपाही अग्रेज़ों की कमान में लड़ रहे थे, और आज की दलित राजनीति का उस समय कहीं अता-पता नहीं था। इसी तरह पेशवा की सेना में अरब से आए मुसलमान सिपाही, आज के ओबीसी और मराठा लड़ रहे थे। इन सिपाहियों को पता भी नहीं होगा कि एक दिन आज़ाद भारत की राजनीतिक आर्थिकी की शतरंज में उनकी स्मृतियां एक प्यादे की तरह इस्तेमाल की जाएंगी। मुझे तो यह भी लगता है कि अगर आज बाबासाहेब अम्बेडकर होते तो वे भी भीमा-कोरेगांव के इतिहास के इर्द-गिर्द हो रही राजनीति के दलित बनाम मराठा में नहीं बदलने देते। उन्होंने ही पहली बार इस स्मारक पर जा कर महार सैनिकों के पराक्रम को रेखांकित किया था। लेकिन तब उन्हें अंदाज़ा नहीं रहा होगा कि एक दिन महारों की बहादुरी की यह सराहना दलितों को दबंग समुदायों के मुकाबले खड़ी कर देगी।